भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार | Bihar in Quit India Movement
भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार | Bihar in Quit India Movement
सन् 1857 में भारत में पहला स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ, जिसमें अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सशस्त्र संघर्ष हुआ, लेकिन इसका क्षेत्र सीमित था । अंग्रेजों के विरुद्ध यह संघर्ष दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा। देश के अन्य क्षेत्रों से अंग्रेजों की सहायता के लिए शीघ्र ही भारी मात्रा में मदद पहुँच गई। यह विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन संघर्ष चलता रहा। 9 अगस्त, 1942 को अंग्रेजों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन आरंभ हुआ।
बिहार में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की सुगबुगाहट द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभिक दौर से शुरू हुई, जब ब्रितानी सरकार ने बिना घोषणा और स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये भारतीय फौज को विश्वयुद्ध में झोंक दिया । अंग्रेज सरकार की इस कारगुजारी का देश सहित बिहार में भी विरोध हुआ ।
7 व 8 अगस्त, 1942 को बंबई में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ और तीन मुख्य बातें उभरकर सामने आईं। पहली, ‘करो या मरो’; दूसरी, ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ और तीसरी, ‘आज से हर भारतवासी अपने को स्वतंत्र समझे ।’ भारत आजाद कराने के लिए अब वह अपना नेता स्वयं है । उसे अन्य किसी नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है ।
इसके बाद देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो गया। बिहार में भी जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। आंदोलनों का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, बाबू श्यामनंदन, कार्तिक प्रसाद आदि क्रांतिकारी नेताओं के हाथों में था ।
आजाद दस्ता
क्रांतिकारियों ने ‘ आजाद दस्ता’ नाम का एक संगठन बना लिया था । इसकी स्थापना जयप्रकाश नारायण ने नेपाल की तराई के जंगलों में रहकर की थी। यह दस्ता क्रांतिकारियों को छापामार युद्ध एवं विदेशी शासन के विरुद्ध लड़ाई का प्रशिक्षण देता था। इसने ब्रितानी सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे। काफी धरपकड़ के बाद आखिर मई 1943 में जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, रामवृक्ष बेनी पुरी आदि नेताओं को गिरफ्तार कर हनुमान नगर जेल में डाल दिया गया ।
सियाराम ब्रह्मचारी दल
इस दल का गठन सियाराम सिंह ने किया। वे सुल्तानगंज के तिलकपुर गाँव के निवासी थे। यह दल सरकारी खजाने को लूटकर उनसे अस्त्र-शस्त्र खरीदता था और युवा क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित करके आजादी की लड़ाई में शामिल करता था। ज्यादातर यह दल अपनी गतिविधियाँ गुप्त रूप से संचालित करता था, लेकिन पुलिस के साथ इसकी खूनी झड़पें आम थीं। इस संगठन का प्रभाव मुंगेर, बलिया, भागलपुर, सुल्तानगंज, पूर्णिया आदि जिलों में व्याप्त था । बाँका-देवघर के पहाड़ों में खौजरी पहाड़, मंदार, बाराहाट और ढोलपहाड़ी जैसे दुर्गम स्थान इन आंदोलनकारियों के छिपने के ठिकाने थे, जहाँ बैठकर ये भारत को आजाद कराने की योजनाएँ बनाया करते थे ।
सचिवालय गोलीकांड
