बिहार के मेलों को जानें | Know the fairs of Bihar
बिहार के मेलों को जानें | Know the fairs of Bihar
किसी भी क्षेत्र के सांस्कृतिक जीवन के स्वरूप एवं रहस्यों को समझने के लिए विविध अवसरों पर लगनेवाले मेलों का अध्ययन आवश्यक है। बिहार के सांस्कृतिक स्रोत उसके मेलों में सन्निहित हैं । सांस्कृतिक वैभव से परिपूर्ण बिहार मेलों के आयोजन के लिए प्रसिद्ध है। इस राज्य में अनेक प्रकार के मेले आयोजित होते हैं । कुछ मेले क्षेत्र विशेष की सीमाओं तक सीमित हैं । कुछ राष्ट्रीय स्तर तक ख्याति प्राप्त हैं । कुछ मेले तो विश्व स्तर पर भी प्रसिद्ध हैं । कई मेले ऐसे हैं, जिनका इतिहास, धर्म एवं संस्कृति से गहरा जुड़ाव है। बिहार के प्रसिद्ध मेले निम्नलिखित हैं-
सोनपुर का मेला या हरिहर क्षेत्र मेला
सोनपुर गंडक और गंगा के संगम पर अवस्थित एक प्राचीन तीर्थ क्षेत्र है, जो गज-ग्राह के युद्ध का पौराणिक स्थल है। यहाँ हरिहरनाथ का प्रसिद्ध मंदिर अपनी महिमा के लिए विख्यात है। सीता-स्वयंवर के समय श्रीराम-लक्ष्मण के साथ जनकपुर जाते हुए महर्षि विश्वामित्र ने यहाँ पर पड़ाव किया था । सोनपुर का एशिया प्रसिद्ध मेला कार्तिक पूर्णिमा से आरंभ होकर एक महीना तक चलता है । यह मेला राज्य का सबसे पुराना व विशाल मेला है । यह 1850 से निरंतर कार्तिक माह में लगाया जाता है। यह मेला ग्रामीण सांस्कृतिक दृष्टि से विश्व का प्रमुख मेला है। इस मेले का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हरिहर क्षेत्र ही सोनपुर से संबंधित है । सोनपुर के लगभग 15 कि.मी. क्षेत्र में 100 से अधिक मंदिर और मठ हैं । यहाँ प्रतिवर्ष देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से 15 से 20 लाख दर्शक आते हैं और भारत की धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं सांप्रदायिक एकरूपता का दर्शन करते हैं ।
वैसे तो इस मेले में लोगों की आवश्यकता के समस्त साधन उपलब्ध हैं, किंतु यह पशुओं के व्यापार के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मेले में लोग गाय, बैल, भैंस, हाथी, घोड़े से लेकर पक्षी तक की खरीदारी अपनी आवश्यकता के अनुसार करते हैं ।
वैशाली का मेला
राजा तृणबिंदु के पुत्र विशाल के द्वारा वैशाली बसाई गई थी । यहीं जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान् महावीर का जन्म हुआ था । गौतम बुद्ध भी कई बार यहाँ पधारे थे । यहाँ का लिच्छवी गणराज्य इतिहास-प्रसिद्ध है। हाजीपुर जिला के बनिया – बसाढ़ ग्राम को पुरातत्त्वविद् प्राचीन वैशाली मानते हैं । ‘विष्णुपुराण’ में वैशाली की स्थापना का वर्णन मिलता है । तदनुसार मनु के पुत्र ‘नैदिष्ट’ ने एक राजवंश की स्थापना की थी, जिसकी राजधानी वैशाली में थी। इस वंश के 34वें राजा सुमति थे, जो अयोध्या- नरेश श्रीराम के समकालीन थे । इस प्रकार वैशाली जिले का महत्त्व ऐतिहासिक होने के साथ-साथ राजनीतिक दृष्टि से भी कम नहीं है। कारण – इस क्षेत्र ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी निर्णायक भूमिका निभाई है।
