अब्राहम लिंकन : अमेरिका के राष्ट्रपति बने

अब्राहम लिंकन : अमेरिका के राष्ट्रपति बने
He had lived to shame me from any sneer. To lame my pencil, and to confute my pen. To make me own this kind of princes, peer. This rail splitter a true born king of men.
-Tom Taylor
1858 में अब्राहम लिंकन सीनेट के सदस्य नहीं चुने गए। लिंकन के साथियों को इस बात से गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का बल लगाया था। लिंकन की हार ने उन्हें निराशा से भर दिया। झटका लिंकन को भी बहुत बड़ा लगा, परंतु उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विशालता में अपने हार के अहसास को आत्मसात कर लिया और अपने साथियों से हार की समीक्षा करने वाली सभा में कहा – “चुनाव में जब दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े होते हैं तो एक को तो हारना ही पड़ता है, परंतु यह हार कोई अंतिम हार नहीं होती।" अपनी हार पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा--"It is a slip and not a fall."
"हम चुनाव जरूर हारे हैं, परंतु हमने लोगों के दिलों में अपने लिए एक ऐसी जगह बनाई है जिसे कोई और नहीं ले सकता । वह जगह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है। मेरा मन कह रहा है कि अगले चुनाव तक जनता उस सत्य को अच्छी तरह अवश्य समझ जाएगी जो हमने उसके सामने रखा है। बड़े विचार इतनी जल्दी समझ नहीं आते, उन्हें समझने में थोड़ा समय लगता ही है । "
लिंकन ने अपने सीनेट की सदस्यता के लिए चुनाव अभियान के दौरान दास प्रथा पर जो वक्तव्य दिए थे, उनका पूरे सदन पर ऐसा असर पड़ा कि सदन दो हिस्सों में बंट गया— कुछ लोग लिंकन के विरोध में उठ खड़े हुए और कुछ ने लिंकन के विचारों का जोरदार स्वागत किया। दोनों पक्षों की तनावपूर्ण और गर्मागर्म बहस ने लिंकन को चर्चा में उभार दिया। डगलस ने लिंकन पर आरोप लगाया कि उन्होंने सदन को विभाजित करने का अपराध किया है। डगलस की टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी करते हुए
लिंकन ने जोरदार शब्दों में सदन में कहा-
"दासता के प्रश्न पर पूरा सदन विभाजित हो गया लगता है, परंतु मेरा विश्वास है कि कोई सरकार आधे लोगों को आजाद रखकर और आधों को गुलामी में रखकर देश पर लम्बे समय तक शासन नहीं कर सकती। मैं नहीं चाहता कि मेरे द्वारा गुलामी का प्रश्न उठाए जाने की प्रतिक्रिया इतनी भयानक हो कि सदन भंग हो जाए और संघ टूट जाए। मैं चाहता हूं कि सदन में विभाजन की प्रक्रिया समाप्त हो। मैं चाहता हूं कि यह सदन एक तरफ हो जाए- या तो सब एक स्वर से कहें कि दास प्रथा समाप्त हो या फिर कहें कि पूरी तरह लागू हो या तो दास प्रथा के विरोधी इस बात पर अडिग हो जाएं कि वे इसे आगे नहीं बढ़ने देंगे, जहां तक फैली है, वहीं इसके चारों ओर एक दायरा बना देंगे, इसे घेरकर सीमित दायरे में बंद कर देंगे ताकि यह अपनी मौत मर सके या फिर जो दास प्रथा के समर्थक हैं वे इसे तेजी से आगे बढ़ाएं और दक्षिण, उत्तर, पश्चिम, पूर्व सभी दिशाओं में नए व पुराने सभी राज्यों में इसे विस्तार दे दें और स्थाई रूप से मान्यता दिलाएं। सदन यह फैसला एक तरफा करे कि गुलामी रहेगी या जाएगी, बीच में इस समस्या को लटकाकर उस पर राजनीति करने वाले इस देश के दुश्मन हैं, वे गुलामों को भी गुमराह कर रहे हैं और उनके मालिकों को भी। "
