सल्तनतकाल [कृषि, उद्योग, समाज, स्त्रियों की दशा, शिक्षा एवं साहित्य एवं कला – संगीत तथा स्थापत्य]

सल्तनतकाल [कृषि, उद्योग, समाज, स्त्रियों की दशा, शिक्षा एवं साहित्य एवं कला – संगीत तथा स्थापत्य]

सल्तनतकाल [कृषि, उद्योग, समाज, स्त्रियों की दशा, शिक्षा एवं साहित्य एवं कला – संगीत तथा स्थापत्य]

> सल्तनतकाल में कृषि : टिप्पणी (Agriculture)
प्राचीनकाल से ही भारतीयों की जीविका का मुख्य आधार कृषि था. अतः स्वाभाविक रूप से सल्तनतकाल में भी कृषि ही लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन थी, इसलिए देश की अधिकांश जनता कृषक थी. इस काल में भूमि को उपजाऊ बनाने तथा सिचाई के साधनों की व्यवस्था सुल्तानों द्वारा करने के कारण उपज बहुत अधिक होती थी. देश के अलग-अलग क्षेत्र भिन्न-भिन्न फसलों के लिए विख्यात थे. इब्नबतूता के अनुसार, वर्ष में कृषक दो या तीन फसलें काटते थे.. कृषि में मुख्य फसलें धान, गेहूँ, गन्ना, कपास आदि की खेती व्यापक क्षेत्रों में होती थी. दक्षिण भारत विभिन्न प्रकार के मसालों के लिए प्रसिद्ध था. इस काल में कृषि-क्षेत्र का अत्यधिक विस्तार हुआ. अलाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद बिन तुगलक एवं फिरोज तुगलक ने कृषि के विकास के लिए बहुत से प्रयास किये. फिरोज ने सिंचाई व्यवस्था को सुधारने के लिए बहुत-सी नहरों का निर्माण करवाया, वहीं मुहम्मद बिन तुगलक ने कम उपजाऊ क्षेत्र के विकास के लिए कृषि विभाग (दीवान-ए-कोही) की स्थापना की किसानों को उनकी आवश्यकता के हिसाब से इस काल में सुल्तानों द्वारा आर्थिक सहायता भी दी गई. अनाज के अतिरिक्त सल्तनतकाल में बड़े पैमाने पर फल-फूल भी उगाये जाते थे. फिरोज तुगलक ने अपने राज्य के विभिन्न भागों में 400 से भी अधिक फलों के बाग लगवाये. इस काल में बागवानी का भी खूब प्रचलन था.
इस प्रकार स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में कृषि की दशा सन्तोषजनक थी तथा किसानों पास पर्याप्त उत्पादन कर जमा करने के बाद शेष रह जाता था.
> सल्तनतकाल : उद्योग (Industry)
सल्तनकाल में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धों का विकास हुआ जिसके कारण कुशल कारीगरों का एक वर्ग उत्पन्न हुआ. इस वर्ग ने नगरों एवं औद्योगिक केन्द्रों का विकास करने में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया.
सल्तनतकाल में वस्त्र उद्योग, धातु उद्योग और चर्मउद्योग के साथ-साथ कागज, चीनी, शीशा, काष्ठ उद्योग आदि का विकास हुआ. इस काल में हाथी दाँत से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ तैयार की जाती थीं. ऊनी, सूती और रेशमी वस्त्र इस काल में अनेक स्थानों पर कुशल श्रमिकों द्वारा तैयार किये जाते थे. सूरत, बनारस, पटना, दिल्ली, एवं बंगाल वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे. कपड़ों को रंगने, उन पर कसीदाकारी का कार्य भी होता था, कपड़ों के अतिरिक्त दरी एवं कालीनों का भी निर्माण स्थान-स्थान पर किया जाता था. इस समय इस्पात से विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बनाने का उद्योग भी बड़े पैमाने पर विकसित था. दिल्ली, पटना, अवध एवं लाहौर इसके प्रमुख केन्द्र थे. बहुमूल्य पत्थरों को तराश कर उनसे रत्न आभूषण बनाये जाते थे. चीनी उद्योग के केन्द्र लाहौर, दिल्ली, बयाना, बरार एवं आगरा थे. चमड़े से इस काल में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ तैयार की जाती थीं. सुगन्धित तेल, इत्र एवं मदिरा का निर्माण भी बड़ी मात्रा में अनेक स्थलों पर किया जाता था. जहाज बनाने का काम प्रगति पर था तथा इसके लिए राज्य की ओर से कई कारखाने स्थापित किये गये थे.
इब्नबतूता के अनुसार, इस काल में दिल्ली संसार की सबसे बड़ी मण्डी थी. भारत का चीन, ईरान, अरब, मध्य एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका से व्यापारिक सम्बन्ध था. भारत विदेशों को इस्पात के बने अस्त्र-शस्त्र, सूती वस्त्र, अनाज, शक्कर, नील, विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ एवं मसाले, नीबू, सन्तरे, कागज, हीरा, मोती, चन्दन, केसर, कस्तूरी, हाथी दाँत, मोर इत्यादि का निर्यात करता था. इसके बदले में विदेशों से घोड़ा, अस्त्र, शस्त्र, खस, मेवे, फल, सोना, खजूर, शीशा इत्यादि का आयात करता था.
