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> महापाषाण (Megalith)
दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ कुछ चीजें भी कब्र में रख देते थे और इसके ऊपर घेरे में बड़े-बड़े पत्थर रख दिये जाते थे. ऐसे स्मारकों को 'महापाषाण' कहते हैं. इस समय लोग काले व लाल मृदभाण्डों के साथ-साथ लौह उपकरणों का प्रयोग करते थे.
> बुर्जाहोम
इसका शाब्दिक अर्थ है- 'जन्म स्थान'. यह नवपाषाणकालीन स्थल है जो कश्मीर में स्थित है. यहाँ के लोग गर्तावासों में निवास करते थे और मालिकों के साथ कुत्तों को भी दफनाते थे. यहाँ के लोग 'रुदवड़े धूसर मृदभाण्डों' का प्रयोग करते थे.
> वृहत्तर भारत
वृहत्तर भारत का अभिप्राय उन देशों से है, जहाँ प्राचीनकाल में भारतीय सभ्यता व संस्कृति का प्रसार हुआ था. इसमें भारत का प्रभाव अन्य देशों के जीवन व संस्कृति पर पड़ा था, जिससे वहाँ पर भारतीय संस्कृति पल्लवित हुई थी और वह एक प्रकार से वृहत्तर भारत बन गया था.
भारत को बाहर ले जाने वाले कारण
1. भारतीय व्यापार करने के लिए दूसरे देशों में गये, यहाँ की संस्कृति भी उनके साथ गई. जिससे
2. हिन्दू-धर्म व बौद्ध धर्म के प्रचार के द्वारा भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रचार.
3. विजय और भारतीय राजाओं के पराक्रम प्रवृत्ति से भी भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ.
> दासों की विशेषताएँ (ऋग्वेवद)
ऋग्वेद में दासों की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई गई है -
(i) अकर्मन वैदिक क्रियाओं का सम्पादन नहीं करते थे. 
(ii) अदेव्यु – वैदिक देवताओं की उपासना नहीं करते थे. 
(iii) अयज्वन–वे यज्ञ करने वाले नहीं थे. 
(iv) अवह्मान—वे श्रद्धा और धार्मिक विश्वासों से हीन थे. 
(v) अन्यव्रत-वे वैदिक व्रतों का अनुसरण करने वाले थे. 
(vi) मृद्धवाकू वे अपरिचित भाषा बोलते थे. 
(vii) दण्ड प्रणीत दास-राज्य द्वारा लगाये गये आर्थिक दण्ड को न चुका सकने वाले दास.
(viii) ध्वाजाहत-युद्ध में बन्दी बनाये गये दास.
अर्थशास्त्र में 5 प्रकार के दासों का, मनुस्मृति में 7 प्रकार के दासों का तथा विज्ञानेश्वर में 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है .
> ग्राम सभा
प्राचीनकाल में गाँव का शासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था, जिसका प्रमुख 'ग्राम भोजक' कहलाता था. ग्राम सभा का कार्य ग्राम की जनता से कर वसूलना, ग्रामीण विवादों का निपटारा करना, ग्राम में शान्ति व व्यवस्था बनाये रखना तथा सार्वजनिक कल्याण के कार्य को सम्पादित करना.
> मन्त्रिण
मौर्यकाल में यह छोटी उप-समिति थी, जिसमें कुल तीन या चार मन्त्री होते थे. जब किसी प्रश्न पर तुरन्त निर्णय लेना हो, तो उस समय मन्त्रिण से परामर्श लिया जाता था. इसमें युवराज, प्रधानमन्त्री, सेनापति, सन्निधाता आदि सम्मिलित होते थे. इनको 48000 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था.
> ग्रामवृद्ध परिषद्
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसका उल्लेख मिलता है. इसमें ग्राम के प्रमुख व्यक्ति होते थे. जो 'ग्रामणी' की सहायता करते थे. ग्रामणी को ग्राम की भूमि का प्रबन्ध करने तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था. यह परिषद् न्याय करने का कार्य भी करती थी. ग्रामणी भूमिकर वसूल करके राजकोष में जमा करवाता था.
> परिषा
अशोक के अभिलेखों में मन्त्रिपरिषद् को परिषा कहा गया है. इसके अभिलेखों में तीन प्रकार के अधिकारियों के नाम मिलते हैं – 
(A) युक्त – ये जिले के अधिकारी होते थे, जो राजस्व वसूल करते थे तथा उसका लेखा-जोखा रखते थे और सम्राट् की सम्पत्ति का प्रबन्ध करते थे.
(B) रज्जुक – ये भूमि की पैमाइश करने वाले अधिकारी थे, जिन्हें पुरस्कार और दण्ड देने का भी अधिकार था. ये ग्रामीण प्रशासन की रीढ़ थे. भूमि व कृषि सम्बन्धी सभी विवादों का निर्णय उन्हें ही करना पड़ता था. ये आधुनिक कलेक्टर की भाँति होते थे, जिसे राजस्व व न्याय दोनों के कार्य देखने पड़ते थे.
