बिहार के तीर्थस्थल | Pilgrimage places of Bihar
बिहार के तीर्थस्थल | Pilgrimage places of Bihar
मनेर : सूफी संतों की पहली कर्मभूमि बिहार अनेक धर्मावलंबियों की पवित्र भूमि है। इसे बौद्ध, जैन, सिख, हिंदू तथा मुसलिम संतमहात्माओं की जन्म एवं कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। यहाँ विभिन्न प्रकार के मतों के साथ सूफीवाद का भी जन्म हुआ। कहते हैं कि यहाँ मन से माँगी गई मन्नतें बहुत जल्द पूरी होती हैं ।
मनेर को इतिहास में समय-समय पर विभिन्न नामों से जाना गया है। गंगा तट की वह मणिमती नगरी, जो इल्वल की राजधानी थी । मनेर का प्रारंभिक और वास्तविक नाम ‘मनियार मठान’ था । प्राचीनकाल में यहाँ राजा मनियार का शासन था, जिससे इसका नाम ‘मनेर’ पड़ा। कुछ का कहना है कि मनेर पत्थरों का व्यापारिक केंद्र होने से इसका नाम ‘मनियार – पत्थर’ पड़ गया, जो कालांतर में मनेर हो गया ।
राजा मनेर के शासन काल में अरब से मौलाना सैयद शाह मुहम्मद यहाँ आए और हिंदू शासक को पराजित कर मनेर पर अधिकार कर लिया। फिर 1188 ई. में बख्तियार खिलजी ने मनेर पर अधिकार कर लिया ।
मुगलकालीन दो मकबरों के कारण मनेर को अद्भुत प्रसिद्धि मिली है। एक मकबरा ‘छोटी दरगाह ‘ के नाम से जाना जाता है; जबकि दूसरा मकबरा ‘बड़ी दरगाह’ के नाम से प्रसिद्ध है । आध्यात्मिक गुरु शाह दौलत के निधन के पश्चात् उन्हें सम्मान देने के उद्देश्य से 1613 से 1618 के मध्य उनके मकबरे का निर्माण करवाया, जो छोटी दरगाह के नाम से प्रसिद्ध है। वही छोटी दरगाह आज ‘मनेरशरीफ’ के नाम से जानी जाती है। यह एक सुंदर मकबरा है, जो सासाराम स्थित शेरशाह के मकबरे के बाद बिहार में मध्ययुगीन स्थापत्य कला का सबसे आकर्षक नमूना माना जाता है। यह एक ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है । मकबरे के ऊपर एक विशाल गुंबद पर कुरान की आयतें लिखी हैं। वस्तुतः इस मकबरे पर फतेहपुर सीकरी के मकबरे का प्रभाव परिलक्षित होता है । इसके पश्चिम में सन् 1618 में निर्मित एक भव्य मसजिद है, जहाँ आज भी नमाज पढ़ी जाती है ।
इसके विशाल सरोवर के पूर्वी छोर पर स्थित याहिया मनेरी का मकबरा (बड़ी दरगाह) उतना विशाल एवं भव्य नहीं है । विख्यात शायर अकबर इलाहाबादी के पिता, उनके बड़े भाई और पीर की मजार भी इसी दरगाह पर स्थित है । इसके ठीक सामने और तालाब के पश्चिम में हजरत मखदूम जलाउद्दीन सोहरावर्दी की मजार है।
मनेर में गाजी मियाँ का मेला एक लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसमें मनेर के प्रमुख संतों के स्मारक-अवशेषों की प्रदर्शनी होती है; संगीत (परंपरागत कव्वाली) का गायन होता है। श्रद्धालु, निर्धन और दरिद्र सभी लंगर का प्रसाद ग्रहण करते हैं । मनेर की दरगाह आज भी सांप्रदायिक सौहार्द, बंधुत्व, आपसी प्रेम और मानवसेवा का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती है ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 30 किलोमीटर।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – बिहटा।
हवाई मार्ग : पटना हवाई अड्डा ।
पावापुरी : तीर्थंकर महावीर की निर्वाण स्थली