दिल्ली के सुल्तानों ने उद्योग एवं व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए आवागमन की सुचारु व्यवस्था को ; मुद्रा के प्रचलन एवं बैंक, हुण्डी, ऋण, ब्याज तथा बीमा व्यवस्था ने उद्योग-धन्धों एवं व्यापार के विकास को बढ़ावा दिया.
सल्तनतकाल में ही दो वर्ग थे— अत्यन्त अमीर वर्ग और गरीब वर्ग. गरीबों की दशा अत्यन्त दयनीय थी, जबकि धनवान ऐश-आराम का जीवन व्यतीत कर रहे थे.
> सल्तनतकालीन समाज
सल्तनतकाल के समाज को हम प्रमुख रूप से दो वर्गों में बाँट सकते हैं—
(1) मुस्लिम समाज,
(2) हिन्दू समाज.
भारत में तत्कालीन मुस्लिम समाज को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है— सुल्तान, अमीर, उलेमा और जनसाधारण.
(1) सुल्तान – सुल्तान और राज्य दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची थे. सुल्तान समाज का आदर्श था. वह शक्ति का सर्वप्रमुख केन्द्र था और उसकी महात्वाकांक्षा थी कि, सारा संसार उसके सम्मुख नतमस्तक हो. उसका नाम सिक्कों पर, खुतबे में लिखा व पढ़ा जाता था.
उसके दरबार में आम जन एवं दरबारी पंक्तियों में खड़े रहते थे. उसके पास अनेक महल, दास-दासियाँ तथा नौकर थे. उसके महलों में भी कर्मचारियों की विशाल संख्या रहती थी.
इस प्रकार सुल्तान के शान-शौकत और ठाठ-बाठ बड़े ही निराले थे.
(2) अमीर वर्ग – सुल्तान के बाद अमीरों का स्थान था. सल्तनतकाल में अमीरों की तीन प्रमुख श्रेणियाँ थीं
(i) खान, (ii) मलिक, तथा (iii) अमीर.
(i) खान—अमीरों में सबसे प्रमुख खान लोग थे. कुछ खानों को खान-ए-आजम की उपाधि प्रदान की जाती थी. बलबन और मुहम्मद तुगलक को ये पद प्राप्त थे.
(ii) मलिक– खान के बाद मलिक का स्थान था. सामान्यतः इनके पास बड़ी सेना रहती थी. इन्हें राज्य की ओर से जागीरें मिली हुईं थीं तथा इनका जीवन भी शानशौकत से बीतता था.
(iii) अमीर – इस शब्द का प्रयोग सामान्यतः राज्य के सभी सैनिक एवं असैनिक पदाधिकारियों के लिए होता था. इस वर्ग में विभिन्न जातियों के मुस्लिम तुर्क अफगान आदि होते थे.
इसके अलावा सल्तनतकाल में एक 'नव मुस्लिम' वर्ग भी था जिसमें मुसलमान बने मंगोल सम्मिलित थे.
> मुस्लिम वर्ग में उलेमा
इस वर्ग में धर्मशास्त्री, सैयद, पीर इत्यादि सम्मिलित थे. इन लोगों का इस्लाम से विशेष सम्बन्ध था. ये धर्मशास्त्री न्याय सम्बन्धी तथा धार्मिक पदों पर नियुक्त होते थे. ये दस्तार वंधा भी कहलाते थे. सैयद लोग 'कुलह दारान' कहलाते थे, क्योंकि ये लोग सिर पर कुलाह (टोपी) लगाते थे. इन लोगों का कार्य इस्लाम और कुरान की व्याख्या करना था तथा मुस्लिम विधि का निरूपण एवं प्रकाशन का कार्य इनका था.
> मुस्लिम वर्ग में जनसाधारण
इस वर्ग में मुख्य रूप से वे लोग सम्मिलित थे जो पहले हिन्दू थे और उन्होंने इस्लाम को स्वीकार कर लिया था. सामान्यतः सुल्तान इनकी ओर दया की दृष्टि रखता था. इन लोगों ने इस्लाम को धारण करके भी अपने अनेक संस्कारों को छोड़ा नहीं था. इस वर्ग में कारीगर, दुकानदार, छोटे व्यापारी एवं अन्य व्यवसायी आते थे. इनका जीवन अन्य वर्गों की अपेक्षा सादा था और ये अभाव ग्रस्त बने रहते थे.
> गुलाम
मुसलमानों द्वारा इस काल में युद्ध में लोगों को पकड़कर गुलाम बना लिया जाता था. वह अपने मालिक पर आश्रित रहता था तथा मालिक उसे अपनी इच्छानुसार बेच सकता था. यदि कोई गुलाम हिन्दू था और गुलाम बनने के बाद दि वह इस्लाम को स्वीकार कर लेता तो उसे गुलामी से मुक्ति मिल जाती थी और उसकी स्थिति पहले से बेहतर हो जाती थी. यदि कोई गुलाम थोड़ा योग्य होता और वह सुल्तान की सेवा में चला जाता तो उसके लिए किसी चीज की कमी नहीं रहती थी.