(C) प्रादेशिक – यह मण्डल का प्रधान अधिकारी होता था, जो अर्थशास्त्र में उल्लिखित 'प्रदेष्ठा' नामक पदाधिकारी था. उसे विभिन्न विभागों के अध्यक्षों के कार्यों की देख-रेख करनी पड़ती थी.
> अनुसंधान
युक्त राजुक और प्रादेशिक तीनों ही पंचवर्षीय दौरे करते थे, जिसे अनुसंधान कहा गया है. इनमें वे प्रशासनिक कार्यों के साथसाथ धर्म प्रचार का कार्य भी करते थे.
> दक्षिणापथ
इसके अन्तर्गत उत्तर में नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा नदी का सम्पूर्ण प्रदेश सम्मिलित था. विस्तृत अर्थ में इस शब्द का प्रयोग विन्ध्य पर्वत तथा हिन्द महासागर के मध्य स्थित विशाल भू-प्रदेश के लिए किया गया है.
> सुदूर दक्षिण
इस भाग के अन्तर्गत तुंगभद्रा नदी के दक्षिण का समस्त भाग सम्मिलित था. इस भाग को द्रविड़ अथवा तमिल देश कहा जाता था. यहाँ चोल, चेर, पाण्ड्य राज्यों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है. पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी में इस भाग को 'दगरिका' कहा गया है.
> रामायण एवं महाभारत से सम्बन्धित पुराण साक्ष्य
यद्यपि पुरातात्विक दृष्टि से इनका कोई स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है, जो रामायण एवं महाभारत की ऐतिहासिकता को पुष्ट करते हों. लेकिन धूसर चित्रित मृदभाण्ड (P.G.W.) एवं उत्तर-कृष्ण चमकीले मृदभाण्ड उन क्षेत्रों एवं युग से भी सम्बन्धित है, जो रामायण एवं महाभारत से सम्बद्ध है. अयोध्या, मथुरा, काशी, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, इन्द्रप्रस्थ आदि महत्त्वपूर्ण नगरों के साक्ष्य पुरातात्विक अवशेषों के रूप में मिले हैं.
इन विभिन्न क्षेत्रों से रामायण और महाभारत के कथानकों से सम्बन्धित मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं. उत्तर - वैदिक काल के पश्चात् से प्राप्त लौह अवशेषों की बहुलता, रामायण एवं महाभारत में प्रयुक्त आयुद्धों को प्रमाणित करती है.
> हूण आक्रमण
‘हूण’ जिसका उल्लेख चीनी इतिहास में (हूग-नू) के रूप में हुआ है, मध्य एशिया की एक संचरणशील और बर्बर जाति थी. जिन्होंने अपने ही पड़ोस में बसी हुई यू-ची जाति को अपना प्रदेश छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया, लेकिन बाद में स्वयं पश्चिम की ओर चल पड़े और दो शाखाओं में विभक्त हो गई. एक शाखा यूरोप की ओर पहुँची, जहाँ उन्होंने दक्षिणी-पूर्वी यूरोप को रक्तरंजित कर दिया, दूसरी शाखा वक्षु (ऑक्सस) नदी के तट पर कुछ समय रहने के बाद अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी दर्रों को पार कर भारत पहुँची. चीनी यात्री शुंगयुन के विवरण से ज्ञात होता है कि ‘तिगिन’ इनका पहला शासक था, जिसने गान्धार में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की. इस प्रारम्भिक शासक के सिक्के केवल मात्र उत्तरी-पश्चिमी भागों में मिले हैं.
भारत में हूणों के आक्रमण का उल्लेख स्कन्दगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख में मिले हैं. इसके अनुसार स्कन्दगुप्त ने उन्हें पराजित कर यहाँ से पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में प्रयाण करने को विवश कर दिया, जहाँ वे फारस के 'ससानी साम्राज्य' से जूझते रहे. इन्हीं का उल्लेख स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में मलेच्छ के रूप में हुआ है.
तोरमाण हूणों का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था, जो भारत के मध्य भागों तक बढ़ आया था. 'धन्यविष्णु के 'एरण अभिलेख' में इसकी प्रभुता और साम्राज्य स्थापित करने का उल्लेख मिलता है. पंजाब तथा उत्तर प्रदेश से प्राप्त उसके ताँबे के छोटे-छोटे सिक्के भी इन क्षेत्रों में इस अधिकार को पुष्ट करते हैं. उद्योतन सूरी द्वारा विरचित जैन ग्रन्थ 'कुवलय माला' में भी तोरमाण द्वारा भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का उल्लेख मिलता है. 500A.D. के आसपास मालवा हूणों के अधिकार में था.