भगवान् महावीर की जन्मस्थली होने के कारण वैशाली क्षेत्र में चैत्र त्रयोदशी को एक विशेष मेले का आयोजन किया जाता है। जैन धर्मावलंबी पूरे देश से इस मेले में भाग लेते हैं। इस अवसर पर यहाँ बहुसिद्धांत संगोष्ठी एवं विद्वत् सम्मेलन का आयोजन किया जाता है।
सीतामढ़ी का मेला
पुराणों में सीतामढ़ी को जनकजी द्वारा जोतने और उसी क्रम में सीता की प्राप्ति का स्थान कहा गया है । इस दर्शनीय स्थान के मुख्य नगर में ही प्राचीन जानकी मंदिर है। इस भूमि के प्रति भारत की धर्मप्राण जनता अत्यधिक श्रद्धालु रही है और अनेक पौराणिक कथाओं के अनुरूप मूर्ति – रचना करके यहाँ मंदिरों का निर्माण हुआ है । सीताजी के उत्पन्न होने के कारण इस भूमि का नाम ‘सीतामढ़ी’ हुआ, जो आगे चलकर ‘सीता मंडित’ शब्द का रूपांतरित ‘सीतामढ़ी’ रूप बना ।
सीतामढ़ी में प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को रामनवमी के अवसर पर एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है । इस दिन रामचंद्रजी, सीता और रामभक्त हनुमान की पूजा होती है। नगर स्थित जानकी मंदिर के पास विवाह पंचमी का मेला भी आयोजित होता है, जो काफी भव्य और आकर्षक होता है। इसका आयोजन राम-जानकी विवाहोत्सव के रूप में होता है।
सौराठ मेला
सौराठ बिहार के मधुबनी जिला का अति प्रतिष्ठित सांस्कृतिक ग्राम है, जो मैथिल ब्राह्मणों का विवाह – निर्णय स्थल है । यहाँ प्रतिवर्ष मैथिलों का विश्वव्यापी सम्मिलन होता है, जो मेले के स्वरूप में परिणत हो जाता है । सौराठ मेले का आरंभ 14वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ था । कर्णाट वंशीय राजा हरिसिंह देव ने मैथिल ब्राह्मण एवं कर्ण कायस्थों के लिए पंजी-व्यवस्था लागू की थी। तब से मैथिल लोग अपने वंश, गोत्र एवं संतार आदि का विवरण पंजीकारों को लिखवाते आ रहे हैं और उसी के आधार पर विवाह शुद्धि या वैवाहिक संबंधों का निर्णय तथा स्वीकृति इस स्थान पर प्राप्त होती है । जहाँ मैथिलों का वैवाहिक मेला लगता है, इसे ‘सभाशाछी’ भी कहते हैं । सौराठ के समीप ही ‘विस्पी’ ग्राम है, जो 15वीं शताब्दी में कवि विद्यापति को राजा शिवसिंह ने दान में दिया था। सौराठ का यह मेला ज्येष्ठ आषाढ़ माह में पंद्रह दिनों के लिए आयोजित किया जाता है । यह मेला मूलतः विवाह में आर्थिक परेशानियों से मुक्ति तथा मितव्ययता के उद्देश्य से आयोजित किया जाता है । इसमें विवाह योग्य युवकों एवं उनके अभिभावकों की उपस्थिति मुख्य आकर्षण का केंद्र होती है । विवाह योग्य कन्याओं के अभिभावक सौराठ मेले में योग्य युवकों के साथ विवाह संबंधों का निर्णय लेते हैं। पंजीकारों द्वारा विवाह संबंधों के निर्णय की स्वीकृति एवं विवाह तय हो जाने के उपरांत तत्काल विवाह का आयोजन हो जाता है। इस मेले में मिथिला के ज्योतिष, संस्कृत, वेद और दर्शन के प्रकांड विद्वान् लोग उपस्थित होते हैं ।