सीनेट का चुनाव तो लिंकन हार गए, परंतु उनके द्वारा उठाए गए दास प्रथा के सवाल ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी। कुछ ही महीनों बाद दक्षिण व उत्तर के बीच भारी तनाव पैदा हो गया। दासता के विरोधी माने जाने वाले नेता जॉन ब्राउन का उत्साह इतना बढ़ गया कि वे दक्षिण के दौरे पर निकल पड़े। उन्होंने अपनी एक पार्टी गठित कर ली और पूरे दक्षिण क्षेत्र को मथ डाला। उनके साथ उनके बेटे भी मैदान में थे। ये लोग दासता के कट्टर समर्थक माने जाने वाले पांच लोगों की निर्मम हत्या कर चुके थे।
जॉन ब्राउन ने दक्षिण के गुलामों को आजाद कराने के लिए अभियान चलाकर उन्हें पूरी तरह अपने पक्ष में कर लिया। इस बात से संघीय ताकतें (Federal Forces) बौखला गईं और उन्होंने जॉन ब्राउन के दल पर जानलेवा हमला किया। उनका एक बेटा मारा गया और दूसरे को फांसी पर लटका गया। जॉन ब्राउन तथा उनके बेटे को जब फांसी दी गई तो उन्होंने अपनी मौत का जश्न मनाते हुए कहा था—“You may dispose off me very easily, but this Negro Question is still to be settled. The end of that is not yet.
(तुम मेरी जान लेकर मेरा जीवन बड़ी आसानी से समाप्त कर सकते हो, परंतु यह नीग्रो की दासता का सवाल है, इसे तुम कभी समाप्त नहीं कर सकते, यह तुम्हारे सिर पर यूं ही झूलता रहेगा।)
लिंकन के दिल पर इस घटना का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने 1859 में अपने भाषण के दौरान जॉन ब्राउन को श्रद्धांजलि देते हुए कहा–"जॉन ब्राउन को जिस तरह मौत की सजा दी गई है, उत्तर में इसका शायद विरोध न हो। दासता का विरोध करने के लिए कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में लेने और हिंसा का तांडव करने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। दक्षिण के लोग भी इस बात को अच्छी तरह समझ लें। यदि वे यह इरादा रखते हैं कि वे संघ को नष्ट कर देंगे तो यह संविधान विरोधी माना जाएगा। हम किसी कीमत पर यह बर्दाश्त नहीं करेंगे। यदि किसी ने ऐसी जुर्रत की तो उसका भी वही हस्र होगा जो जॉन ब्राउन का हुआ।"
जाहिर है लिंकन जहां दास प्रथा के उन्मूलन के पक्ष में थे, वहीं देश की संघीय व्यवस्था को बनाए रखने की भी उन्हें भारी चिंता थी। संघीय ढांचे को तोड़कर गुलामी की प्रथा समाप्त की जाए या दास प्रथा उन्मूलन के लिए ऐसे कड़े कदम उठाए जाएं कि पूरा देश ही दो टुकड़ों में बंटकर आमने-सामने खड़ा हो जाए और संघ टूट जाए। यह बात वे नहीं सह सकते थे। उनके लिए संघ की अखंडता दासता उन्मूलन से ज्यादा महत्त्व रखती थी, क्योंकि वे जानते थे कि दासता आज तक खत्म न हो सकी तो कल हो जाएगी, परंतु यदि संघीय ढांचा एक बार टूट गया तो पूरा अमेरिका टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा और वह फिर एक नहीं हो पाएगा। इस मुद्दे पर गृहयुद्ध हो गया तो परिणाम और भी भयानक होंगे। बेकार में लाखों लोगों की जानें जाएंगी और देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी। देश इसे झेल नहीं पाएगा। लिंकन के दिमाग में ये दो सवाल सदा मंडराते रहे। दास प्रथा की समाप्ति और संघीय एकजुटता की गारंटी। वे इन दोनों को एक साथ देखना चाहते थे। उनकी इसी सोच ने उन्हें अमेरिका के शीर्ष पद पर पहुंचा दिया। और यही उनकी शहादत का सबब बना।