इस युग में लूट द्वारा प्राप्त धन के कारण अनेक दोष उत्पन्न हो गए थे. बड़े-बड़े सैनिक व नेता भोग-विलास में बुरी तरह फँस गए थे. इन धनी व्यक्तियों को धन की कोई कमी नहीं थी और सर्वसाधारण मुसलमानों के लिए ‘खानकाह' खुले हुए थे, जिसमें ये लोग बिना किसी मूल्य के भोजन एवं आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त कर सकते थे. अतः इस स्थिति में मुसलमानों को न खेती करने की आवश्यकता थी और न ही कोई धन्धा करने की. इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानों में एक प्रकार का निकम्मापन विकसित होने लगा. वे मदिरापान, द्यूत क्रीड़ा, इत्यादि में फँसकर अपना समय नष्ट करने लगे और धीरे-धीरे मुस्लिम वर्ग की शक्ति क्षीण हो गई.
> सल्तनतकाल में हिन्दू समाज
सल्तनतकाल में हिन्दू समाज से तात्पर्य गैर-इस्लामिक वर्ग से है और इस काल में अधिकांश जनसंख्या हिन्दू थी और इस सम्पूर्ण सल्तनतकाल में हिन्दू समाज के पारम्परिक ढाँचे में कोई परिवर्तन नहीं आया. हालांकि इस्लामी सम्पर्क के कारण इसमें कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं.
जाति-व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज — हिन्दू समाज की प्राचीनकाल से ही जाति-प्रथा इसकी प्रमुख विशेषता रही है और वर्ण-व्यवस्था का प्रारम्भिक रूप इस काल में अत्यन्त जटिल हो गया था. हिन्दू धर्मशास्त्रकारों एवं शासकों ने इस व्यवस्था को और अधिक जटिल बनाने में योगदान दिया वंश एवं जाति के अनुसार, व्यवसाय, रीति-रिवाज, खानपान, धार्मिक विश्वास, आचरण, सामाजिक नियम, संस्कार आदि निश्चित किए गए. इनको तोड़ने का अधिकार किसी को नहीं था. जातियाँ उपजातियों में विभक्त थीं, इस काल में अनेक वर्णसंकर और अस्पृश्य जातियाँ भी उदित हुईं. जातिव्यवस्था के बन्धन इतने कठोर थे कि, दयनीय स्थिति वाली अनेक जातियों के लोगों ने इस काल में इस्लाम को स्वीकार कर लिया.
> हिन्दुओं का सामाजिक विभाजन
मुसलमानों की दृष्टि में सभी हिन्दू जिन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया था, 'जिम्मी' थे, परन्तु हिन्दू समाज अनेक वर्गों में विभाजित होने के कारण एकसमान नहीं था. इस काल में भी ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च थी और उन्हें जजिया नहीं देने का विशेषाधिकार प्राप्त था. वे अपने प्रमुख व्यवसाय को छोड़कर शिल्प या अन्य व्यवसाय को भी अपना सकते थे.
क्षत्रिय होने का दावा राजपूत शासक करते थे और हिन्दू समाज की रक्षा का कार्य उनका प्रमुख दायित्व था. वैश्य लोग विभिन्न व्यवसायों में लगे थे, परन्तु शूद्र वर्ण और वर्णशंकर जातियों के लोगों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी. उन पर अनेक प्रकार के सामाजिक प्रतिबन्ध लगे थे. 
इस काल में अनेक सुल्तानों ने अपने आपको केवल मुसलमानों का शासक माना और धार्मिक संकीर्णता का परिचय देते हुए हिन्दुओं के मन्दिरों एवं मूर्तियों को नष्ट किया. उनकी हत्याएँ करवाई. धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया गया. इस प्रकार स्पष्ट है कि, 'जिम्मी' हिन्दू प्रजा की दशा मुसलमान वर्ग से निम्न थी.
> सल्तनतकाल में स्त्रियों की दशा
सल्तनतकाल में स्त्रियों की दशा प्राचीनकालीन स्त्रियों के समान तो नहीं थी, फिर भी उसका समाज में आदरपूर्ण स्थान था. हिन्दू परिवारों में उसे गृहस्वामिनी का स्थान प्राप्त था और कोई भी धार्मिक कार्य उसके बिना सम्पन्न नहीं होता था. इस काल में स्त्रियों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाता था. अतः कई विदुषी महिलाएँ भी इस समय में हुईं जैसे कि अवन्ति सुन्दरी तथा उभय भारती आदि.
इस काल में धनी वर्गों एवं राजघरानों में बहुविवाह का अधिक चलन हो गया था और इस कारण से उसे अब भोग की वस्तु भी समझा जाने लगा था. एक ही पति की अनेक पत्नियाँ एक-दूसरे से ईर्ष्या करती थीं. तुर्की के आने के बाद उनके रनिवासों का आकार बढ़ने लगा और स्त्रियों का सामाजिक मान-सम्मान और भी कम होने लगा. अपने पति की मृत्यु के बाद उनको अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उसकी चिता के साथ ही जलकर मर जाना होता था, क्योंकि हिन्दू समाज में इस काल में विधवा का जीवन नारकीय था और उसे पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी.
इसी काल में मुस्लिमों के अत्याचारों से बचने के लिए बाल विवाह का प्रचलन हिन्दू समाज में बढ़ा तथा उनके रूप लावण्य को कोई अन्य न देख सके, इसके लिए पर्दा प्रथा का प्रचलन बढ़ गया. कन्या का जन्म परिवार में दुःख आने का कारण माना जाने लगा. हिन्दुओं में निम्न वर्ण की जातियों में स्त्रियों को प्रायः सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे, उनमें विधवा विवाह, तलाक, स्वेच्छा से विवाह आदि का चलन था और पर्दा प्रथा का उनमें अभाव था.