सौराठ में बिहार सरकार की ओर से अनेक धर्मशालाएँ तथा सड़कों की व्यवस्था की गई है। पानी और बिजली का भी अच्छा प्रबंध मेले में रहता है। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि अब पश्चिमी संस्कार में पले मैथिल तिलक – दहेज के लोभ में अपने घर पर ही विवाह संबंध तय करने लगे हैं, जिससे इस सभा की प्राचीन गरिमा को हानि पहुँच रही है ।
बौंसी मेला
बिहार-झारखंड सीमा के पास बाँका से मार्ग 16 किलोमीटर दूर भागलपुर- दुमका में बौंसी के निकट प्राचीन ऐतिहासिक सात सौ फीट ऊँचे मंदार पर्वत की तराई में मेला लगता है। इस मकर मेले में देश-विदेश से काफी संख्या में लोग आते हैं ।
मकर-संक्रांति के दिन ब्रह्म मुहूर्त में भगवान् मधुसूदन की शोभा यात्रा सैकड़ों पहिएवाले रथ में निकाली जाती है । लोकमान्यता के अनुसार, मकर संक्रांति के दिन पापहरणी-सरोवर में स्नान करने से व्यक्ति को सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है।
इसी पर्वत के नीचे भगवान् विष्णु ने दो दानवों मधु और कैटभ का वध किया, जिसके कारण भगवान् विष्णु का एक नाम ‘मधुसूदन’ पड़ गया ।
यह मेला राष्ट्रीय एकता, सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है।
गया का पितृपक्ष मेला
गया में आश्विन माह के कृष्णपक्ष के प्रथम दिन से लेकर आश्विनी अमावस्या तक पंद्रह दिनों की अवधि के लिए मेले का आयोजन किया जाता है । इस मेले को पितृपक्ष मेले के रूप में विश्व स्तर की ख्याति प्राप्त है । इस मेले में देश-विदेश से हिंदू धर्मावलंबी आकर अपने पितरों को मोक्ष प्रदान करने के लिए पिंडदान करते हैं । ऐसी धारणा है कि यहाँ पिंडदान करने से मृत आत्मा को स्वर्ग मिलता है । यह पिंडदान फल्गु नदी के किनारे एवं विष्णुपद मंदिर में किया जाता है ।
राजगीर का मलमास मेला
भारतीय पंचांग के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष मलमास होता है, जब वर्ष में एक मास अधिक हो जाता है । इस अवसर पर नालंदा जिले के राजगीर स्थान पर एक विशाल मेले का आयोजन होता है । ऐसी धारणा है कि पौराणिक ग्रंथों में वर्णित तैंतीस कोटि देवी-देवता इन दिनों यहाँ निवास करते हैं । इसीलिए हिंदू धर्मावलंबी इस मेले को बड़ी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाते हैं ।
बाबा ब्रह्मेश्वरनाथ का मेला
इस मेले का आयोजन बक्सर जिले के अंतर्गत ब्रह्मपुर नामक गाँव में होता है । मेला शिवरात्रि तथा वैशाख कृष्णपक्ष एकादशी को वर्ष में दो बार लगाया जाता है । यह मेला एक प्रकार का बृहत् पशु मेला है । इस में देश के विकसित व उन्नत नस्ल के पशुओं की खरीदबिक्री बड़े पैमाने पर होती है । यहाँ आनेवाले श्रद्धालु प्रथमतः बाबा ब्रह्मेश्वरनाथ पर जल चढ़ाते हैं, उनकी पूजा-अर्चना करते हैं, फिर पशुमेला और मेले में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों से अपना मनोरंजन करते हैं ।
बक्सर का मेला