27 फरवरी, 1860 को कूपर यूनियन में न्यूयॉर्क में अब्राहम लिंकन का ऐतिहासिक भाषण हुआ। इस भाषण में बुद्धिजीवियों की भारी भीड़ जमा हुई थी। इस भाषण में लिंकन ने फिर दासता का सवाल उठाया। उन्होंने कहा – “दक्षिण के लोग गुलामी उन्मूलन को लेकर बहुत उत्तेजित हैं, शायद वे यह सोचते हैं कि भले ही संघ नष्ट हो जाए, पर गुलामी का कलंक अब मिट जाना चाहिए। वहीं उनके विरोधी उन्हें सबक सिखाने के लिए तैयार खडे हैं। दास प्रथा को लेकर माहौल इतना गर्म है कि यदि ये दोनों पक्ष उग्र हुए तो पूरा देश जल उठेगा। हम नहीं चाहते कि गुलामी उन्मूलन का रास्ता कुछ इस तरह निकाला जाए कि संघ को क्षति पहुंचे और देश बर्बाद हो जाए। हम एक ऐसा रास्ता निकालना चाहते हैं कि अमेरिका के 87% गोरे लोगों के दिलों में अपने 11% काले रंग के भाइयों के प्रति सच्ची सहानुभूति पैदा हो वे उन्हें दासता के चंगुल से मुक्त करके भाइयों की तरह गले से लगाएं और फिर काले और गोरे दोनों नस्लों के लोग मिलकर इस देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए काम करें और अमेरिका विश्व में एक महान देश बनकर उभरे। "
इस भाषण ने बुद्धिजीवियों को यह पैगाम दिया कि यही व्यक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त है, परंतु अभी तक लिंकन ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया था कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करने जा रहे हैं। उनके साथी हेंडरसन बताते हैं कि राष्ट्रपति पद पर पहुंचने की महत्त्वाकांक्षा लिंकन के दिल में जन्म ले चुकी थी, परंतु क्योंकि वे एक सफल राजनीतिज्ञ नहीं थे, अतः इतने बड़े दायित्व को निभाने से हिचक रहे थे, उनका हृदय मानवता से ओतप्रोत था, वे न्याय के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार बैठे थे, पर राजनीति की पेचीदगियों में हाथ डालने में अब भी झिझकते थे।
अंततः उन्होंने नामांकन भर दिया। लिंकन ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक दी है। इस खबर से मीडिया में तहलका मच गया। मीडिया अब तक लिंकन से यही उम्मीद करती चली आई थी कि वे दासता उन्मूलन के लिए कोई कारगर रास्ता निकालने में लगे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो राजनीतिक मंचों का उपयोग इसी उद्देश्य के लिए कर रहे हैं। सीनेट का सदस्य बनने की दौड़ में वे रहे, यहां तक तो कोई बात नहीं थी। वे इस दायित्व का निर्वाह करने के लिए उपयुक्त थे, परंतु वे राष्ट्रपति बनकर 'व्हाइट हाउस' में पहुंचने की कामना रखते होंगे, ऐसा नहीं सोचा जा सका था।
लिंकन के नामांकन ने उनके समर्थकों में उत्साह की नई लहर पैदा कर दी। अनेक समर्थक बहुत पहले से ही उनसे कहते आए थे कि वे राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बने, परंतु वे कभी तैयार नहीं हुए थे, इस बार पता नहीं क्या हुआ कि वे 1860 के चुनावों में प्रत्याशी के रूप में सामने आ गए।