मुस्लिम परिवारों में हिन्दू परिवारों की तुलना में स्त्री का सम्मान बहुत कम था. यहाँ सामान्य लोग भी एक से अधिक विवाह करते थे. दासियों के साथ उनके अवैध सम्बन्धों ने परिवारों की शान्ति को भंग कर दिया था. दासियों को रखना उनके सम्मान में वृद्धि का सूचक माना जाता था.
मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा अधिक कड़ी थी. दिल्ली सुल्तानों जैसे फिरोज और सिकन्दर लोदी ने उनकी स्वतन्त्रता पर और कड़े प्रतिबन्ध लगाते हुए उन्हें मजारों पर जाने से मना कर दिया दलील यह दी कि वहाँ पर अनेक पथभ्रष्ट लोग भी जाते हैं.
मुस्लिम समाज की स्त्रियों को कुछ स्वतन्त्रता भी थी जैसे कि, उन्हें सती नहीं होना पड़ा था. वे विशेष परिस्थितियों में अपने पति को तलाक भी दे सकती थीं.
सामान्यतः पारिवारिक जीवन अशान्त नहीं था और पति-पत्नी में सद्भावना, स्नेह और सम्मान बना रहता था. मुस्लिम समाज में भी उच्च वर्गों में तलाक एवं विधवा विवाह की घटनाएँ कम होती थीं और स्त्रियों की सच्चरित्रता के कारण कुल परम्परा की रक्षा होती थी जिससे समाज में स्थायित्वं और शान्ति बनी हुई थी.
> शिक्षा एवं साहित्य
> सल्तनतकाल में शिक्षा
भारत में प्राचीनकालीन शिक्षा का जो स्वरूप था वह मध्यकाल तक आते-आते परिवर्तित हो गया था. गुरुकुल का स्थान अब मदरसे एवं मकतब ले चुके थे. मदरसों की स्थापना राज्य की ओर से की जाती थी, जहाँ पर उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी वहीं मकतब प्राइमरी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे.
12वीं सदी में मुहम्मद गोरी के भारत विजय के बाद तथा दिल्ली में सल्तनत के स्थापित होने के उपरान्त मुस्लिम संस्कृति भारत में प्रवेश कर गई तथा दिल्ली उसकी प्रमुख केन्द्र बनी. इसी समय ऐबक व गोरी ने अजमेर में अनेक मदरसों की स्थापना की.
सुल्तान इल्तुतमिश विद्वानों का सम्मान करता था तथा उसके दरबार में अनेक विद्वान् रहते थे. उसने दिल्ली में सबसे पहले एक मदरसे की स्थापना करवाई और उसका नाम गोरी के नाम पर ‘मदरसा - ए - मुइजी' रखा. ठीक इसी प्रकार का उसने एक अन्य मदरसा बदायूँ में खोला. इस मदरसे के कारण बदायूँ उत्तरी भारत में इस्लामी संस्कृति का केन्द्र बन गया.
नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में उसके प्रधानमन्त्री बलबन ने एक मदरसे की स्थापना करवाई जिसका नाम उसने नासिरिया (Nasirya) रखा. मिनहज-उस- शिराज इस मदरसे के प्रधान बनाये गये थे. बलबन ने सुल्तान बनने के बाद विद्वानों को बहुत अधिक प्रश्रय देना प्रारम्भ कर दिया. उसके दरबार में अमीर हसन और अमीर खुसरो जैसे लोग निवास करते थे. जियाउद्दीन बरनी ने उन सभी लोगों की एक बड़ी सूची दी है जो इन मदरसों में शिक्षा देते थे.
मंगोलों के आक्रमण के समय अनेक विद्वान् कलाकार मध्य एशिया से आकर भारत में (दिल्ली) बस गये. इनमें शमसुद्दीन ख्वारिज्मी, बुरहानुद्दीन बजाज, कलीमुद्दीन जाहिद, निजामुद्दीन दमिश्की आदि थे. इन सभी लोगों को दिल्ली के मदरसों में शिक्षा प्रदान करने के लिए इस समय नियुक्त किया गया था.
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने हौजखास के निकट एक भव्य मदरसे की स्थापना की जिसकी मरम्मत आगे चलकर फिरोज तुगलक ने करवाई थी. अलाउद्दीन के प्रधानमन्त्री शमसुद्दीन का प्रारम्भिक जीवन एक शिक्षक के रूप में गुजरा था और इसने शेख निजामुद्दीन औलिया को शिक्षा प्रदान, की थी.
मुहम्मद बिन तुगलक स्वयं एक बड़ा विद्वान् था. उसने 1334 ई. में दिल्ली में एक मदरसे की स्थापना की तथा प्रसिद्ध कवि बद्र-ए-चाच को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया था. 
