Shaheed Diwas 2025: 23 मार्च को क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस? जानिए 23 मार्च का इतिहास
Shaheed Diwas 2025: 23 मार्च को क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस? जानिए 23 मार्च का इतिहास
शहीद दिवस को मनाकर हम न केवल शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं बल्कि आज की पीढ़ी को उन शहीदों के जीवन और बलिदानों से परिचित भी कराते हैं. भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह युवकों के लिए हमेशा ही एक बहुत बड़ा आदर्श बना रहेगा..
23 March Shaheed Diwas in Hindi: जिंदा रहने की हसरत मेरी भी है…पर मैं कैद रहकर अपना जीवन नहीं बिताना चाहता. ये विचार क्रांतिकारी भगत सिंह के हैं और शहीद दिवस पर हम सब उन्हें और उनके साथियों को याद करेंगे. शहीद दिवस हर वर्ष 23 मार्च को इसलिए मनाया जाता है क्योंकि 1931 में इसी दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी. देश में तीनों वीर सपूतों का बलिदान प्रेरणास्रोत के रूप में देखा जाता है. यहां आप शहीद दिवस क्यों मनाया जाता है (Shaheed Diwas in Hindi) के बारे में विस्तार से जानेंगे.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु कौन थे?
- भगत सिंह कौन थे- सिर्फ 23 साल की उम्र में भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले, क्रांतिकारी आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा। जिनके क्रांतिकारी विचार आज भी रग-रग में जोश भर देते हैं। वे कहते थे- ‘बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती, क्रांति की मशाल विचारों से जलती है।’
- सुखदेव थापर कौन थे- लाहौर षड्यंत्र केस के प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक। जिन्होंने न केवल आंदोलन को संगठित किया, बल्कि भारत के युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाई।
- राजगुरु कौन थे- महाराष्ट्र के एक वीर योद्धा, जो अंग्रेजों के खिलाफ हर मोर्चे पर डटे रहे। उन्होंने साबित कर दिया कि ‘मातृभूमि की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।’
शहीद दिवस का इतिहास (Martyrs Day 2025)
- साल 1928 में साइमन कमीशन भारत आया था लेकिन उसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था. इससे पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुआ.
- इस प्रदर्शन का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे. हालांकि, ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेम्स ए स्कॉट के आदेश पर प्रदर्शन में लाठीचार्ज कर दिया गया, जिसमें लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए.
- चोट लगने के 2 हफ्ते बाद 17 नवंबर 1928 को दिल का दौरा पड़ने के कारण लाला लाजपत राय का निधन हो गया. डॉक्टरों का मानना था कि लाला लाय की मौत का कारण 30 अक्टूबर को उनकी देह पर पड़ी पुलिस की लाठियां थीं.
- उनकी मौत के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने जेम्स ए स्कॉट से बदला लेने का निर्णय किया.
- लाल लाजपत राय की मौत के एक महीने बाद 17 दिसंबर की शाम भगत सिंह और उनके साथी पुलिस ऑफिस से जेम्स स्कॉट के निकलने का इंतजार कर रहे थे. लेकिन अनजाने में साथी ने सॉन्डर्स को स्कॉट समझकर इशारा कर दिया.
- भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सॉन्डर्स हत्या कांड में दोषी ठहराया गया और 23 मार्च 1931 को उन्हें लाहौर जेल में फांसी दे दी गई.
लाला लाजपतराय के देहांत के बाद तेजी से बदले हालात
वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1927 में “साइमन कमीशन” मुम्बई पहुंचा। पूरे देश में साइमन कमीशन का विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतनी अधिक भीड़ और उनका विरोध देख सहायक अधीक्षक साण्डर्स ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया। इस लाठी चार्ज में लाला लाजपतराय बुरी तरह घायल हो गए, जिसकी वजह से 17 नवम्बर 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया।
चूंकि लाला लाजपतराय भगत सिंह के आदर्श पुरुषों में से एक थे, इसलिए उन्होंने उनकी मृत्यु का बदला लेने की ठान ली। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद और जयगोपाल को यह काम दिया।
सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर, जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वह ख़राब हो गयी हो। जयगोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।
साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को दी क्रांतिकारी की पहचान
17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे एएसपी सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने तीन-चार गोली दागकर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भागने लगे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया और कहा- आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा। नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को पूरे देश में एक क्रांतिकारी की पहचान दिला दी।
इस घटना के बाद अंग्रेजी सरकार बुरी तरह बौखला गई। हालात ऐसे हो गए कि सिख होने के बाद भी भगत सिंह को केश और दाढ़ी काटनी पड़ी। सन् 1929 में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में राजनीतिक बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में बढ़-चढ़कर भाग भी लिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।
उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक ‘सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी। यह बहुत ही दमनकारी क़ानून था और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।
… जब भगत सिंह ने बम फेंका बम
लेकिन चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों को यह हरगिज मंजूर नहीं था। उन्होंने निर्णय लिया कि वह इसके विरोध में संसद में एक धमाका करेंगे जिससे बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को उनकी आवाज सुनाई दे। इस काम के लिए भगतसिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त को कार्य सौंपा गया। आठ अप्रैल 1929 के दिन जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंक दिया।
भगतसिंह ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद का नाश हो और इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राज्यवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सजा मिली
राजगुरु को पूना से और सुखदेव को लाहौर से गिरफ्तार किया गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर ‘लाहौर षड्यंत्र’ का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। अदालत ने क्रांतिकारियों को अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर 1930 को निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली। हालांकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने फांसी दिए जाने के फैसले को बदलने के लिए दया याचिका दायर की। उस दया याचिका को 14 फरवरी 1931 को न्याय परिषद ने खारिज कर दिया।
जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु करीब दो साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं।
23 मार्च 1931 को दे दी फांसी
इसके बाद 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं और उसे पूरा पढ़ने का उन्हें समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – ठीक है अब चलो। और मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे गाते हुए तीनों क्रांतिकारी फांसी को चूमने निकल पड़े।
23 मार्च 1931 की मध्यरात्रि को अंग्रेजी हुकूमत ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया था। ऐसा कहा जाता है कि उस शाम जेल में पंद्रह मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे।
शहीद दिवस पर अपनों के साथ शेयर करें ये देशभक्ति से भरे संदेश- (Shaheed Diwas Quotes)
आओ झुककर सलाम करें उन शहीदों को,
जिनकी हिम्मत से यह वतन आबाद है,
वे मिट गए तो नाम रोशन हुआ,
उनके होने से ही यह देश आजाद है.
जो शहीद हुए हैं उनका अरमान जिंदा है,
जब तक रहेगा भारत, उनका नाम जिंदा है.
वो फांसी पर झूल गए ताकि हम सिर उठाकर जी सकें,
उनका बलिदान व्यर्थ न जाने दें.
ऐ मेरे वतन के लोगों
जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
जरा याद करो कुर्बानी.
भगत सिंह का नारा
- ‘मुझे गर्व है कि मैं एक क्रांतिकारी हूं। मैं बेड़ियों में जकड़कर नहीं मरूंगा, क्रांति की ज्वाला बनकर मरूंगा।’
- ‘वो मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते।’
- ‘मैं महत्वाकांक्षा, आशा और आकर्षण से भरपूर हूं। लेकिन जरूरत पड़ने पर मैं सबकुछ त्याग सकता हूं।’
- ‘इंकलाब जिंदाबाद’।