प्रचार अभियान शुरू हो गया। लिंकन अपने सधे हुए विचारों के साथ जनता के बीच गए। उनका वही दो सूत्रीय कार्यक्रम था, दास प्रथा को आगे बढ़ने से रोका जाए, उस पर राष्ट्रव्यापी बहस हो और यदि देश यह मानता है कि सचमुच यह मानवता के नाम पर एक कलंक है तो इसे समाप्त कर दिया जाए। दास प्रथा का उन्मूलन संघीय अखंडता की कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थात दासता हमेशा नहीं ढोई जा सकती, इसे जाना तो जरूर है, परंतु झटके के साथ नहीं, बल्कि धीरे-धीरे मानवीय अहसास के उभार के साथ।
लिंकन की नीति ने एक ओर जहां संघीय ताकतों को अपने भरोसे में लिया वहीं दास प्रथा समाप्त करने के लिए संकल्पित लोगों के दिलों में यह विश्वास पैदा किया कि यह व्यक्ति दास प्रथा का समर्थक नहीं है। इसके हाथों शायद कोई ऐसा रास्ता निकल आए कि यह राष्ट्रपति बनकर इस प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त कर दे। इसी उम्मीद के साथ दास प्रथा विरोधियों ने लिंकन को अपना मत दिया।
लिंकन के विरोधी प्रत्याशी के रूप में डगलस सामने था। डगलस सीनेट का सदस्य था और कई वर्ष से लगातार लिंकन के विरोध में अमेरिकी जनता के दिलों पर छाया रहा था। उसे अपनी जीत का पूरा भरोसा था, लेकिन उसने यह गलती की कि लिंकन का विरोध करने के जुनून में लिंकन की नीतियों के ठीक विपरीत बोलना शुरू कर दिया। लिंकन का विरोध करते-करते उसे यह पता ही नहीं रहा कि उसकी मूल नीति दक्षिण व उत्तर दोनों को साथ लेकर चलने की है तथा उसने गुलामी के प्रश्न को हल करने का दायित्व देश की जनता पर छोड़ दिया है। गुलामी का प्रश्न उसे उठाना ही नहीं चाहिए था, परंतु क्योंकि लिंकन के विचार गुलामी के विरुद्ध थे अतः उसने गुलामी के पक्ष में आग उगलना शुरू कर दिया। दक्षिण में इससे गलत संदेश गया और उत्तर की भी समझ में नहीं आया कि डगलस आखिर कहना क्या चाहता है।
डेमोक्रेटिक पार्टी दासता के सवाल पर इतनी बुरी तरह बंट गई कि उसने दो अन्य उम्मीदवार खड़े कर दिए।
अव तो लिंकन के खिलाफ तीन उम्मीदवार मैदान में आ गए। इससे लिंकन का हौसला बढ़ गया। वे समझ गए कि उनका विरोधी वोट बैंक तीन हिस्सों में बंटेगा और जो उन्हें मिलना है, वह केवल उन्हें ही मिलेगा, अत: उनकी जीत सुनिश्चित है। अत: उन्होंने पूरे उत्साह से चुनाव अभियान में अपने आपको झोंक दिया। चुनाव के दौरान अनेक उतार-चढ़ाव आए। कुछ हिस्सों में लिंकन आगे बढ़े तो कुछ में पिछड़ते दिखाई पड़े। पर उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। डगलस के विरोध में दक्षिण के अतिवादियों ने जॉन ब्रेकिन रिज को मैदान में उतारा। यह केंटुकी के रहने वाले थे जहां लिंकन का जन्म हुआ था। इनकी एकमात्र नीति थी जिन क्षेत्रों में गुलामी है, उसे किसी हालत में खत्म नहीं होने दिया जाएगा। दूसरा उम्मीदवार उदारवादी भिग पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा एक नई पार्टी बनाकर उतारा गया था।
यह पार्टी थी कांस्टीट्यूशनल यूनियन पार्टी, और इसके प्रत्याशी बने मिस्टर बैल। परिणाम आया तो लिंकन को 1,886, 452 वोट मिले, डगलस को 1,376, 957 वोट मिले, ब्रेकिन रिज को 847,781 वोट मिले तथा मिस्टर बैल को 588,879 वोट मिले।