पावापुरी वह पवित्र स्थल है, जहाँ धार्मिक उपदेश देते हुए कार्तिक अमावस्या को तीर्थंकर भगवान् महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था। उस स्थान पर आज भी एक प्राचीन स्तूप स्थित है। भगवान् महावीर का जहाँ दाह-संस्कार हुआ था, वहाँ कमल – सरोवर के बीच एक टापू पर सफेद संगमरमर का एक छोटा एवं सुंदर मंदिर बनवाया गया है। भगवान् महावीर के बड़े भाई नंदीवर्धन ने जिस मंदिर का निर्माण करवाया था, उसकी नींव पर आधुनिक जल मंदिर के वेदी – स्थल की भराई सोने की ईंटों से की गई थी। राजस्थानी शैली के सफेद मंडप स्तंभों के आच्छादनकारी गुंबद की कारीगरी लावण्य तथा आकर्षक नक्काशी से की गई है, जो अवर्णनीय है। मंदिर के चारों ओर जल-ही-जल है । चारों किनारों पर गोलाकार गुमटों पर स्वर्ण कलश हैं ।
पावापुरी के जल मंदिर में कार्तिक अमावस्या की प्रातः चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर का निर्वाण महोत्सव मनाया जाता है। दीपावली की पूर्व संध्या से ही श्रद्धालु भगवान् महावीर की पूजा-अर्चना प्रारंभ कर देते हैं। चाँदी के बने रथ पर सोने की बनी भगवान् महावीर की मूर्ति सजाकर रखी जाती है । रथ को श्रद्धालु खींचते हैं। इसके पीछे लकड़ी से बने रथ को आकर्षक तरीके से सजाकर श्रद्धालु जल मंदिर तक ले जाते हैं । इस शोभायात्रा में महिलाएँ अपने सिर पर कलश रखती हैं, जिसमें शंख, लक्ष्मी, कलश, जहाज आदि चौदह सामग्री होती हैं। इस रात यहाँ का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है ।
निर्वाण-लड्डू चढ़ाने और श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए हजारों श्रद्धालु जुटते हैं । चतुर्दशी में प्रात:काल भगवान् का मस्तकाभिषेक और विशेष पूजन होता है। फिर निर्वाण – लड्डू चढ़ाया जाता है । मध्यरात्रि में ठीक बारह बजे रथयात्रा के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है, जो जल मंदिर की परिक्रमा करती हुई पश्चिम की ओर बने रथपिंड पर जाती है, वहाँ भगवान् महावीर का पूजन किया जाता है ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 92 किलोमीटर, राजगीर से 16 किलोमीटर, बिहार शरीफ से 14 किलोमीटर, नालंदा से 25 किलोमीटर।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – पावापुरी।
हवाई मार्ग : पटना हवाई अड्डा ।
महाबोधि मंदिर विश्व के इतिहास में अद्वितीय स्मारक
महान् तीर्थ गयाधाम से लगभग 13 किलोमीटर दूर बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर विश्व के इतिहास में अद्वितीय स्मारक है । तथागत बुद्ध ने यहीं पर ज्ञान प्राप्त किया था । विश्वबंधुत्व, एकता और समानता का जो संदेश भगवान् बुद्ध ने दिया, उसकी प्रेरणा पहले-पहल उन्हें यहीं प्राप्त हुई थी। दुनिया भर से लाखों बौद्ध मतावलंबी हर साल यहाँ आते हैं ।
भगवान् बुद्ध का महाबोधि मंदिर विशाल और पवित्रतम मंदिर है । चतुष्कोण पीठिका से तन्वंग गोपुच्छाकार रूप में यह मंदिर उन्नत है । इसकी ग्रीवा गोलाकार है। इसके चारों कोणों पर चार मीनारें खड़ी हैं, जो मंदिर के दृश्य को हरीतिमा प्रदान कर नैसर्गिक सौंदर्य प्रदान करती हैं ।
प्रियदर्शी सम्राट् अशोक ने सबसे पहले भगवान् बुद्ध के चरण-कमलों से पूत इस पवित्र बोधि-स्थल को ऐतिहासिक स्मारक के रूप में परिणत किया। कालक्रम से जीर्ण होकर यह मंदिर मिट्टी में दब गया था। ब्रिटिश काल में कनिंघम का ध्यान इस ओर गया तो पुरातत्त्ववेत्ताओं की सहायता से इसका जीर्णोद्धार कराया। महाबोधि की रक्षा में सबसे अधिक योगदान बर्मा के बौद्ध राजाओं ने दिया ।