तोरमाण के उपरान्त उसके पुत्र मिहिरकुल ने गुप्त साम्राज्य की दुर्बलता और विच्छिन्नता का लाभ उठाकर देश के आन्तरिक भागों पर आक्रमण किया और उस तथ्य की पुष्टि उसके ग्वालियर प्रशस्ति और ह्वेनसांग के विवरण से होती है, वह शैव समर्थक था और क्रूर तथा नृशंस शासक के रूप में विदित है. गुप्त शासक 'नरसिंहगुप्त बालादित्य' द्वारा उसे पराजित किया गया, तो मंदसौर स्तम्भ अभिलेख में भी यशोधर्मन द्वारा उसे पराजित किया गया, का उल्लेख हुआ है तथा राज्यवर्धन के साथ युद्ध के बाद हूर्गों से सम्बन्धित कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है कि हम अन्तोगत्वा भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गये.
इस प्रकार यद्यपि हूणों का दीर्घकालीन साम्राज्य स्थापित नहीं हुआ, लेकिन भारत के राजनीतिक जीवन में न केवल उथल-पुथल मचा दी, बल्कि गुप्त साम्राज्य के पतन में भी उनके आक्रमणों की अहम भूमिका रही.
> गान्धार कला
भारत के पश्चिमोत्तर स्थित गान्धार क्षेत्र में यूनानी एवं भारतीय सम्मिश्रण से जिस मूर्तिकला का उद्गम एवं विकास हुआ उसे ही गान्धार कला के नाम से अभिहित किया गया है.
इसके अन्तर्गत काले स्लेटी पत्थर से बुद्ध अथवा बोधिसत्वों की असंख्य मूर्तियों का निर्माण हुआ यूनानी तकनीक एवं शैली तथा भारतीय विषय को आधार मानकर विकसित इस कला में आध्यात्मिकता के स्थान पर शारीरिक सौन्दर्य एवं अंगों के संतुलित अनुपात पर अधिक बल दिया है. इसे 'Greeko-Buddhist An' भी कहा गया है.
> मथुरा कला
मूर्तिकला की जिस शैली का विकास मथुरा से हुआ, वह मथुरा कला के नाम से सुविज्ञ है, जिसे प्रथम शताब्दी ई. के अन्तिम वर्षों जैन अनुयायियों द्वारा विशेष प्रश्रय दिया गया. इस क्षेत्र से जैन मूर्तियों के अवशेष अधिक मिले हैं. यद्यपि कुषाण संरक्षण में बौद्ध मूर्तिकला का विकास भी दृष्टव्य है, साथ ही कई नारी मूर्तियाँ भी यहाँ विनिर्मित की गईं.
गान्धार शैली की तुलना में यह भारतीयकरण के अधिक निकट है, जिसमें यथार्थ शारीरिक अभिव्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक शान्ति मुखाकृति में स्पष्ट परिलक्षित है. यहाँ लाल पत्थर का प्रयोग मूर्तियों के निर्माण में बहुतायात से किया गया है. 
> अमरावती कला
कृष्णा एवं गोदावरी के मुहानों पर अमरावती व गुण्टूर जिलों में जिस मूर्तिकला की शैली का विकास हुआ वह अमरावती कला के नाम से विख्यात है.
इस कला के प्रतीक स्तूपों की चार दीवारों पर बनी मूर्तियों या कुछ बौद्ध प्रतिमाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके अन्तर्गत स्त्री-पुरुषों की श्रेष्ठ मूर्तियों का निर्माण किया गया है. श्वेत संगमरमर से बनी इन मूर्तियों में धर्म, त्याग आदि की प्रमुखता के स्थान पर शारीरिक सौन्दर्य अंगों में अनुपात और भाव मुद्रा का अंकन दृष्टव्य है. स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों को इस प्रकार बनाया गया है कि जिनसे उनका पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान होता है.
> आदिग्रन्थ
यह सिक्खों की धार्मिक पुस्तक थी जिसका संकलन गुरु अर्जुनदेव ने किया था. उन्होंने सारी पुस्तक को पद्य रूप में लिखवाया था. इसमें सिखों के पाँच गुरुओं और 18 हिन्दू भक्तों तथा कबीर, बाबा फरीद, नामदेव और रैदास इत्यादि के उपदेशों का संकलन था. यह एक परमेश्वरीय ज्ञान की पुस्तक है तथा सिक्खों की पूजा की मुख्य वस्तु है. गुरु नानक के उपदेश भी आदि ग्रन्थों में संकलित हैं.
> मसन्द प्रथा
गुरु अर्जुन ने मसन्द प्रथा चलाई, जिसके अनुसार सिखों को अपनी आय का दसवाँ भाग गुरु को देना पड़ता था. गुरु इस धन को एकत्रित करने के लिए अपने प्रतिनिधि नियुक्त करता था और वैशाखी के दिन यह अमृतसर भेज दिया जाता था.