लिंकन को दक्षिण में वोट नहीं मिले, परंतु उत्तरी राज्यों ने उनके पक्ष में भारी मतदान किया। दक्षिण के लोग लम्बे समय से लिंकन के भाषण सुनते आ रहे थे। हर भाषण में इस मानवतावादी नेता ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने की बात उठाई थी। पूरे राष्ट्र की चेतना को झकझोरकर फेंक दिया था इस मुद्दे पर लिंकन ने। दक्षिण के अतिवादी गोरे लोग नीग्रो गुलामों की बदौलत अमीर बने बैठे थे, वे किसी कीमत पर उन्हें गुलामी से मुक्त करने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने दासता का प्रश्न उठाने वाले लिंकन को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया, परंतु फिर भी लिंकन चुनाव जीत गए और अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए।
अमेरिका की चुनाव प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाला जो प्रत्याशी चुनाव जीत जाता है, उसे भी अपना कार्य-भार संभालने में महीनों लम्बा समय लग जाता है। लिंकन चुनाव जीत तो गए, परंतु अपने पद के लिए शपथ लेने और कार्यभार संभालने के बीच लम्बा अंतराल आ गया।
इस बीच दक्षिण के कुछ राज्यों को अमेरिकी संघ से बगावत करने का अवसर मिल गया। इधर लिंकन स्प्रिंगफील्ड छोड़कर वाशिंगटन जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर दक्षिण के राज्य संघ तोड़कर अलग होने के लिए जुट गए।
दाढ़ी वाले लिंकन
लिंकन जब चुनाव प्रचार में जुटे थे तब अति व्यस्तता तथा खान-पान की अनिश्चितता के कारण उनका शरीर एकदम पतला-दुबला लगने लगा था। चेहरा बिल्कुल निचुड़ा हुआ लग रहा था। दोनों गालों में गहरे गड्ढे पड़ गए थे। नन्हीं-सी बच्ची ग्रेस बीडिल ने उन्हें अपने भाइयों के साथ देखा तो उसे उनका चेहरा सुंदर नहीं लगा। घर आने के बाद वह बच्ची देर तक विचार करती रही, फिर उसने लिंकन के नाम एक पत्र लिखा-
'मेरे चार भाई हैं। उनमें से दो आपको वोट देना चाहते हैं और दो किसी और को। यदि आप यह वादा करें कि मेरा पत्र पाते ही आप अपने चेहरे पर दाढ़ी और मूंछें बढ़ा लेंगे तो मैं वादा करती हूं कि मैं अपने उन दोनों भाइयों को भी मना लूंगी और चारों भाइयों से आपको वोट दिलवाऊंगी, फिर आप जरूर जीत जाएंगे। देख लेना आपका चेहरा तब बहुत सुंदर लगेगा। जब आप अमेरिका के राष्ट्रपति बनेंगे तब मैं आपसे मिलने आऊंगी और देखूंगी कि आपने मेरी बात मानी कि नहीं। मेरे अच्छे राष्ट्रपति वादा करो आप दाढ़ी-मूंछें बढ़ाओगे और मुझे अवश्य बुलाओगे। आपकी छोटी-सी बेटी-
-ग्रेस बीडिल!'
लिंकन ने जब यह पत्र पढ़ा तो वे गद्गद हो गए। उन्होंने तुरंत ग्रेस को पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा-
'मेरी नन्ही-सी बेटी ग्रेस! मैंने तुम्हारा कहना मानकर आज से अपनी दाढ़ी बढ़ानी शुरू कर दी है, परंतु मुझे अफसोस है कि तुम्हारी दूसरी मांग पूरी नहीं कर पा रहा हूं। मैं मूंछें नहीं बढ़ा पाऊंगा, क्योंकि मूंछें बढ़ाने से मेरी पहचान बदल जाएगी। फिर मेरे दोस्त भी मुझे नहीं पहचान पाएंगे। मैं वादा करता हूं कि राष्ट्रपति बना, तब भी और न बना तब भी मैं तुमसे मिलने जरूर आऊंगा, फिर तुम देखना मेरा पतला और पिचके गालों वाला चेहरा दाढ़ी बढ़ाने के कारण कैसा लग रहा है।
- तुम्हारा अब्राहम लिंकन!'