बोधिवृक्ष मंदिर के पश्चिम में है। देश-विदेश से आनेवाले बौद्ध अनुयायियों का साल भर यहाँ जमघट लगा रहता है । वे बोधिवृक्ष पर पवित्र धागे बाँधते हैं और अगरबत्ती व मोमबत्तियाँ जलाते हैं । इससे उनकी मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है । प्रसाद के रूप में यहाँ पावरोटी, जलेबी, फल, कपड़े, मोमबत्ती, द्रव्य सहित पैसे आदि समर्पित किए जाते हैं ।
दाई बुत्सु : बोधगया की पावन भूमि पर विशाल बुद्ध मूर्ति, यानी दाई बुत्सु का निर्माण किया गया है । भगवान् बुद्ध को श्रद्धा समर्पित करने एवं उनके उपदेशों का प्रसार-प्रचार करने के लिए जापान की धार्मिक एवं सामाजिक संस्था ‘दाइजोक्यो’ द्वारा बनाई गई भगवान् बुद्ध की विशाल प्रतिमा 80 फीट ऊँची है, जो पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है ।
मुचलिंद सरोवर: यहाँ मुचलिंद सरोवर है, जिसमें भगवान् बुद्ध स्नान किया करते थे । इसमें कमल के फूल खिलते रहते हैं । सरोवर के मध्य में ध्यानमुद्रा में भगवान् बुद्ध की मूर्ति है, जिसके ऊपर नागराज फन फैलाए हैं ।
अनिमेष लोचन स्तूप : यहाँ 53 फीट ऊँचा एक स्तूप बना है, जिसमें भगवान् बुद्ध की खड़ी मुद्रा बोधिवृक्ष की ओर देखते हुए मूर्ति है । यहीं उन्हें अपनी खोज की प्राप्ति में सहायता मिली थी। में
रत्न चंक्रमण चैत्य : यहाँ चबूतरे पर तथागत के पद चिह्न रूप में 18 कमल के फूल हैं । कहा जाता है कि भगवान् बुद्ध इसी जगह पर कभी-कभी विश्राम करते थे ।
राजायतन वृक्ष : यहाँ भगवान् बुद्ध ने अपना सातवाँ सप्ताह व्यतीत किया और लोगों को उपदेश देने का निर्णय लिया। इस प्रकार उन्होंने मानव मात्र के कल्याण का कार्य किया ।
अभिधम्म नाथ : यहाँ भगवान् बुद्ध ने आसन लगाकर गंभीर चिंतन मुद्रा में एक सप्ताह व्यतीत किया था। कहा जाता है कि यहाँ साधना करते हुए उनके शरीर से सफेद, पीला, लाल और नारंगी रंग का अलौकिक प्रकाश निकला था। इन रंगों को बौद्ध ध्वज में शामिल किया गया है।
पुरातत्त्व संग्रहालय : बोधगया के पुरातत्त्व संग्रहालय का ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व है । खुदाई के दौरान मिले बौद्ध काल के अवशेषों को यहाँ दर्शनार्थ सहेजकर रखा गया है। इसके अलावा 32 देशों के बौद्ध मठ विशिष्ट शैली में बने हैं।
सुजातागढ़ : छह वर्ष तक कठिन तपस्या करने के बाद जब सिद्धार्थ गौतम गंभीर रूप से बीमार पड़ गए थे, तब सुजाता नामक कृषक – कन्या ने उन्हें खीर खिलाई थी। नौवीं शताब्दी में इस स्थान पर कृषक – कन्या सुजाता की याद में एक विशाल स्तूप का निर्माण कराया गया, जो ‘सुजातागढ़’ या ‘सुजाता किला’ के नाम से विख्यात हुआ । विश्व भर के बौद्ध श्रद्धालुओं के लिए यह एक प्रमुख तीर्थस्थल है ।
डुंगेश्वरी पहाड़ : वर्षों की कठिन तपस्या के बाद सिद्धार्थ गौतम को डुंगेश्वरी पर्वत की कंदरा में मध्यम मार्ग का बोध हुआ। महाबोधि मंदिर से लगभग सात किलोमीटर पूरब दिशा में निरंजना तथा मोहना नदी के संगम पर डुंगेश्वरी नामक छोटा सा पर्वत है। इसी डुंगेश्वरी पर्वत पर सिद्धार्थ गौतम को मध्यम मार्ग का दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में चलकर यही मार्ग बौद्ध धर्म का आधार-स्तंभ बना ।