> मिस्ल (MISL)
मिस्ल अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'बराबर' या 'एक जैसा'. एक जत्थे के सभी सदस्यों को राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक एकाधिकार प्राप्त था. उनके संगठन को मिस्ल के नाम से पुकारा जाता था. मिस्लें पूर्णरूप से धार्मिक एवं प्रजातन्त्रात्मक थीं, क्योंकि इसमें प्रत्येक सैनिक तथा मिस्ल के साधारण सदस्य को सामाजिक और राजनैतिक रूप से समान अधिकार था. मिस्लों का संगठन गुरुमत्ता संस्था द्वारा होता था. मिस्लों के सदस्य सामन्त सामुद्रिक रूप से जीते हुए प्रदेशों को बाँट लेते थे. मिस्ल वास्तव में एक संघ था, जो आधार रूप से पूर्ण प्रजातान्त्रिक और धार्मिक एकसूत्रता की डोर से मजबूती से बँधा था. मिस्लों की संख्या 12 थी, जिसमें 'भंगी मिस्ल' सबसे शक्तिशाली थी. एक अन्य मिस्ल सुकरचकिया भी महत्त्वपूर्ण थी, जिसका संस्थापक चतरसिंह था. महाराजा रणजीतसिंह भी इसी मिस्ल से सम्बन्धित थे. प्रत्येक मिस्ल का एक प्रमुख सरदार होता था जिसे अपने मिस्ल के बारे में पूर्ण अधिकार होता था. मिस्लों का शासन ग्राम्य शासन था. गाँवों में पंचायतें शासन कार्य करती थीं.
> गुरुमत्ता
मिस्लों की केन्द्रीय संस्था गुरुमत्ता थी, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘धर्मगुरु का आदेश'. सिख दीपावली, दशहरा व वैशाखी के दिन अमृतसर में आदिग्रन्थ के सम्मुख एकत्रित होते थे और अकाल तख्त पर सामूहिक कार्यवाही के अपने कार्यक्रम पर विचार करते थे. उनके निर्णय जो प्रस्तावों के रूप में लिख लिए जाते 'गुरुमत्ता' कहलाते थे. गुरुमत्ता राजनैतिक, न्याय, विचार आदि के सारे कार्य पूरे करता था.
> वहदत-अल-वजूद
विचार रखता था. इन्होंने कट्टरपन्थी मुस्लिमों को चुनौती दी और यह सूफियों का एक सिद्धान्त था जिसका प्रतिपादन 'इब्बअल-अरबी' ने किया था. यह सिद्धान्त 'सर्व धर्म समभाव' का शरियत की अवहेलना की. यह एक ईश्वर में विश्वास रखता था. सूफियों के इस सिद्धान्त ने धार्मिक सहिष्णुता का वातावरण उत्पन्न किया तथा सभी धर्मों व व्यक्तियों की समानता पर जोर दिया.
> वहदत - उश-शुहूद
यह सूफी सिद्धान्त का शरियत का कट्टरता से पालन करता है तथा हिन्दुओं और गैर-सुन्नी मुसलमानों के प्रति असहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाते हैं.
> खानकाह
सूफी सन्तों का निवास स्थान तथा उनके कामकाज का केन्द्र खानकाह कहलाता था. ये मिट्टी के बने होते थे. दूर-दूर से लोग अध्यात्मिक उन्नति के लिए वहाँ जाते थे. कई खानकाहों में यात्रियों और अनुयायियों के रहने-खाने का भी बन्दोबस्त था.
> लंगर प्रथा
गुरु अंगद ने लंगर प्रथा प्रचलित की. लंगर का अर्थ होता है – 'सभी का मिलकर एक स्थान पर भोजन करना'. यह प्रथा सिखों के उत्कर्ष में बड़ी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है. इस प्रथा के माध्यम से गुरु नानक के अनुयायी जात-पात के विचारों का त्याग कर एक साथ खाना खाने लगे. इससे उनमें ऊँच-नीच की भावना समाप्त हो गई और उनमें बन्धुत्व की भावना प्रबल हो गई.
> उदासी मत
गुरु नानक ने जब अपने पुत्रों को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया, तो उनके पुत्र श्रीचन्द ने 'उदासी मत' का प्रचलन किया. नानक ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए जो भ्रमण एवं धर्मयात्राएँ की, वह 'उदासिया' कही जाती हैं.
> मंझियाँ
वह केन्द्र जहाँ पर नानक की शिक्षाओं पर चर्चा या सत्संग होते थे. गुरु अंगद ने इस मंझियों को स्थापित किया. 'मंझ' उन धार्मिक केन्द्रों का व्यवस्थापक होता था, जो चारपाई पर बैठकर उपदेश देता था.
> अकाल तख्त
इस तख्त की स्थापना गुरु हरगोविन्द ने 1609 ई. में की. इस तख्त पर बैठकर गुरु केवल राजनीतिक समस्याओं पर ही विचार करते थे. यहाँ से वे अपने सैनिकों की परेड व कुश्तियाँ देखा करते थे. इस जगह संगीत होता था, जिसमें वीर रस की कविता सुनाने वाले ही भाग लेते थे.