सल्तनतकाल में फिरोज तुगलक ने उच्च शिक्षा के विकास के लिए सराहनीय प्रयास किये, उसने अपने साम्राज्य में लगभग 30 मदरसों की स्थापना की. उसके द्वारा बनवाये गये मदरसों में सर्वाधिक प्रसिद्ध मदरसा दिल्ली में बना ‘मदरसा-ए-फिरोजशाही' था. बरनी के अनुसार, यह एक सुन्दर बगीचे में स्थित था तथा उसमें शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के रहने की पर्याप्त सुविधाएँ थीं. इसका प्रधानाचार्य 'मौलाना जलालुद्दीन रुमी था. फिरोजशाह ने एक अन्य सुन्दर मदरसा 'सीरी' में बनवाया था. फिरोजशाह ने विद्वान् अध्यापकों को अनेक जागीरें प्रदान की विद्यार्थियों को वजीफे प्रदान किये.
लोदी काल में सिकन्दर लोदी ने आगरे में मदरसों की स्थापना करवाई. उसने अनिवार्य शिक्षा पर बल दिया. उसने अरब, फारस एवं मध्य एशिया के अनेक विद्वानों को यहाँ बुलाकर शिक्षक नियुक्त किया. सिकन्दर लोदी के समय के 'मथुरा' तथा 'नरवार' के मदरसों में कोई भी बिना किसी जाति एवं रंगभेद के शिक्षा ग्रहण कर सकता था.
दिल्ली सल्तनत के अतिरिक्त इस काल में अनेक प्रान्तीय राज्यों ने भी शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इसमें जौनपुर का नाम विशेष उल्लेखनीय है. इसे ‘पूर्व का सिराज' या 'शिराज - ए - हिन्द' की संज्ञा दी गई थी. बहमनी सुल्तानों के समय महमूद गँवा ने बीदर के प्रसिद्ध मदरसे की स्थापना की थी.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में शिक्षा पर वह भी उच्च शिक्षा पर सुल्तानों द्वारा विशेष ध्यान दिया गया था.
> सल्तनतकाल में साहित्य का विकास
सल्तनतकाल में हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क के कारण भाषाओं तथा साहित्य के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा. तुर्क सुल्तान साहित्य के प्रेमी थे. उनके समय में प्रादेशिक भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत, हिन्दी तथा फारसी साहित्य की बहुत अधिक उन्नति हुई. सुल्तानों ने फारसी साहित्य के विद्वानों को प्रमुखता से अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया.
डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार "एक आधुनिक लेखक ने लिखा है कि यह समय सांस्कृतिक सम्पन्न राज्य का था. इसके विपरीत अन्य इतिहासकारों का मत है कि, सल्तनतकाल सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दृष्टि से पूर्णतया निष्फल था. दोनों ही मत अतिवादी विचारों के प्रतीक हैं और सत्य से दूर हैं, जो राज्य विदेशी और साम्प्रदायिक आधार पर गठित था. इसकी भाषा, संस्कृतिआदर्श और यहाँ तक कि प्रेरणा भी विदेशी थी. तुर्क अफगान शासक मूलतः सैनिक लोग थे, फिर भी उन्होंने इस्लामी विद्या और कला को प्रोत्साहन दिया." उनके समय में लिखित भाषाओं के साहित्य में अधिक उन्नति हुई—
(1) फारसी साहित्य – कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर सिकन्दर लोदी के समय तक प्रत्येक सुल्तान के दरबार में फारसी लेखकों, कवियों, दार्शनिकों, इतिहासकारों आदि का जमाव रहता था. इस काल के विद्वानों जिनको कि सल्तनत दरबार का संरक्षण मिला उनमें हसन निजामी, रहानी, नसीरी जादुद्दीनदबीर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. इसी काल में अमीर खुसरो जैसे महान् साहित्यकार, कवि एवं संगीतकार हुए जिन्हें सल्तनतकाल के 5 सुल्तानों का संरक्षण मिला. इन्होंने लगभग 92 रचनाएँ लिखीं जिनमें लैला-मजनूँ. देवलरानी-खिज्रखाँ, हस्त-बहिस्त, नूह-ए-सिपहर, खजाइन-उलफूतूह आदि विशेष उल्लेखनीय हैं. इन्हें 'तूती - ए - हिन्द' कहा गया है.
अलाउद्दीन के समय में खुसरो के अतिरिक्त मीर हसन देहलवी, नुरूलहक जैसे विद्वान् भी थे. तुगलक काल में जियाउद्दीन बरनी, फरिश्ता तथा शम्स-ए-शिराज अफीफ जैसे विद्वानों को संरक्षण मिला और उन्होंने अनेक प्रसिद्ध रचनाएँ लिखीं.
(2) संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य — इस काल में संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य को सुल्तानों द्वारा संरक्षण प्रदान नहीं किया गया, परन्तु इस समय के हिन्दू राजाओं ने इस भाषा के साहित्यकारों को अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया. इस काल में रामानुज के ब्रह्मसूत्र पर टीका, पार्थसारथी द्वारा कर्ममीमांसा पर लिखे गये ग्रन्थ, जयदेव द्वारा गीत - गोविन्द, हरिकेलि नाटक, हम्मीर-मद-मर्दन (जयसिंह सूरि), प्रतापरुद्र कल्याण, पार्वती-परिणय (वामन भट्ट) आदि अनेक उल्लेखनीय रचनाएँ लिखी गयीं.
'मिताक्षरा' (मनुस्मृति पर टीका) की रचना करने वाले प्रसिद्ध विद्वान् इसी काल में हुए. जीमूतवाहन द्वारा 'दायभाग' की रचना की गई. विजयनगर साम्राज्य में कृष्णदेव राय द्वारा लिखा गया ग्रन्थ 'अमुक्त माल्यद' विशेष प्रसिद्ध है.