बाक्स : यह सर्वज्ञात है कि भगवान् बुद्ध को बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे 35वें वर्ष सम्यक् संबोधि का परमज्ञान प्राप्त हुआ था । इतिहास में कोई भी वृक्ष इतना प्रसिद्ध और समादृत नहीं है, जितना बोधगया का यह शाश्वत वृक्ष, जो आज तक मूकदर्शक बनकर खड़ा है । इसपर श्रद्धालुओं द्वारा बाँधी गई रंगीन पताकाएँ हवा में लहराती रहती हैं ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 124 किलोमीटर, गया से 12 किलोमीटर, नालंदा से 95 किलोमीटर, वाराणसी से 245 किलोमीटर। गया से बोधगया जाने के लिए ऑटो रिक्शा, बस तथा घोड़ागाड़ी ( टमटम ) की सुविधा उपलब्ध है।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – गया ।
हवाई मार्ग : पटना और गया हवाई अड्डा ! बोधगया से 6 किलोमीटर उत्तर में गया अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है । इंडियन एयरलाइंस द्वारा सप्ताह में दो दिन शनिवार तथा बुधवार को कोलकाता-गया-बैंकॉक तथा बैंकॉक-गया-कोलकाता विमान सेवा संचालित होती है ।
विश्वविख्यात है देव का सूर्य मंदिर
भारत में जहाँ भी सूर्य मंदिर हैं, उनका प्रवेश-द्वार पूर्व की ओर है, चाहे वह कोणार्क का हो या फिर उज्जैन का। लेकिन यही एक मंदिर ऐसा है, जो सूर्य मंदिर होते हुए भी उषाकालीन सूर्य की रश्मियों का अभिषेक नहीं कर पाता। लगभग सौ फीट ऊँचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। इसका ऊपरी भाग बोधगया और जगन्नाथपुरी के मंदिर की तरह मेहराबदार है। मंदिर का प्रवेश द्वार पार करते ही दाईं ओर हवन कुंड है, जहाँ सदैव अग्नि प्रज्वलित रहती है। पश्चिमाभिमुख इस मंदिर के सामने की दीवार में भगवान् गणेश की एक बड़ी सी मूर्ति स्थापित है। प्रतिमा के ऊपर मुँह फाड़े एक सिंह और दाएँ-बाएँ भी सिंह बने हुए हैं। मंदिर का कलश शुद्ध सोने का है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर शिलालेख है, जो ब्राह्मी लिपि में है ।
इसके आधार पर कहा जा सकता है कि त्रेता युग में बारह लाख सोलह हजार वर्ष बीत जाने पर माघ शुक्ल पंचमी, बृहस्पतिवार से इलापुत्र (ऐल राजा) ने इसका निर्माण कार्य आरंभ कराया था। वह चंद्रवंशीय राजा थे, प्रयाग उनकी राजधानी थी। प्रसिद्ध सूर्यकुंड को उन्होंने ही खुदवाया, क्योंकि उसके अलौकिक जल से उनका कुष्ठ रोग समाप्त हो गया था ।
मंदिर – निर्माण के संबंध में एक कहानी यह भी प्रचलित है कि इसका निर्माण एक ही रात में देवशिल्पी विश्वकर्मा ने अपने हाथों से किया था । ऐसा भी कहा जाता है कि जब औरंगजेब इस मंदिर की मूर्तियों को तोड़ने आया, तभी मंदिर का प्रवेश द्वार पूरब से पश्चिम की ओर हो गया ।
बिहार में इस तरह का भव्य और वास्तुकला का अप्रतिम नमूना कोई दूसरा मंदिर नहीं है। छठ के मौके पर लाखों भक्त यहाँ दर्शन करने और सूर्यकुंड में अर्घ्य देने आते हैं ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 189 किलोमीटर व गया से 110 किलोमीटर |
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – गया ।
हवाई मार्ग : गया हवाई अड्डा ।
हिंदुओं का महान् तीर्थ : गया