> खुदकाश्त
खुदकाश्त किसान वे खेतीहर थे, जो उसी गाँव की भूमि में खेती-बाड़ी करते थे, जिसके वे निवासी थे. ये किसान अपनी भूमि के स्वयं मालिक थे और इन्हें स्थाई अधिकार प्राप्त था. इनको अपनी भूमि व सम्पत्ति बेचने का अधिकार था. ये किसान अपनी खेती-बाड़ी में श्रमिकों का उपयोग करते थे.
> पाहीकाश्त
ये वे कृषक थे जो दूसरे गाँवों में जाकर कृषि कार्य करते थे तथा वहाँ उनकी अस्थाई झोपड़ियाँ होती थीं. पाहीकाश्त किसानों के पास केवल उतनी जमीन होती थी, जितनी वह केवल अपने ही परिवार के श्रम का उपयोग करके उस पर खेती कर सकते थे. 
> मुजारियन
ये वे किसान थे जिनके अधिकार में इतनी कम भूमि होती थी कि भूमि उनके परिवार के सम्पूर्ण श्रम को काम में लाने के लिए अपर्याप्त थी. अतः वह अपनी भूमि पर खेती के अतिरिक्त खुदकाश्त किसानों से किराये पर लेकर (जमीन) उस पर खेती करते थे.
> राजगामिता कानून
इस कानून के अनुसार जागीरदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सारी सम्पत्ति राजगामी हो जाती थी, उसकी जो देनदारी होती थी, उसका पूरा विवरण तैयार किया जाता था और राजगामी चल सम्पत्ति में से उसकी कटौती कर ली जाती थी. इसके बाद शेष चल सम्पत्ति का मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों में वितरण कर दिया जाता था. इस कानून की वजह से जागीरदार के वारिस इस जागीर पर पुश्तैनी हक का दावा नहीं कर सकते थे.
> सावानिह निगार
यह जागीरदारों पर नियन्त्रण रखने के लिए अधिकारियों के महत्त्वपूर्ण अधिकरण थे. ये अधिकारी जागीरदारों की कार्यवाहियों और जागीरों की तत्कालीन स्थिति का पूरा विवरण लिखित रखते और उसे आगे भेजते थे.
हुकूक-ए-दीवानी— राजकोषीय माँगे
जमा = निर्धारित राजस्व
हाल-ए-हासिल - वास्तविक राजस्व.
> मदरसा
मदरसे इस्लामिक शिक्षा केन्द्र थे, जिनमें उच्च शिक्षा दी जाती थी. इसमें तर्कशास्त्र, संस्कृत, व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी. अकबर ने आगरा, फतेहपुर सीकरी व दिल्ली में मदरसों की स्थापना की.
> मकतब
यह मुगलकालीन प्राथमिक पाठशालाएँ थीं जिसमें प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी. इसमें कुरान के अतिरिक्त गणित की शिक्षा दी जाती थी.
 चिश्ती सन्त और कार्यस्थल
>  ख्वाजा अब्दुल चिश्ती - हेरात.
> मुईनुद्दीन चिश्ती – अजमेर.
> बाबा फरीद – मुल्तान.
> निजामुद्दीन औलिया - दिल्ली.
> हमीदुद्दीन नागौरी – नागौर.
> नासिरुद्दीन महमूद – दिल्ली.
> सिराजुद्दीन अली - गौर (बंगाल). 
> अली अहमद–लखनऊ.
> मुहम्मद गेसुदराज – गुलबर्गा. 
> सलीम चिश्ती – फतेहपुर सीकरी. 
> बख्तियार काफी – दिल्ली.
> सुहरावर्दी – पंजाब, सिंध व बंगाल तीन महत्वपूर्ण केन्द्र थे.
> बहाउद्दीन जकारिया – मुल्तान. 
> ललितादित्य
यह कश्मीर के 'कर्कोट वंश का शासक था, जिसने 'मार्तण्ड का सूर्य मन्दिर' का निर्माण करवाया था. परिहासपुर में उसने बुद्ध की एक विशाल मूर्ति स्थापित की. ललितादित्य सभी धर्मों का आदर करता था. 1760 ई. में उसकी मृत्यु हो गई.
> रानी दिद्दा
यह कश्मीर के 'उत्पल वंश' की रानी थी, जिसने अपने पति क्षेमगुप्त के मरने के बाद पुत्र अभिमन्यु की संरक्षिका के रूप में शासन किया. उसके समय में देश में शान्ति बनी रही और कई मन्दिरों का निर्माण हुआ. उसने नीच कुलीन व्यक्ति की सहायता से अपनी शक्ति कायम रखी. रानी दिद्दा चरित्रहीन स्त्री थी. 1003 ई में इसकी मृत्यु हो गई.