सल्तनतकाल में हिन्दी साहित्य का भी खूब विकास हुआ. इस समय में पृथ्वीराज रासो (चन्दबरदायी कृत) नामक महाकाव्य, हम्मीर रासो, आल्हाखण्ड, आदि प्रसिद्ध रचनाएँ लिखी गईं.
> उर्दू साहित्य
इस काल में 'जबान-ए-हिन्दवी' अर्थात् उर्दू भाषा की उत्पत्ति हुई. यह भाषा संस्कृत तथा उससे निकली भाषाओं तथा फारसी व तुर्की भाषा के सम्पर्क के कारण उत्पन्न हुई और इनके शब्दों के आपस में मिलते रहने से इस भाषा का विकास होता चला गया. आगे चलकर सुल्तानों ने राजदरबार के कवियों तथा लेखकों ने इस भाषा को और अधिक परिष्कृत किया और इस भाषा का एक निश्चित रूप दिया. अमीर खुसरो इस भाषा का प्रथम कवि माना जाता है.
> सल्तनतकाल में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास / साहित्य
सल्तनतकाल में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास अत्यधिक हुआ तथा उनमें अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये. इसका विवरण निम्नलिखित है
(1) मराठी साहित्य – मराठी साहित्य का विकास 13वीं सदी में ज्ञानेश्वर (मराठी के प्रसिद्ध विद्वान् एवं संत) से माना जाता है. इनकी पुस्तक 'ज्ञानेश्वरी' मराठी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तक है. यह मूल रूप से 'गीता' पर टीका है. इसी काल में एकनाथ नामक एक अन्य मराठी सन्त हुए, इन्होंने भागवत का मराठी में अनुवाद किया. इनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रुक्मणी स्वयंवर' और 'भावार्थ रामायण' है. मराठी में दशोपन्त ने 'गीतार्णव', 'पदार्णव' लिखा. तुकाराम ने मराठी में अनेक अभंगों की रचना की.
(2) गुजराती साहित्य - मारवाड़ी, ब्रज और अन्य भाषाओं के मिश्रण से गुजराती भाषा की उत्पत्ति सल्तनतकाल में हुई. इस भाषा के विद्वानों में सर्वप्रथम जयानन्द सूरि, गुणरत्न सूरि का नाम विशेष उल्लेखनीय है जिन्होंने 'क्षेम प्रकाश' व 'भरत बाहुबली रास' की रचना की. इस काल में अन्य ग्रन्थों में 'हंसरास, बछरास और शीलरास' की रचना विजय सूरि द्वारा की गई. 'शान्त रस' की रचना 1399 ई. में श्रीमुनि सुन्दर सूरि ने की.
नरसिंह मेहता गुजरात में अपनी कृष्ण भक्ति के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध हो गये. उन्होंने हरिमाल, सुदामा चरित, चातुरी शोषण, सामदास नौविवाह आदि ग्रन्थों की रचना की. भालन नामक कवि बाणभट्ट की कादम्बरी का गुजराती भाषा में अनुवाद किया. 16वीं शदी तक गुजराती में गद्य का विकास होने लगा तथा पंचतन्त्र, योगवशिष्ठ और गीता का अनुवाद गुजराती भाषा में किया गया.
(3) बंगला साहित्य – सल्तनतकाल में बंगला साहित्य के विकास का श्रीगणेश विद्यापति और चण्डीदास ने किया. इन लोगों ने कृष्ण को समर्पित अनेक गीतों की रचना की जिसमें शृंगार व भक्तिभाव स्पष्टतया झलकते हैं. इस काल के बंगाल के मुस्लिम शासकों ने भी बंगला को प्रोत्साहित किया. इस समय में नुसरतशाह ने रामायण एवं महाभारत का अनुवाद बंगला भाषा में करवाया. कृतवासी द्वारा रामायण का अनुवाद किया गया. सुल्तान हुसैनशाह ने गीता का अनुवाद बंगाली भाषा में मालाधर बसु द्वारा करवाया.
मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त चैतन्य महाप्रभु ने अपने गीतों और भजनों के माध्यम से बंगाली भाषा को सुदृढ़ किया. इसके बाद शिव- दुर्गा सम्बन्धी साहित्य ने भी बंगला को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
(4) दक्षिणी भाषाएँ – 13वीं शदी में शैव-सम्प्रदाय के सन्तों ने स्थानीय भाषा में शिव स्तुति में अनेक गीतों की रचना की. इसी समय के विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य के शासकों द्वारा तेलुगू भाषा के अनेक कवियों को संरक्षण प्रदान किया गया.
कृष्णदेव राय विजयनगर राज्य का एक विद्वान् और विद्वानों का संरक्षक शासक हुआ. इसने स्वयं ने राजनीति सिद्धान्त पर 'अमुक्त माल्यद' नामक महान् ग्रन्थ की रचना की. उसके दरबार में तेलुगू के महाकवि 'अलसानी बेदन्ना' थे, जिन्होंने ‘मनुचरित' की रचना की. उसी के दरबार के एक अन्य लेखक तिम्मण थे जिन्होंने 'पारिजात अपहरण' नामक ग्रन्थ लिखा.