पाँच पहाड़ियों से घिरा होने के कारण गया शहर की स्थिति मनोरम बन जाती है। यह उत्तर-पश्चिम से मुरली पहाड़, पश्चिम से कटारी हिल, उत्तर-पूर्व में रामशिला, पूर्व में अबगिला की पहाड़ी तथा दक्षिण में ब्रह्मयोनि पहाड़ से घिरा है। गया हिंदुओं का महान् तीर्थस्थल है। भगवान् विष्णु ने गयासुर को पापियों को उबारकर सीधे स्वर्ग भेजने की एक दैवी शक्ति प्रदान की थी।
शास्त्रों में वर्णित है कि गया में एक बार पितरों का श्राद्ध करने के बाद पुनः श्राद्ध की जरूरत नहीं पड़ती। सनातन हिंदू धर्म में गंगा तट पर अंतिम संस्कार और गया में पिंडदान करना परम पवित्र माना गया है। पुराणों के अनुसार यह गयासुर राक्षस का निवास स्थान था, जिसे विष्णु ने राक्षसी प्रवृत्ति से मुक्त किया था।
विष्णुपद : वैष्णवों के लिए यह प्रमुख तीर्थस्थलों में एक है। विध्वंस होने पर सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजपूत राजाओं ने मजबूत सुंदर पत्थरों को चूने से इसका जीर्णोद्धार कराया ।
मंदिर के सामने थोड़ी दूर पर एक गज मूर्ति खड़ी है, जो सूँड़ में फल और फूल लिये हुए है । मानो वह विष्णुपद पर फल-फूल समर्पित कर रहा हो। इस मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि कोई चोर मंदिर के ऊपर सोने की छतरी चुराने के लिए चढ़ा था। वह ऊपर से गिरा और पत्थर का हो गया। वहीं पर एक काला पत्थर लगा दिया गया है। विष्णुपद जिस पहाड़ी पर है, वह गया के पूर्वी किनारे पर है। वहाँ उत्खनन के क्रम में गुप्त कालीन मिट्टी की मुहर मिली है, जिस पर त्रिशूल, दंड, शंख और चक्र अंकित हैं। इसकी बाईं ओर चंद्र तथा पहिए का चिह्न है ।
मंगलागौरी : कालिका पुराण के अनुसार गया में सती का स्तन मंडल भस्मकूट पर्वत के ऊपर दो पत्थरों पर गिरा था। इसी प्रस्तरमयी स्तन मंडल में मंगलागौरी माँ नित्य निवास करती हैं। जो मनुष्य शिला का स्पर्श करते हैं, वे अमरत्व को प्राप्त कर ब्रह्मलोक में निवास करते हैं । इस शक्तिपीठ की विशेषता है कि मनुष्य यहाँ अपने जीवनकाल में ही अपना श्राद्ध कर्म संपादित कर सकता है ।
प्रेतशिला पर्वत : यह पर्वत गया शहर से 6 मील उत्तर-पश्चिम में अवस्थित है। हिंदू धर्म के अनुसार यह प्रेत राजा यम के निवासस्थान के रूप में चिह्नित है। इसी के नीचे रामकुंड है, कहा जाता है कि श्रीराम ने इसी कुंड में स्नान किया था ।
ब्रह्मयोनि : ब्रह्मयोनि पहाड़ यहाँ की मुख्य पहाड़ियों में से एक है। इसके ऊपरी भाग में लंबी प्राकृतिक दरार हैं, जो मातृयोनि और पितृयोनि के नाम से प्रसिद्ध हैं । इस योनि से होकर गुजरने पर मनुष्य पुनर्जन्म के भय से मुक्त हो जाता है ।
रामशिला : रामशिला एक प्रसिद्ध धर्मतीर्थ है, जहाँ से संपूर्ण गया क्षेत्र का नजारा बड़ा ही मनोरम दिखता है । टिकारी नरेश द्वारा बनवाई गई सीढ़ियों से युक्त इस पर्वत पर पातालेश्वर शिव और राम-लक्ष्मण मंदिर दर्शनीय हैं ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 112 किलोमीटर।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – गया, कोलकाता से 458 किलोमीटर, वाराणसी से 220 किलोमीटर।
हवाई मार्ग : पटना और गया हवाई अड्डा ।
मुंडेश्वरी देवी का प्राचीन मंदिर
कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ से दक्षिण लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर भगवानपुर प्रखंड के रामगढ़ (पवरा मौजा) में लगभग 600 फीट ऊँची पवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी देवी का मंदिर बिहार के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है । अष्टकोणीय आधार पर बना इस वैभवशाली मंदिर का स्थापत्य गुप्त शैली के वास्तु-शिल्प का अन्यतम नमूना है । वाराही – स्वरूप में विराजमान देवी मंदिर में जीव हिंसा या बलि प्रथा I – का कोई स्थान नहीं है । परंतु आश्चर्यजनक है कि मनौती के बलि पशु को माँ की मूर्ति के सामने खड़े होकर पुजारी द्वारा अक्षत मात्र फेंकने से बलि पशु अपने आप निश्चेष्ट हो जाते हैं। पुन: ‘माँ कृपा करो’ कहते ही पशु चैतन्य हो उठता है। देवी की यह विशेषता सचमुच अद्वितीय है । 1500 वर्ष प्राचीन इस प्रस्तर मंदिर में गंगा, यमुना, शिव और पार्वती की मूर्तियाँ हैं । यह स्थान ‘मुंडेश्वरी धाम’ के नाम से जाना जाता है ।
मंदिर के बीचोबीच चतुर्मुख शिवलिंग स्थापित है। जिस प्रस्तर से यह चतुर्मुख शिवलिंग निर्मित है, उसमें सूर्य की स्थिति के साथ-साथ रंग बदलते रहते हैं । सूर्य के उदय होने से लेकर सूर्यास्त तक यह लिंग अपनी आभा की छटा बदलता रहता है। मुंडेश्वरी देवी की मूर्ति दरवाजेवाले भाग में है, जिसके हाथों में विभिन्न प्रकार के अस्त्र हैं और वह महिषासुर का मर्दन कर रही है।
मंदिर के प्रस्तरों पर अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, इनमें नर्तकों तथा गवैयों के चित्र प्रमुख हैं। मंदिर पवित्र तथा प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। किसी आततायी ने बड़ी बर्बरता से इस मंदिर को ध्वस्त किया है ।
प्रारंभ में यह मंदिर विष्णु या सूर्यनारायण (नारायणदेवकुल) देवता का था, जिन्हें शिलालेख में ‘मंडलेश्वरस्वामी’ भी कहा गया है। एक शिलालेख के अनुसार सन् 635 में इसे उदयसेन नामक शासक ने बनवाया था। मंदिर की चढ़ाई के अंतिम मुकाम पर दाईं ओर गणेश की अद्भुत मूर्ति स्थापित है। इसकी गरदन में सर्प लिपटा है। मंदिर परिसर में विश्रामगृह और संग्रहालय हैं। एक ही मंदिर में शिव और शक्ति की पूजा अनोखी है ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 180 किलोमीटर, भभुआ रोड स्टेशन से 27 किलोमीटर और भभुआ बस अड्डे से 12 किलोमीटर पर पवार मौजा में स्थित है।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – भभुआ रोड ।
हवाई मार्ग : पटना हवाई अड्डा ।
केसरिया स्तूप : विश्व का सबसे ऊँचा बौद्ध स्तूप
विश्व में आज तक उत्खनित – स्तूपों में यह विशालतम बौद्ध स्तूप है। यह पटना से 100 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम, मुजफ्फरपुर से 70 किलोमीटर दक्षिण, वैशाली से 45 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम एवं जिला मुख्यालय मोतिहारी से 50 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। इसे ‘दुनिया का सबसे ऊँचा बौद्ध स्तूप’ घोषित किया गया है। भौगोलिक दृष्टि से स्तूप का यह स्थान वर्तमान केसरिया में आता है। यहाँ अति प्राचीन बौद्ध स्तूप का होना प्रमाणित भी हो गया है ।