शब्दावली
> अफाकी
ईरान, ईराक तथा केन्द्रीय एशिया से आया दक्षिण में नव नियुक्त अमीर वर्ग. ये विदेशी अमीर बहमनी युग में दक्षिण में अपना प्रभुत्व जमा बैठे थे. अफाकी (विदेशी) व दक्खिनी (देशी) अमीरों के मध्य तनातनी के कारण ही बहमनी साम्राज्य छोटे-छोटे उत्तराधिकारी राज्यों में बँटकर छिन्न-भिन्न हो गया.
> अलतमगा
मोहरबन्द या शाही सील युक्त भूमि अनुदान, जिसे जहाँगीर द्वारा प्रारम्भ किया गया एक विशिष्ट भू-धृति अथवा भूमि अनुदान. इन अनुदानों को अलतमगा इसलिए कहते थे कि क्योंकि इसी नाम की सम्राट की मोहर इन अनुदानों पर लगाई जाती थी. ये भूमि अनुदान, जागीर-ए-वतन अथवा गृह जागीरों के रूप में कुछ मुसलमान सरदारों को दिए जाते थे. यह भूमि अनुदान या जागीरें निश्चित अवधि के लिए दी जाती थी.
> अमलगुजार
सरकार अथवा जिला स्तर का दूसरे नम्बर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भू-राजस्व अधिकारी था. उसे ही नहीं, अपितु अन्य वरिष्ठ राजस्व समाहर्ताओं को करोड़ी कहा जाता था. ये अमलगुजार प्रान्तीय दीवान को सम्बन्धित जिले की आवधिक आय व्यय रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे. अकाल एवं सूखे की स्थिति में वह किसानों को तकावी ऋण देता था.
> अमीन
राज्य के कर्मचारी का नाम शेरशाह के शासन में वह परगना के दो महत्त्वपूर्ण कर्मचारियों में से एक था. अकबर के शासन काल में वह ‘सूबेदार’ का अधीनस्थ कर्मचारी होता था, परन्तु उसका काम-काज क्या होता था, यह बहुत स्पष्ट नहीं है. सत्रहवीं सदी में वह प्रान्तीय दीवान के एक अधीनस्थ के रूप में काम करता था और भू-राजस्व निर्धारण के लिए जिम्मेदार होता था.
> इजारा
रूप भू-राजस्व के आधार पर खेती करने की पद्धति, औपचारिक से मुगल शासक इस प्रणालीको अनुमोदन नहीं देते थे. फिर भी कुछ गाँवों को कभी-कभी भू-राजस्व लेकर खेती करने के लिए दे दी जाती थी.
> इक्ता
सल्तनत काल में नकद वेतन अथवा पेंशन इनाम, वक्फ या भरण-पोषण के लिए नकद धनराशि देने के स्थान पर किसी भूखण्ड या कृषि योग्य भूमि का सम्बन्धित व्यक्ति को लगान हस्तांतरित कर देना इस प्रकार नकद भुगतान के बदले लगान वाली आवंटित भूमि को 'इक्ता' कहा जाता था. मुगल सम्राट् भी नकद वेतन के बदले भू-राजस्व आवंटन करते थे, परन्तु भू-राजस्व आवंटित भूमि को जागीर कहा जाता था, तथापि कभी-कभी जागीर आवंटन पत्रों में जागीर को इक्ता कहा गया है. ऐतिहासिक दृष्टि से मुगल जागीर तथा सल्तनतकालीन इक्ता के स्वरूप में बहुत अधिक भिन्नता थी.
> कानकूत
इसका शाब्दिक अर्थ है – कृषि उत्पादन या फसल का अनुमान लगाना. इसका प्रयोग भू-राजस्व निर्धारण की एक विधि के रूप में किया जाता था जिसमें जोत के क्षेत्रफल का मापन किया जाता था और वसूले गए भू-राजस्व का निर्धारण अन्न अथवा उपज में किया जाता था.
> गज - ए - सिकन्दरी
भूमि की माप की इकाई जो 41 अंक ( उंगली) या 33 इंच लम्बी होती थी. बाँस से बनी यह नई जरीब या माप जिसकी पतली-पतली खपच्चियों को लोहे की कड़ियों द्वारा मजबूती से जोड़ा गया होता था. जरीब अकबर के शासन काल में प्रयोग में आना शुरू की गई थी. यह भूमि की पैमाइश की मानक इकाई होती थी. एक बीघे में 3,600 वर्ग गज होते थे.
> जागीर -ए- वतन
गृह जागीरें. जब कोई राजपूत राजा शाही सेवा में शामिल हो जाता था, तो उसकी एक रैंक (मनसब) और एक जागीर दी जाती थी. यह जागीर उसकी अपनी रियासत के निकट या उसकी अपनी रियासत ही होती थी और विद्रोह आदि की स्थिति को छोड़कर अहस्तावरणीय होती थी. इन जागीरों को वतन जागीर कहा जाने लगा, तथापि इस शब्द का उल्लेख न तो अबुल फजल ने और न किसी अन्य समकालीन इतिहासकार ने किया है। इस शब्द का प्रथम उल्लेख अकबर द्वारा बीकानेर के राजा रायसिंह को बाद में भेजे गए एक फरमान में है. 