ग्रेस की दोनों इच्छाएं पूरी हो गई। अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति भी बन गए और उन्होंने दाढ़ी भी बढ़ा ली। नन्ही-सी लड़की ग्रेस ने अब्राहम लिंकन को इतना प्रभावित किया कि वे अमेरिकी राष्ट्रपतियों की सूची में पहले ऐसे राष्ट्रपति बने जिनके दाढ़ी थी।
चुनाव जीतने के बाद अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद राष्ट्रपति ने ग्रेस से मिलने का समय अवश्य निकाला।
साइनबोर्ड यूं ही लटका रहे
स्प्रिंगफील्ड से वाशिंगटन जाने के लिए खासी तैयारियां कर ली गईं। लिंकन को विदाई देने के लिए स्प्रिंगफील्डवासी उमड़ पड़े थे। उनके लिए यह बड़े गर्व की बात थी कि उनके बीच रहने वाले अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर 'व्हाइट हाउस' में रहने के लिए वाशिंगटन जा रहे थे। उनकी आंखों में भावुकता के कारण जो आंसू छलक आए थे वे जुदाई के अहसास में भी खुशियां समेटे हुए थे।
लिंकन अपने वकालत के साथी तथा लम्बे समय से अभिन्न मित्र रहे हेंडरसन के पास आए और बोले–  “बिली! यह साइन बोर्ड जिस पर 'लाफर्म ऑफ लिंकन एंड हेंडरसन।' लिखा है यूं ही लटका रहना चाहिए। मैं राष्ट्रपति चुन लिया गया हूं, इसलिए अपने दायित्व का निर्वाह करने वाशिंगटन जा रहा हूं। यह बोर्ड मेरे और तुम्हारे मिलकर वकालत करने का साक्षी रहेगा। लोगों का को यह संदेश जाना चाहिए कि हेंडरसन के साथ लिंकन की वकालत में साझेदारी अब भी है। राष्ट्रपति बन जाने से लिंकन बदलेगा नहीं। अपना कार्यकाल पूरा कर यदि सम्भव हुआ, जीवन बचा, तो मैं अवश्य यहीं आऊंगा और तुम्हारे साथ फिर वकालत का काम करूंगा।"
अपने साथी लिंकन पर गर्व करते हुए हेंडरसन ने कहा- "मुझे गर्व है कि मेरा दोस्त राष्ट्रपति बन गया। मुझसे ज्यादा भाग्यशाली कौन हो सकता है। हम दोनों ने कितने वर्ष यहां इस फर्म में साथ-साथ बिताए हैं, पर मुझे तुम्हारी यह नकारात्मक सोच वाली बात तनिक भी पसंद नहीं है, तुमने यह क्यों कहा कि जीवन बचा तो वापस जरूर आऊंगा... तुम्हारे जीवन को क्या होने जा रहा है?"
“तुम नहीं समझोगे हेंडरसन।" अब्राहम लिंकन ने उसी गंभीरता से कहा – “ अमेरिका में ऐसी परिस्थितियां कभी नहीं थीं, जैसी आज हैं। किसी राष्ट्रपति को ऐसे उत्तेजक और विस्फोटक माहौल का सामना नहीं करना पड़ा है, जैसा मैं देख रहा हूं, मुझे करना पड़ सकता है। दक्षिण के राज्यों में बगावत की आवाजें उठने लगी हैं। पूरा देश दास प्रथा को लेकर आपस में टकरा गया तो क्या होगा? मुझे कुछ अच्छे आसार नजर नहीं आ रहे । "
“हम सबकी दुआएं तुम्हारे साथ हैं, तुम साधारण इंसान नहीं हो, ईश्वर ने तुम्हें महान हृदय दिया है, वह अवश्य तुम्हारी मदद करेगा। जाओ देश का काम संभालो।"
दक्षिण में बगावत
20 दिसम्बर, 1860 को साउथ कैरोलिना अमेरिकी संघ से अलग हो गया। उसने तर्क दिया कि उत्तर के राज्य दास प्रथा के कट्टर विरोधी हो चुके हैं, अतः उनके साथ रहना अब संभव नहीं।
उसी की तर्ज पर 9 जनवरी और 1 फरवरी 1861 के बीच दक्षिण में छः अन्य राज्यों ने अपने आपको संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग घोषित कर दिया।
18 फरवरी को जेफर्सन डेविस ने संघ से अलग हुए राज्यों पर शासन करने के लिए अंतरिम सरकार का गठन कर लिया और इसके साथ ही 'कांफेडरेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका' नाम से नया संघ बन गया।