बक्सर का पौराणिक महत्त्व है। ऐसी मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान् श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ यहाँ पधारे थे और गुरु विश्वामित्र के संरक्षण में शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत यहाँ के वनों में राक्षसों का नाश किया था । बक्सर के क्षेत्र में इन देवों की स्मृति में बहुत से दर्शनीय मंदिर हैं । इसी के इर्द-गिर्द चैत्र शुक्लपक्ष की नवमी को यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है ।
पावापुरी का दीपोत्सव मेला
नालंदा जिले का पावापुरी जैन धर्म के मतावलंबियों के लिए आस्था का स्थल है । पावापुरी में ही जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी । यहाँ दीपावली के समय महावीर के निर्वाण दिवस के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन होता है । इस मेले में बड़े पैमाने पर जैन धर्मावलंबी भाग लेते हैं।
सिमरिया मेला
बेगूसराय जिले में सिमरिया गाँव गंगा नदी के तट पर स्थित है। हरिद्वार की तरह ही यहाँ गंगा धार्मिक आस्था के लिए प्रसिद्ध है । यहाँ वर्ष में दो बार मेले का आयोजन होता है। उत्तरी बिहार का तो यह प्रसिद्ध मेला है ही, साथ ही यहाँ स्थित गंगा को मोक्षदायिनी गंगा के रूप में प्रसिद्धि मिली हुई है । धार्मिक दृष्टिकोण से यह मेला मुख्य रूप से गंगा – स्नान तथा स्नानोपरांत दान-पुण्य के लिए प्रसिद्ध है। देवघर की तरह यहाँ के कुछ पंडे उत्तरी बिहार के सुदूर गाँवों में जाकर अपने यजमानों को गंगाजल वितरण कर दक्षिणा प्राप्त करते हैं । पौराणिक धारणा के अनुसार काशी की तरह सिमरिया में प्राणांत करना मोक्ष-प्रदायक माना जाता है ।
बड़गाँव का मेला
बड़गाँव नालंदा जिले में अवस्थित है। बिहार के प्रसिद्ध छठ पर्व के अवसर पर यहाँ एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है । इस अवसर पर लोग यहाँ के तालाब में स्नान कर सूर्य को अर्घ्यदान करते हैं । नालंदा के श्रृंगारी, औरंगाबाद के देव, पटना के उलार और भोजपुर के बेलाऊर में भी इसी तरह के मेले लगते हैं ।
पटना साहिब गुरुद्वारे का मेला
सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंहजी का जन्मस्थल पटना साहिब (पूर्व नाम पटना सिटी) होने के कारण यह स्थान सिख समुदायों के लिए विशेष आस्था का केंद्र है। पूरे देश के सिख मतावलंबी गुरु गोविंद सिंह के जन्म-दिवस के अवसर पर यहाँ एकत्र होते हैं और यहाँ की झाँकियों में शरीक होते हैं। सिखों का यह विशिष्ट मेला है।
सहोदरा मेला
पश्चिमी चंपारण जिले के सहोदरा नामक स्थान पर लगनेवाला यह मेला विशेषकर शारू जनजातियों का मेला है । यहाँ माँ सुभद्रा का अति प्राचीन मंदिर है। ये जनजातियाँ इस मंदिर में प्रतिवर्ष एकत्र होकर अपनी भक्ति व आस्था का प्रदर्शन करती हैं।
सबौर मेला
भागलपुर स्थित सबौर कृषि महाविद्यालय, जो राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय के अंतर्गत है, द्वारा कृषि मेले का आयोजन किया जाता है । इसमें कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित नए किस्म के फल-फूल तथा सब्जियों की प्रदर्शनी लगाई जाती है । इस मेले में वैज्ञानिक दर्शकों को कृषि के क्षेत्र में हो रहे नवीनतम अनुसंधान की जानकारी देते हैं, ताकि किसान नई तकनीकों का लाभ उठा सकें।