इस काल में कन्नड़ भाषा में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के लेखकों ने धार्मिक और ऐहिक साहित्य की रचना की.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में सुल्तानों के संरक्षण प्रायः न देने के बावजूद भी स्थानीय शासकों के संरक्षण में क्षेत्रीय भाषा साहित्य की खूब उन्नति हुई.
> सल्तनतकाल में चित्रकला : टिप्पणी
सल्तनतकाल धर्म पर आधारित राज्य का काल था, जिसमें प्रशासन का संचालन क़ुरान के नियमों के आधार पर होता था. कुरान में प्राणी के चित्र बनाने की मनाही होने के कारण इस काल में चित्रकला का पर्याप्त विकास नहीं हो सका, फिर भी हमें इस काल में चित्रकला के अनेक उदाहरण मिलते हैं.
सल्तनतकाल में मुख्य रूप से भित्ति चित्र एवं पाण्डुलिपियों की चित्रकारी के अनेक साक्ष्य हैं. ताजुद्दीन रजा और इसामी के लेखों से ज्ञात होता है कि इल्तुतमिश के समय चित्रकला प्रचलित थी. उसके समय में उसने बंगाल विजय के उपलक्ष्य में एक चाँदी का सिक्का जारी किया तथा उस सिक्के पर उसका घोड़े पर सवार शानदार चित्र अंकित है. सल्तनतकाल में महल में निजी कक्षों को, दीवारों को सुन्दर भित्ति चित्रों से सजाया जाता था. कपड़े पर भी कसीदे की सहायता से चित्र बनते थे. सल्तनतकालीन भित्ति चित्रों के कुछ प्रमाण चम्पानेर एवं सरहिन्द के स्मारकों तथा मखदूमवली मस्जिद में मिलते हैं. इन भवनों की दीवारों को सुन्दर बेल-बूटों से अलंकृत किया गया है.
सल्तनतकाल में भित्ति चित्रों की अपेक्षा पाण्डुलिपियाँ अधिक तैयार की गईं. इस काल में अनेक लघु चित्र भी बने. यह कला माण्डू, जौनपुर और बंगाल में अधिक प्रचलित थी. गुजरात के धनी व्यापारियों ने भी इस कला के विकास में योगदान दिया. ताड़ के पत्रों एवं कागज पर सुन्दर चित्र बनाये गये. पुस्तकों के किनारों को सुन्दर तरीके से सजाया गया. इस कॉल में खम्सा, शाहनामा, मिफताह-उल पुजाला और लौर-चन्दा, भागवत पुराण, गीत गोविन्द आदि को चित्रित किया गया. इनकी विषय-वस्तु लोकप्रिय कथानकों पर आधारित थीं.
इस प्रकार स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में हालांकि राजकीय संरक्षण नहीं मिला, इसके बावजूद भी इस काल में चित्रकला का विकास पाण्डुलिपि व भित्ति चित्र के रूप में हुआ.
> सल्तनतकालीन संगीत
सल्तनतकाल में संगीत का विकास बहुत अधिक हुआ तथा इस समय के संगीत में कुछ नवीन तत्वों का सम्मिश्रण हुआ. ईरानी संगीत की विशेषताओं को इसमें ग्रहण किया, कुछ नये रागों और नई पद्धतियों का आविष्कार हुआ.
इस काल के प्रथम महान् संगीतकार अमीर खुसरो हुए, जिन्होंने अनेक नये रागों को जन्म दिया कब्बाली का प्रारम्भ भी इनके द्वारा ही किया गया. उन्होंने सितार और तबले का आविष्कार किया. इन सबसे भारतीय संगीत को एक नई दिशा मिली. ख्याल और तराने का आविष्कार इसी काल में किया गया.
सुल्तान मुहम्मद तुगलक को संगीत का बहुत अधिक शौक था तथा उसके यहाँ लगभग 1200 संगीतज्ञ नियुक्त थे. सुल्तानों की तरह ही स्थानीय सामन्तों एवं राजाओं ने भी संगीत को अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया.
मेवाड़ के महाराजा कुम्भा स्वयं संगीत के एक बड़े जानकार व्यक्ति थे, उन्होंने 'संगीतराज' और 'संगीत मीमांसा' जैसे ग्रन्थ लिखे. इसी प्रकार ग्वालियर के राजा मानसिंह ने संगीतकारों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया जिसमें रागों का विधिवत् वर्गीकरण किया गया. विजय नगर के कृष्ण देवराय और रामराय दोनों ही कुशल गायक थे, वे अपने दरबार में बड़े-बड़े संगीतकारों को अपने दरबार में संरक्षण देते थे. सिकन्दर लोदी भी संगीत का बहुत बड़ा प्रेमी था. उसके दरबारी उमर याहिया द्वारा संगीत पर ग्रन्थ 'लहजत-ए-सिकन्दरशाही' लिखा गया. 15वीं शदी में पण्डित दामोदर मिश्र ने संगीत का महान् ग्रन्थ ‘संगीत दर्पण’ की रचना की. इसी समय पण्डित लोचन ने 'रागतरंगिणी' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें राग-रागनियों की एक नवीन पद्धति का उल्लेख है.
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्तनतकाल में संगीत के क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और अनेक रागों और वाद्य यन्त्रों के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण संगीत ग्रन्थों की रचना हुई.