> जब्ती
भू-राजस्व निर्धारण की एक प्रणाली जिसे आइन-ए-दहशाला, टोडरमल बंदोबस्त, रैयतवाड़ी प्रणाली आदि नामों से पुकारते हैं और तकनीकी रूप से इसे 'जब्ती प्रणाली' के नाम से जानते थे. यह प्रणाली 1582 ई. में प्रारम्भ की गई. प्रारम्भ में यह प्रणाली मुगल साम्राज्य के आठ प्रान्तों में प्रारम्भ की गई. इस भू-राजस्व बंदोबस्त के पाँच चरण होते थे— भूमि का मापन, अच्छी, मध्यम और खराब भूमि का निर्धारण, उपज के एक-तिहाई हिस्से का राजस्व के रूप में निर्धारण, उपज के रूप में निर्धारित भू-राजस्व को नकदी में परिवर्तित करना और अन्त में भू-राजस्व के संग्रहण का तरीका तय करना.
> दहशाला
राजस्व-निर्धारण की 'जब्ती प्रणाली' का एक संशोधित रूप अकबर द्वारा 1580 ई. में शुरू की गई. इस प्रणाली से लगान निर्धारण के लिए किसी विशिष्ट कृषि परिक्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में विभिन्न फसलों का औसत उत्पादन तथा लगान वसूली के लिए इसी अवधि में इनकी कीमतों का औसत निकाला जाता था. पिछले 10 वर्षों के औसत उत्पादन का तीसरा हिस्सा लगान होता था, तथापि भू-राजस्व नकद राशि में लिया जाता था. फसल या उपज के रूप में निर्धारित लगान को नकदी में वसूल करने के लिए विभिन्न कृषि क्षेत्रों में उगाए गए कृषि उत्पादों का मूल्य उक्त क्षेत्र में उन कृषि उत्पादों के पिछले दस वर्षों के प्रचलित मूल्यों के आधार पर किया जाता था.
> दस्तूर / दस्तूर-उल-अमल
लगान निर्धारण की जब्ती व्यवस्था में उपज के रूप में निर्धारित लगान या भू-राजस्व को नकदी के रूप में वसूल करने के लिए क्षेत्रीय आधार पर उत्पाद मूल्य तालिका तैयार की जाती थी. उपज के रूप में निर्धारित भू-राजस्व को नकदी में परिवर्तित करने के लिए विभिन्न कृषि उत्पादों की क्षेत्रीय मूल्य सूची को 'दस्तूरउल-अमल' कहते थे. इस उद्देश्य हेतु सम्पूर्ण साम्राज्य को अनेक समरूप कृषि क्षेत्रों या दस्तूरों में विभाजित कर दिया जाता था. दस्तूरों के विभाजन का आधार यह था कि उक्त कृषि क्षेत्र में एक सी फसलें और समान कृषि उत्पाद मूल्य हों. प्रत्येक दस्तूर में पिछले 10 वर्षों में विभिन्न खाद्यान्नों के प्रचलित मूल्य के आधार पर प्रति मन औसत खाद्यान्न मूल्य सूची तैयार की जाती थी जैसे कि अकबर के शासन काल में 1570-71 से 1580-81 के मध्य कृषि उत्पादों के प्रचलित कीमतों के आधार पर दस्तूर-उल-अमल निर्धारित किए गए. सामान्य तौर पर दस्तूर के अन्तर्गत अनेक तहसीलें आती थीं, परन्तु यदि एक ही तहसील में खाद्यान्नों की कीमतों में व्यापक उतार-चढ़ाव होता था, तो अपवाद स्वरूप एक ही तहसील में एक से अधिक दस्तूर भी हो सकते थे.
> नस्क
भू-राजस्व निर्धारण का एक अधीनस्थ तरीका जिसका प्रयोग राजस्व निर्धारण की किसी मुख्य व्यवस्था अधीन किया जा सकता था. इस विधि में राजस्व निर्धारण पिछले आँकड़ों के आधार पर किया जाता था.
> पेशकश
स्थानीय रियासतदारों अधीनस्थ शासकों द्वारा मुगल सम्राट् को दिया जाने वाला नियमित नजराना पेशकश कहलाता था. यद्यपि पेशकश का सही स्वरूप निश्चित करना कठिन है फिर भी कभी तो यह नकद राशि में होता था और कभी हीरों, बहुमूल्य धातुओं अथवा हाथियों के रूप में होता था. नजराना अदा करने का मतलब होता था उस रियासतदार का मुगल सम्राट् के अधीन होना.
> फौजदार 
सरकार के स्तर पर तैनात प्रमुख कार्यकारी अधिकारी. एक सरकार के अन्तर्गत एक या अधिक फौजदार नियुक्त किए जा सकते थे. साथ ही एक फौजदार दो अलग-अलग सरकारों का भी काम देख सकता था. मुख्य रूप से विद्रोह और कानून एवं व्यवस्था से जुड़ी समस्याएँ देखनी होती थी. फौजदार किसी किले का प्रभारी अधिकारी भी होता था.