अंग्रेजो, भारत छोड़ो के राष्ट्रीय आह्वान पर 11 अगस्त, 1942 के दिन बिहार की राजधानी पटना में छात्रों का एक समूह जुलूस निकालता हुआ सचिवालय की ओर बढ़ रहा था । इनका इरादा सचिवालय भवन के सामने विधायिका की इमारत पर राष्ट्रीय झंडा फहराना था। जुलूस में प्राथमिक छात्रों से लेकर कॉलेज के सीनियर छात्र तक शामिल थे। सभी छात्र हाथों में तख्तियाँ लिये आजादी के तराने गाते हुए आगे बढ़ रहे थे कि सहसा उनकी ओर ताबड़तोड़ गोलियों की बौछार होने लगी। एकाएक जैसे आसमान टूट पड़ा हो । किसी की समझ में नहीं आया, क्या और कैसे हुआ ? जब तक समझे, तब तक देर हो चुकी थी। पटना के जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्थर ने निहत्थे छात्रों पर गोली चलवा दी थी। पुलिस ने 13-14 राउंड गोलियाँ बरसाईं । चीख-पुकार और खून से सचिवालय का इलाका थर्रा उठा । 25 से ज्यादा छात्र गंभीर रूप से घायल हुए और 7 छात्र शहीद हो गए ।
इस घटना के बाद भारत छोड़ो आंदोलन ने बिहार में और भी उग्र रूप ले लिया। राज्य भर में पुलिस और आंदोलनकारियों में खूनी झड़पें होने लगीं। 9 नवंबर, 1942 को दीवाली थी। पुलिस की निष्क्रियता का लाभ उठाकर जयप्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्र, योगेंद्र शुक्ला, सूरज नारायण सिंह आदि क्रांतिकारी नेता हजारीबाग जेल की दीवार फाँदकर भाग निकले।
सचिवालय कांड के विरोध में सभी स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। अनिश्चितकालीन हड़ताल हो गई। स्कूल-कॉलेज के युवा आंदोलन में कूद पड़े । सरकार ने सख्ती की तो वे गुप्त रूप से अपनी गतिविधियाँ चलाने लगे । तब ऐसा लगा कि शीघ्र ही अंग्रेजी सरकार को भारत से खदेड़कर, हिंद महासागर में डुबोकर उसका अंत कर दिया जाएगा, किंतु ऐसा हुआ नहीं। फिर भी इस संघर्ष और कुछ अन्य अनुकूल परिस्थितियों के कारण ब्रितानी साम्राज्य का अंत नजदीक दिखाई देने लगा था । यद्यपि इसके लिए बिहार सहित पूरे देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी ।
राज्य में गुप्त रूप से आंदोलन जारी था, क्योंकि राज्य के डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मथुरा बाबू, श्रीकृष्ण सिंह, अनुग्रह बाबू, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था ।
तारापुर गोलीकांड
अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान 15 फरवरी, 1942 को हुआ तारापुर गोलीकांड ‘ जलियाँवाला बाग कांड’ से भी बर्बर था, जो अंग्रेजों की दमन-नीति की जीती-जागती मिसाल है ।
आजादी के मतवाले बिहार के रणबांकुरे पूरे प्रदेश में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे थे। ऐसे में मुंगेर जिले के तारापुर थाने पर तिरंगा फहराने के लिए सैकड़ों क्रांतिकारी आ जुटे । क्रांतिकारियों के हाथों में तिरंगा, होंठों पर ‘वंदे मातरम्’ था और बीच-बीच में ‘भारतमाता की जय’ से आसमान गूँज उठता था । ऐसे देशभक्तिपूर्ण माहौल को अंग्रेज अफसर बरदाश्त नहीं कर सके । उन्होंने निहत्थे देशभक्तों पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया । इस गोलीकांड में 60 क्रांतिकारी शहीद हुए। इस गोलीकांड के बाद कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर हर साल देश में 15 फरवरी को ‘तारापुर दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। घटना के बाद अंग्रेजों ने शहीदों को शव – वाहनों में लादकर सुल्तानगंज में गंगा नदी में बहा दिया। 60 में से 13 शहीदों की पहचान हो पाई, बाकी अज्ञात रहे ।
मातृभूमि की रक्षा के लिए जान देनेवाले और जान लेनेवाले, दोनों तरह के सेनानियों ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था। पंडित नेहरू ने तारापुर कांड के बाद वहाँ का दौरा किया और शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए क्रांतिकारियों का हौसला बढ़ाया ।