कपिलेश्वर स्थान मेला
मधुबनी से 6 मील पश्चिम में एक स्थान है कपिलेश्वर । कपिलेश्वर स्थान में महादेव का प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ मकर संक्रांति पर विशाल मेले का आयोजन होता है । कूप एवं पुष्करिणी से युक्त ग्रामीण परिवेश का यह तीर्थस्थल ग्राम्य संस्कृति की पावन धरोहर को पुरातात्त्विक स्वरूप देता है । कपिल नामक एक शिवभक्त का नाम भी इससे जुड़ा है । अब उस कपिल की स्मृति लुप्त होकर यह कपिलेश्वर को समर्पित है । वर्तमान मंदिर को दरभंगा महाराज के पूर्वज महाराज राघव सिंह ने बनवाया था और राजदरबार से ही इसका खर्च वहन होता रहा ।
काढ़ागोला मेला
कटिहार जिले के अंतर्गत एक प्रसिद्ध स्थान है काढ़ागोला । यह पूर्वोत्तर रेलवे का एक स्टेशन भी है। काढ़ागोला उत्तर और दक्षिण बिहार को नौ- परिवहन से जोड़नेवाला एक मुख्य व्यावसायिक केंद्र है। यहाँ गंगा-तट पर प्रतिवर्ष माघी पूर्णिमा में पंद्रह दिन का मेला लगता है ।
जटमलपुर मेला
समस्तीपुर और दरभंगा की सीमा पर अवस्थित एक गाँव, जहाँ पर एक भग्न शिव मंदिर है। शिवरात्रि के दिन यहाँ विराट् मेला लगता है, जो मिथिलांचल का बहुत ही प्रसिद्ध मेला है। यह एक सांस्कृतिक धरोहर है, अतः इसकी रक्षा का ध्यान अपेक्षित है।
देकुली मेला
मिथिलांचल में दो ऐसे देकुली गाँव हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। पहला दरभंगा जिले के लहेरिया सराय स्टेशन से लगभग दो मील उत्तर को देकुली । यहाँ ओइनवार राजकुल के छठे नरेश देवसिंह ने अपनी राजधानी ओइनी से स्थानांतरित की थी । यहाँ प्रसिद्ध मेले का आयोजन किया जाता है । दूसरा सीतामढ़ी से लगभग 13 मील दूर शिवहर से दो मील पूरब राजपथ के सटे देकुलीगढ़ में प्राचीन भग्नावशेष हैं। इसके चारों ओर खाइयाँ हैं । गढ़ के ऊपर भगवान् शिव का मंदिर है, नाम है भुवनेश्वर मंदिर । वहीं भैरव मंदिर भी है । इस देवालय में प्रवेश करने के लिए सीढ़ियों से उतरना पड़ता है । गढ़ के पश्चिम में एक विशाल पुष्करिणी से देवालय तक सीढ़ियाँ हैं । प्रत्येक रविवार को यहाँ भक्तों का मेला लगता है। शिव मंदिर से सटे और भी गढ़ हैं । इसे द्रुपद राजा का गढ़ कहा जाता है ।
संक्रांति मेला
कभी पौष तो कभी माघ मास में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, उस काल को , । मकर संक्रांति कहा जाता है। इसे पुण्यकाल माना जाता है। इस अवसर पर लोग संगम – स्नान करते हैं। बिहार में गंगा, कोसी, , करेह, कमला-बलान, महानंदा, नारायणी, गंडक आदि नदियों में इस काल में स्नान की विशेष महत्ता है तथा इन नदी – तटों पर विशाल मेला लगता है । इसे तिला संक्रांति भी कहा जाता लोग उस दिन चूड़ा-दही, तिलकूट तथा तिल – खिचड़ी आदि व्यंजन खाते हैं ।
हरदीगढ़ मेला