संघीय कानून लागू नहीं किया
दक्षिण के आठ राज्य संघ से निकल गए। उन्होंने अपना अलग संघ बना लिया। इन राज्यों के गवर्नर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के प्रति जवाब देय नहीं रहे। वे संघ के प्रमुख के प्रति अपने आपको जवाबदेय मानने लगे।
यह तो अजीब स्थिति थी। लिंकन को इस बात की आशंका तो थी कि दास प्रथा को समाप्त करने की बात उठाई तो देश की शांति भंग हो सकती है और संघीय ढांचे को नुकसान हो सकता है, परंतु दक्षिण के राज्य इतनी आसानी से अलग हो जाएंगे और वे देखते रह जाएंगे, ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था।
लिंकन ने अनेक बैठक बुलाई। विशेष सलाहकारों से, मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से मशविरा किया, परंतु कोई रास्ता नजर नहीं आया। सब की एक ही राय थी-संघीय कानून लागू किया जाए। जब संयुक्त राज्य अमेरिका का कानून इस बात की इजाजत नहीं देता कि कोई राज्य संघ से अलग हो जाए तो ये राज्य अलग हो कैसे गए? जब राज्य अलग हो गए हैं और वे अपना अलग संघ बनाकर उसके प्रति जवाबदेही की घोषणा कर चुके हैं तब भी देश का राष्ट्रपति मूक दर्शक बना हुआ है, यह कैसी विडम्बना है?
देश के बुद्धिजीवी, मीडिया से जुड़े लोग, राजनैतिक पदों पर बैठे लोग, सब एक स्वर में यही कह रहे थे-  यह कैसा राष्ट्रपति है। राष्ट्र में गृहयुद्ध छिड़ गया है और वह विद्रोही राज्यों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा।
लिंकन के सामने धर्म संकट की स्थिति थी। सदन में इस बात को लेकर हंगामे की स्थिति थी कि राष्ट्रपति स्पष्ट करें—संघीय कानून लागू होगा या नहीं होगा, लेकिन राष्ट्रपति फिर भी चुप। राष्ट्रपति आखिर कहे तो क्या कहे। यदि वह कहता है कि संघीय कानून लागू होगा तब तो दक्षिण के ग्यारह राज्यों तथा उत्तर के तेईस राज्यों के बीच युद्ध की स्थिति बनती है। फिर तो ऐसा घमासान होगा कि अमेरिका दो हिस्सों में बंटकर आपस में लड़कर ही ढेर हो जाएगा और यदि वह यह कहता है कि संघीय कानून लागू नहीं होगा तो वह ग्यारह राज्यों के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से अलग होने की प्रक्रिया पर सही की मुहर लग जाएगी।
जब राष्ट्रपति को चुने हुए प्रतिनिधियों ने चारों ओर से घेरा और उनसे पूछा कि वे चुप क्यों हैं, बोलते क्यों नहीं कि इन ग्यारह विद्रोही राज्यों के खिलाफ सरकार क्या कार्यवाही करने जा रही है, तब लिंकन ने बड़े धैर्य से चिंता की मुद्रा में जवाब दिया– “देखिए हम और आप सब जानते हैं कि जो आज संघ छोड़कर अलग खड़े हो गए हैं, वे अब भी संघ में शामिल हैं। वे हमारे भाई ही तो हैं जो नाराज होकर अलग जा खड़े हुए हैं। अमेरिका का संघात्मक संविधान किसी राज्य को संघ से अलग हो जाने की इजाजत नहीं देता, फिर ये राज्य अलग हो कैसे सकते हैं, इन्हें हर हालत में संघ के अंदर वापस लाया जाएगा। आप में से जो लोग यह चाहते हैं कि मैं संघीय सेनाओं को आदेश दे दूं कि वे संघ से बाहर गए ग्यारह राज्यों पर हमला करें और उन्हें ताकत के बल पर फिर से घुटने टिकवाकर संघ में वापस लौटने पर विवश कर दूं तो इसमें दो बड़े नुकसान होने का डर है- एक यह कि उन ग्यारह राज्यों में जो 90 लाख लोग निवास करते हैं जिनमें से 40 लाख दास हैं, वे हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठे रहेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन ग्यारह राज्यों के पास मिलिट्री के उच्चकोटि के जनरल हैं। दक्षिण की सैन्य शक्ति किसी भी तरह उत्तर की सैन्य शक्ति से कमतर न समझी जाए। यदि मैं अपनी पूरी मिलिट्री ताकत को दक्षिणी राज्यों के खिलाफ झोंक दूं तो उन राज्यों की सम्मिलित सेना मेरी मिलिट्री पर टूट पड़ेगी, फिर ऐसा घमासान होगा कि दोनों ओर से लाखों सैनिकों की लाशें बिछ जाएंगी और अमेरिका हमेशा के लिए दो टुकड़ों में बंट जाएगा। युद्ध से फैसला होने वाला नहीं। यदि मिलिट्री के बल पर समस्या को सुलझाने का प्रयास किया गया तो दुश्मनी स्थाई हो जाएगी और हो सकता है कि कोई किसी को न झुका पाए और युद्ध तब तक चलता रहे, जब तक दोनों ओर की सेनाएं लड़-लड़कर जमीन पर न बिछ जाएं। कौन है अमेरिका में ऐसा, जो इस नतीजे के लिए तैयार है, उसे मेरे सामने लाया जाए, मैं उसे एक मिनट में समझा दूंगा कि गृहयुद्ध की कगार पर पहुंचे और दो फाड़ हुए राष्ट्र के आपसी मामले कैसे सुलझाए जाते हैं। "
लिंकन का जवाब सुनकर सब प्रतिनिधि चुप हो गए। कोई इस बात के लिए तैयार नहीं था कि अमेरिकी सेनाओं को आपस में लड़ाया जाए और नतीजे में उन्हें दो अमेरिका मिलें। उनके ये शब्द आज भी इतिहास में अपना महत्त्व रखते हैं।
“मेरे देशवासियो! हमारे देश में जो यह गृहयुद्ध छिड़ गया है इसका त्वरित समाधान न मेरे हाथ में है, न आपके हाथों में। जो स्थिति राष्ट्र के सामने उत्पन्न हुई है, उससे मैं सन्न रह गया हूं। हमारा संकट यह है कि हम शत्रु नहीं हैं, हम तो एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं, हम दोस्त हैं। दुश्मनी को हमें बढ़ाना भी नहीं है। देश के लोगों की भावनाएं भड़क गई हैं और वे तनकर आमने-सामने खड़े हैं, परंतु ऐसी स्थिति को आने से रोकना है कि हमारा एक-दूसरे पर से भरोसा बिल्कुल टूट जाए और राष्ट्र ऐसा बंटे कि फिर कभी एक न हो सके।"
"Though hassious may have strained, it must not break our bonds of affection. The mystic chords of memory, stretching from every battle field and patriot grave, to every living heart and hearth stone all over this broad land will yet swell of chorus of the UNION when again touched surely they will be, by the better angels of our nature.
लेकिन बहुत संयम बरतने के बावजूद लिंकन इस नतीजे पर पहुंचे कि शक्ति परीक्षण के बिना दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। दक्षिणी राज्य जब सच्चाई को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं, जब वहां की 50 लाख की आबादी 40 लाख नीग्रो को गुलाम बनाए रखने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग हो जाने जैसा फैसला ले चुकी है, तब वह गुलामों को मुक्त करने की सोच रखने वाले शेष 23 राज्यों के साथ कैसे रह सकती है। अपने स्वार्थ के लिए वह टकराव का रास्ता अपना चुकी है। उसे अपनी ताकत पर बहुत ज्यादा भरोसा है, परंतु शायद इन ग्यारह राज्यों में बसने वाले गोरे लोग यह भूल रहे हैं कि 40 लाख गुलामों के दिल उसके साथ नहीं हैं। वे उत्तर की उस जनता के साथ हैं जो उनकी मुक्ति के लिए हथियार उठाने पर विवश हुई है, अत: जीत उत्तर की ही होगी।
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