साइमन कमीशन का विरोध
18 दिसंबर, 1928 को ‘साइमन कमीशन’ बिहार आया तो हार्डिंग पार्क (पटना) के सामने बने विशेष प्लेटफॉर्म के सामने तीस हजार से अधिक राष्ट्रभक्तों ने ‘साइमन कमीशन’ के खिलाफ नारे लगाए। इस आंदोलन की अध्यक्षता बाबू राजेंद्र प्रसाद ने की। बिहार के देशभक्तों ने इस अवसर पर नारा दिया –“जवानो, सबेरा हुआ, साइमन भगाने का बेरा हुआ ।”
इस आंदोलन ने प्रांत में आजादी की क्रांति की चिनगारी को और भड़का दिया। पटना में दानापुर रोड पर एक राष्ट्रीय पाठशाला खोली गई, जहाँ शिक्षा के साथ-साथ राष्ट्र-चेतना सिखाई जाती थी । मियाँ खैरुद्दीन के मकान को अस्थायी स्कूल में बदलकर छात्रों को पढ़ाया जाने लगा। बाद में यह जगह ‘सदाकत आश्रम’ के नाम से विख्यात हुई, जहाँ प्रांतीय और राष्ट्रीय नेता अकसर आजादी की लड़ाई की योजना बनाया करते थे ।
ब्रिटिश युवराज का विरोध
नवंबर 1921 में ब्रिटिश युवराज भारत की यात्रा पर पधारे। उनकी बिहार यात्रा भी पूर्व निर्धारित थी । स्थानीय नेताओं ने उनके आगमन का विरोध करने का फैसला किया। इसके लिए बिहार प्रांतीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। 22 दिसंबर, 1921 को राजकुमार पटना आए तो पूरे शहर में हड़ताल रखी गई। कई स्थानों पर राजकुमार को काले झंडे दिखाए गए। पुलिस और आंदोलनकारियों की झड़पें भी हुईं ।
बिहार में स्वराज दल
गोरखपुर के चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो देशबंधु चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू और विट्ठलभाई पटेल ने एक नई पार्टी ‘स्वराज दल’ का गठन किया। बिहार में स्वराज दल का गठन फरवरी 1923 में हुआ । नारायण प्रसाद दल के अध्यक्ष, अब्दुल बारी सचिव तथा कृष्ण सहाय एवं हरनंदन सहाय को सह सचिव बनाया गया। इस दल को पटना, तिरहुत, छोटा नागपुर, भागलपुर आदि तक फैलाया गया। इसके माध्यम से आजादी के आंदोलन भी आहूत किए गए, लेकिन इसे अपने मकसद में ज्यादा किए गए, सफलता नहीं मिली।
असहयोग आंदोलन
असहयोग आंदोलन के आरंभ में 6 अप्रैल, 1919 को पूरे बिहार में हड़ताल रही। छपरा, गया, मुजफ्फरपुर, मुंगेर आदि स्थानों पर हड़ताल का असर शतप्रतिशत रहा। इसी बीच सरकार ने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया तो 11 अप्रैल, 1919 को पटना में एक जनसभा का आयोजन किया गया, जिसमें उनकी गिरफ्तारी का विरोध किया गया। असहयोग आंदोलन के समर्थन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मजरुल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, मोहम्मद शफी और कुछ अन्य नेताओं ने विधायिका चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। 6 फरवरी, 1921 को पटना के राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्रांगण में बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन महात्मा गांधी ने किया, ताकि छात्रों को अंग्रेजी शिक्षा से इतर वैकल्पिक शिक्षा प्रदान की जा सके ।
हिंदू-मुसलिम एकता की स्थापना और राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से मजरुल हक ने 20 सितंबर, 1921 को सदाकत आश्रम से ‘मदरलैंड’ नामक अखबार निकालना आरंभ किया । अखबार ने किसानों की आर्थिक बदहाली की ओर गांधीजी का ध्यान आकर्षित किया। राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर गांधीजी 15 अप्रैल, 1917 को पटना, मुजफ्फरपुर तथा दरभंगा होते हुए चंपारण पहुँचे ।
चंपारण आंदोलन