सहरसा के सुपौत्र एवं मधेपुरा के सिंहेश्वर स्थान के बीच का एक प्रसिद्ध गाँव हैहरदीगढ़। यह गाँव यदुवंशी लोकदेव लोरिक का गढ़ रहा है। यहाँ की भगवती अपनी जाग्रत् रूप के कारण प्रसिद्ध है । लोरिक की स्मृति में यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर विशाल मेला लगता है ।
सिंघेश्वर स्थान का मेला
मधेपुरा से करीब 7 कि.मी. उत्तर में एक प्राचीन शिव मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ के शिवलिंग की स्थापना भगवान् विष्णु ने की थी। यह शिवलिंग मृग के श्रृंगखंड का है। इसलिए इस महादेव का नाम ‘श्रृंगेश्वर’ हुआ । यही नाम रूपांतरित होकर ‘सिंघेश्वर’ होकर प्रख्यात है । वराह पुराण के अनुसार, एक बार भगवान् शिव मृग की देह धारण कर जंगल की ओर चले गए। सभी देवगण उनकी खोज में निकले। प्रथम इंद्र ने शंकर को मृग रूप में देख उनके सींग का अगला भाग पकड़ा। सींग का कुछ अंश टूटकर उनके हाथ में रह गया, उसी प्रकार ब्रह्मा को सींग का बीच का भाग तथा विष्णु को जड़ का भाग हाथ लगा और शिव अदृश्य हो गए। विष्णु ने श्रद्धापूर्वक अपने हाथ से उसी श्रृंगमूल को भू-स्थापित कर दिया । कालांतर में वह शिवलिंग के रूप में भूगर्भ में चला गया। एक दिन जब गाय की बछिया वहाँ खड़ी हुई तो उसके स्तन से स्वतः दूध गिरने लगा। दर्शकों ने उस स्थान विशेष की खुदाई की, जिससे एक दिव्य शिवलिंग प्रकट हुआ। अब वही सिंघेश्वरनाथ महादेव के नाम से विख्यात । उक्त शिव-स्थल पर एक भव्य मंदिर है, जिसे स्थानीय निवासी श्री हरिचरण चौधरी ने बनवाया था। यहाँ प्रतिवर्ष शिवरात्रि के अवसर पर भारत – प्रसिद्ध मेला लगता है। यहाँ दूर-दूर से लोग भगवान् शिव को जल चढ़ाने आते हैं ।
इस मेले में राज्य सरकार के विभिन्न विभागों की ओर से प्रदर्शनियाँ लगाई जाती हैं । यहाँ बहुत बड़ा पशु मेला भी लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में पशुओं की खरीद-बिक्री होती है ।
पटना पुस्तक मेला
पटना में प्रतिवर्ष एक पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें भारत ही नहीं अपितु विश्व के ख्याति प्राप्त प्रकाशन अपनी पुस्तकों की प्रदर्शनी लगाते हैं । यह मेला लगभग 10-15 दिन तक चलता है। राज्य के पुस्तक – प्रेमी तथा शिक्षण संस्थाएँ यहाँ पुस्तकों की खरीद के लिए उपस्थित होते हैं। मेला अवधि में विविध साहित्यिक गोष्ठियों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन होते हैं। पटना पुस्तक मेले का रूप किसी पर्व-त्योहार से कम नहीं है।
उपर्युक्त मेलों के साथ बिहार राज्य के विभिन्न भागों में अनेकानेक छोटे-बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है । इनमें प्रमुख हैं – गया का बौद्ध मेला, भागलपुर का पापहरणि मेला, मनेर शरीफ का उर्स, दरभंगा का हराही पोखर मेला, खगड़िया का गोपाष्टमी मेला, सीतामढ़ी का बगहीमठ मेला, बक्सर का लिट्टी भंटा मेला, झंझारपुर का बिंदेश्वर मेला, पालीगंज का समढा मेला, मुजफ्फरपुर का तुर्की मेला, ब्रह्मपुर का कृषि मेला, बड़हिया का महारानी त्रिपुर सुंदरी मेला, फारबिसगंज का काली-पूजा मेला, पूर्णिया का गुलाब बाग मेला इत्यादि ।