> सल्तनतकाल की वास्तुकला पर एक लेख लिखिए.
सल्तनतकाल वास्तुकला के विकास की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है. गुलाम वंश से लेकर लोदी वंश की समाप्ति तक इस काल में अनेक भव्य एवं सुन्दर इमारतों का निर्माण करवाया गया. इस काल में मुस्लिम स्थापत्य कला का प्रमुख केन्द्र दिल्ली था, क्योंकि सुल्तानों ने यहाँ अनेक इमारतों का निर्माण करवाया.
कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी प्रसिद्ध मस्जिद कुव्वत-उलइस्लाम का निर्माण दिल्ली में करवाया और इसी के एक अंग के रूप में अजान देने के लिए कुतुबमीनार का निर्माण प्रारम्भ करवाया, जिसे आगे चलकर इल्तुतमिश ने पूरा करवाया.
बलबन के समय में बनी इमारतों में उसका मकबरा एवं उसके पुत्र मुहम्मद का मकबरा विशेष उल्लेखनीय हैं. इसके बाद खिलजी काल में अलाउद्दीन द्वारा बनवाया गया सीरी का किला, अलाइ दरवाजा और हौजखास आदि कुछ महत्त्वपूर्ण इमारतें हैं.
तुगलक काल में फिरोज तुगलक स्थापत्य का अत्यन्त प्रेमी था. उसने अनेक नगरों, महलों एवं किलों का निर्माण करवाया जिसमें दिल्ली के निकट फिरोजशाह कोटला सर्वाधिक प्रसिद्ध है. इसके अलावा फिरोजाबाद में किलेनुमा महल और इसमें बनी जामा मस्जिद भी उसी के समय में निर्मित हैं.
सैयद और लोदी वंश के स्थापत्य प्रभावशाली नहीं थे. इनके द्वारा साधारण इमारतें ही बनवाई गयीं.
तुर्की सुल्तानों के निर्माण के अतिरिक्त प्रान्तीय राजधानियों में इस काल में अनेक भव्य भवनों का निर्माण हुआ जिसमें बंगाल में पाण्डुआ और गौड़ की इमारतें बहुत अधिक प्रसिद्ध हैं. सिकन्दरशाह द्वारा बनावाई गई अदीना मस्जिद जो कि पाण्डुआ में स्थित है, एक प्रसिद्ध इमारत है. यह मस्जिद 375 स्तम्भों के बरामदे को अपने में समेटे है. इस मस्जिद की लम्बाई इसकी चौड़ाई से दोगुनी है. इसमें विशाल चतुष्कोणीय आँगन है.
जलालुद्दीन मुहम्मदशाह (1414-1421 ई.) द्वारा निर्मित ‘लाखी मकबरा' पाण्डुआ का एक अन्य आकर्षक स्मारक है. गौड़ में पक्की ईंटों और मिट्टी से निर्मित अनेक भव्य इमारतें हैं जिनमें तान्तीपाड़ा मस्जिद और दाखिल दरवाजे का नाम विशेष उल्लेखनीय है.
बंगाल की तरह ही सल्तनतकाल में गुजरात में भी अनेक भव्य इमारतों का निर्माण किया गया. अहमदशाह ने अहमदाबाद नगर बसाया तथा उसमें जामा मस्जिद तथा तीन दरवाजा जैसे भव्य स्मारकों का निर्माण करवाया. तीन दरवाजा महल के बाहरी आँगन में प्रविष्ट होने के लिए द्वार था. यह दरवाजा अपनी कलापूर्ण सजावट और सुन्दर काम के लिए दर्शनीय था.
गुजरात में मुहम्मदशाह द्वितीय (1442-57 ई.) के बनवाये गये स्मारकों में गुजरात की सबसे बड़ी इमारत अहमदशाह का मकबरा है जो सरखेज में स्थित है. उसने नये किलों, महलों और बागों का निर्माण करवाकर अहमदाबाद को और भी अधिक सुन्दर बना दिया. चम्पानेर की जामा मस्जिद और शिप्री रानी की मस्जिद गुजरात की अन्य सुन्दरतम इमारतों के उदाहरण हैं. 
बनारस के निकट जौनपुर में सल्तनतकाल में शर्की राजाओं के बनवाये हुए कुछ सुन्दर स्मारक हैं. यहाँ की 1338 ई. में बनी अटाला मस्जिद सर्वश्रेष्ठ इमारत है और इसकी शिल्पकला पर तुगलक कला का स्पष्ट प्रभाव है. इसके फाटक सिंहद्वार के समान बने हैं.
उत्तर भारत के समान ही सल्तनतकाल में दक्षिण के बहमनी सुल्तानों ने अनेक भव्य भवनों का निर्माण करवाया. 1367 ई. में गुलबर्गा में बनी जामा मस्जिद यहाँ की शैली की भव्यतम इमारत है. इसकी प्रमुख विशेषता बरामदों की चौड़ी और मोटी मेहराबें तथा छोटे मेहराबों से युक्त आँगन हैं.
बीदर में अहमदवलीशाह का मकबरा और महमूद गँवा द्वारा निर्मित एक मदरसा उल्लेखनीय इमारतें हैं.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत के काल में अनेक भव्य भवनों, किलों, मकबरों आदि का निर्माण करवाया गया तथा ये भवन स्मारक उस काल की समृद्धि के सूचक हैं.
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