भगवान् बुद्ध ने एक बार कहा था कि कभी मैंने यहाँ चक्रवर्ती राजा होकर जन्म लिया था। इसलिए यहाँ तथागत की स्मृति को ताजा रखने के लिए एक वृहद् स्तूप बनवाया गया था। छठी शती ई. में गुप्तकाल के दौरान इसका आकार एवं संरचनात्मक सौंदर्य की वृद्धि कर इसमें सैकड़ों बुद्ध मूर्तियाँ भक्तों के दर्शनार्थ स्थापित की गईं । अपने ज्ञान को और प्रकाशवान बनाने के उद्देश्य से बुद्ध केसपुत से दक्षिण में वैशाली होते हुए बोधगया पहुँचे, जहाँ उन्हें बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस स्तूप के संबंध में जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनसे प्रमाणित होता है कि यह स्तूप गोलाकार है, जो प्रदक्षिणा पथ के साथ-साथ सीढ़ीनुमा चार सतहोंवाला है। ईंटों से निर्मित सीढ़ियाँ ऊपर की ओर क्रमशः कम होती गईं एवं कई सतहोंवाली वृत्ताकार बनावट प्राप्त हुई है। प्रदक्षिणा – पथ के साथ छह सतह की बनावट है, जो सभी ओर पथों से घिरी हुई है। इसकी दीवारों में कहीं-कहीं ताखें बनी हैं। प्रत्येक वृत्ताकार सतह में कई सेल हैं, जिनमें भगवान् बुद्ध की सुर्खी चूने से बनी विशाल मूर्तियों ने पुराविदों को चौंका दिया है। मूर्तियों की बनावट से तत्कालीन कला की निपुणता का आभास होता है । ये मूर्तियाँ ध्यानस्थ तथा भूमिस्पर्श मुद्रा में हैं। स्तूप में प्रयोग की गई ईंटों के कई आकार हैं। भूमिस्पर्श-मुद्रावाली बुद्ध मूर्ति पर सारनाथ शैली के अलावा गंधार शैली का भी प्रभाव है।
केसरिया का स्तूप राजा बेन के नाम से भी जुड़ा है। यह किला राजा बेन के गढ़ के नाम से भी जाना जाता है । अपनी उदारता के कारण बेन ने चक्रवर्ती के रूप में ख्याति अर्जित की। वह किसी प्रकार का कर नहीं लेते थे। कर वसूलने की घोषणा करने के बाद राजा बेन को इस नीति का दुष्परिणाम भुगतना पड़ा। उसकी दैविक शक्तियाँ अचानक लुप्त हो गईं एवं पत्नी स्नान करती हुई डूबकर मर गई। लगभग चार एकड़ में फैला एक बहुत बड़ा तालाब है। इसे लोग यहाँ सदियों से ‘सूर्यमुखी तालाब’ के नाम से जानते हैं। यहाँ के लोगों का मानना है कि यह तालाब राजमहल के अंदर का है और इसमें राजा-रानी स्नान करते थे। लगभग चार किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा में एक और टीला है, जहाँ रानी पद्मावती का महल था, जिसे आज रनिवास का भग्नावशेष कहा जाता है। लोग गढ़ यानी स्तूप के स्थान पर पहले किसी राजा का राजमहल होना मानते हैं। पुराविदों का कहना है कि रनिवास का टीला भी किसी बौद्ध मठ का भग्नावशेष है। इस बात की पुष्टि 1862 में हुए उत्खनन से प्राप्त भगवान् बुद्ध की प्रतिमा से होती है ।
अपना अंतिम उपदेश केसरियावासियों तथा वैशाली से आए लिच्छवियों को और जीवन के मूल्योंसिद्धांतों का विवेचन कर ‘अप्पो दीपो भव’, यानी अब अपने रास्ते का दीपक स्वयं बनो तथा भिक्षा पात्र स्मृति-चिह्न के रूप में भेंट कर गौतम बुद्ध कुशीनगर की ओर चल दिए, जहाँ उन्हें महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। इसी घटना की याद में सम्राट् अशोक ने इस स्थान पर एक वृहद् स्तूप का निर्माण कराया था ।
पहुँचने का मार्ग
सड़क मार्ग : पटना से 160 किलोमीटर, मुजफ्फरपुर से 65 किलोमीटर, बाराचकिया से 22 किलोमीटर, मोतिहारी से 54 किलोमीटर, हाजीपुर से 45 किलोमीटर।
रेल मार्ग : निकटवर्ती रेलवे स्टेशन – चकिया ।
हवाई मार्ग : पटना हवाई अड्डा ।