यह गांधीजी का पहला सत्याग्रह आंदोलन था, जो बिहार के चंपारण से आरंभ हुआ । वहाँ अंग्रेजों ने नील के अनेक कारखाने खोल रखे थे। ऐसे अंग्रेजों को ‘निलहे’ कहा जाता था । ये लोग अपने खेतों में तो नील पैदा करवाते ही थे, साथ ही पूरे जिले के किसानों को मजबूर करते थे कि वे एक बीघे के पीछे तीन कट्ठे में नील की खेती अवश्य करेंगे। इस प्रकार इस नील को ये निलहे मनमाने दामों में खरीदते थे । इस प्रथा को ‘तीनकठिया’ कहा जाता था। इस प्रथा के कारण चंपारण के किसानों का भयंकर शोषण हो रहा था । किसान असंतुष्ट थे।
गांधीजी जब 16 अप्रैल, 1917 को चंपारण के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तभी मोतिहारी के एस.डी.ओ. के सामने उपस्थित होने का सरकारी आदेश उन्हें मिला। उस आदेश में लिखा हुआ था कि वे तुरंत क्षेत्र छोड़कर चले जाएँ । गांधीजी ने आदेश नहीं माना और अपनी यात्रा जारी रखी। स्थानीय प्रशासन ने उनके आगमन एवं सरकारी आदेश की अनदेखी को गैर-कानूनी घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया और मोतिहारी जेल भेज दिया। अगले दिन जब उन्हें अदालत में पेश किया गया तो हजारों लोगों की भीड़ उनके दर्शन के लिए वहाँ जमा हो गई, बाद में अदालत ने उन्हें रिहा कर दिया। इसी के साथ बिहार के लेफ्टिनेंट एडवर्ड गेट ने मामले में स्वयं हस्तक्षेप करके गांधीजी को वार्ता के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद नील किसानों के उत्पीड़न की जाँच के लिए एक समिति का गठन हुआ, जिसका नाम ‘चंपारण एग्रेरोरियन कमेटी’ था । गांधीजी के आग्रह पर ‘तीनकठिया’ प्रथा का तत्काल अंत कर दिया गया ।
खिलाफत आंदोलन
खिलाफत आंदोलन बिहार में आजादी के आंदोलन की तरह लड़ा गया । 16 जनवरी, 1919 को पटना में हसन इमाम के नेतृत्व में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया, जिसमें सरकार को चेताया गया कि वह खलीफा के अधिकारों की बहाली करे । दरअसल कुछ यूरोपीय देशों में तुर्की सुलतान के खलीफा पद को समाप्त कर दिया था, इसकी बहाली के लिए यह आंदोलन मौलाना मोहम्मद अली एवं शौकत अली द्वारा भारत में आरंभ किया गया था। मोतिहारी, छपरा, पटना और फुलवारी शरीफ में इस आंदोलन का ज्यादा असर देखा गया । पर सन् 1922 में यह पूरी तरह समाप्त हो गया ।
क्रांतिकारी आंदोलन
जब बंग-भंग आंदोलन हुआ तो बिहार के डॉ. ज्ञानेंद्र नाथ, केदारनाथ बनर्जी एवं बाघ ठाकुर दास ने इसका बीड़ा उठाया। 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के जिला जज डी.एच. किंग्सफोर्ड की हत्या के प्रयास में मुजफ्फरपुर के नामी वकील की पत्नी प्रिग्ल कैनेडी और उनकी बेटी की हत्या कर दी। फलत: 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गई। इस घटना के बाद भारत को आजाद कराने की भावना प्रबल हो उठी। चुनचुन पांडे, खेती नाग, बटेश्वर पांडे, घोटन सिंह, नलिन बागची आदि इस समय के प्रमुख क्रांतिकारी नेता थे ।
अब तक बंगाल महाप्रांत के रूप में था, उसमें बिहार व उड़ीसा भी शामिल थे । कलकत्ता से उन पर नियंत्रण होता था । 1 अप्रैल, 1912 को बंगाल से बिहार और उड़ीसा को अलग कर दिया गया; लेकिन बिहार- उड़ीसा एक ही राज्य बने रहे ।
इस प्रकार — भारत छोड़ो आंदोलन’ को अनेक आंदोलनों का साथ मिला और 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हो गया । ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के क्रम में बिहार में 15,000 से अधिक आंदोलनकारियों को बंदी बनाया गया 18,783 लोगों को सजा मिली और 134 देशभक्त मारे गए। आजादी के पूरे आंदोलन पर दृष्टिपात करें तो यह आँकड़ा कई गुना बढ़ जाएगा।
26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने पर बिहार भारतीय संघ का एक नया राज्य बन गया। 15 नवंबर, 2001 को इससे एक भाग अलग होकर झारखंड राज्य बन गया ।