> मीरबक्शी
सैन्य विभाग का मुखिया. सैन्य मामलों से सम्बन्धित सभी कार्य उसी के मार्फत होते थे, जैसे कि मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति आदि. घोड़ों का चिन्हांकन, सैनिकों की सूचना तैयार करना आदि मीरबक्शी इन सभी मामलों की ताइद करके इन्हें सम्राट् के समक्ष रखता था. वह प्रान्तीय बक्सियों तथा वाकियानवीसों के कामकाजों पर भी नजर रखता था. दिल्ली सल्तनत में इसके समकक्ष अधिकारी को ‘मीर अर्ज' कहते थे. वह यह भी सुनिश्चित करता था कि अदालत में दरबारी शिष्टाचार, खासतौर से मनसबदारों के बैठने की व्यवस्था उनके रैंक के अनुसार बनी रहे.
> मुहतसिब
एक धर्माधिकारी या सार्वजनिक नैतिकता की देखरेख करने वाला अधिकारी जिसका काम यह सुनिश्चित करना होता था कि जनता में नैतिकता बनी रहे. उसे निषिद्ध प्रथाओं जैसे सभी प्रकार के नशीले पदार्थों का प्रयोग, जुआ आदि को सीमा में रखना होता था.
> मुतसद्दी
बन्दरगाह का प्रशासक (पौतवाध्यक्ष) व बन्दरगाह का प्रशासन प्रान्तीय प्राधिकार से स्वतन्त्र था. मुतसद्दी सीमा शुल्क चौकी के माध्यम से बन्दरगाह पर बाहर से आई व्यापारिक वस्तुओं पर कर वसूल करता था, ऐसी भी जानकारी मिलती है. मुतसद्दी का पद नीलाम होता था और जो सबसे ऊँची बोली लगाता था उसे ही यह पद दिया जाता था.
> राय
राज्य की भू-राजस्व माँग का सटीक संख्या में उल्लेख करते हुए अग्रिम रूप जारी की जाने वाली अनुसूची का नाम. शेरशाह द्वारा प्रारम्भ की गई व अकबर द्वारा अपनाई गई एवं संशोधित की गई भू-राजस्व निर्धारण की जब्त प्रणाली में 'राय' एक अनिवार्य अंश होती थी.
> हासिल
वास्तविक राजस्व संग्रहण या वास्तविक वसूला गया लगान. मुगलकाल में आकलित या निर्धारित भू-राजस्व (जमा) हमेशा वसूले गए राजस्व से अधिक होता था और ऐसा राजस्व के अधिक निर्धारण के कारण होता था. हुक्म-ए-हासिल शब्द का अर्थ होता – भूमि की वास्तविक उपज के अनुसार राजस्व का निर्धारण. था
> अष्ट प्रधान मण्डल
शिवाजी के समय मराठा मंत्रिपरिषद् का नाम था जिसमें आठ मंत्री थे— पेशवा अथवा मुख्य प्रधान (राज्य के सामान्य प्रशासन का प्रभारी), अमात्य अथवा मजमूआदार (वित्त मंत्री), सचिव (शाही पत्राचार प्रभारी), मंत्री ( गृह मंत्री या फारसी काकनीस), सेनापति (प्रमुख सेनानायक), पाण्डित राव (दान कार्यों एवं धार्मिक समस्याओं को देखने वाला), सुमंत (विदेश मंत्री), न्यायाधीश (मुख्य न्याय अधिकारी ).
> कुलकर्णी
गाँव का लिपिक तथा रिकार्ड कीपर, वह हमेशा ब्राह्मण जाति से ही चुना जाता था और पटेल के बाद दूसरा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता था.
> घरखदार
केन्द्र सरकार द्वारा विभिन्न प्रान्तों अथवा बड़े मण्डलों में नियुक्त आठ आनुवांशिक अधिकारी. वे सीधे पेशवा के अधीन कार्य करते थे. ये अधिकारी थे— दीवान अथवा मामलतदार ( तहसीलदार) का सहायक, मजमूआदार, फड़नवीस, दफ्तरदार, पोटनीश, चिटनिस तथा सभासद.
> पटेल
गाँव का मुखिया, जिसके पास भू-राजस्व अधिकारी, दण्डाधिकारी तथा न्यायाधीश की समेकित शक्तियाँ होती थीं और जो गाँव तथा सरकारी कर्मचारियों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाता था. उसे यह पद वंशानुगत प्राप्त होता था. उसकी परिलब्धियों में शामिल होता था – किराया रहित भूमि और प्रत्येक गाँव की उपज की एक निश्चित अंश की प्राप्ति.
> सरे अंजाम
सैन्य टुकड़ियों की देखरेख के लिए तथा सैन्य सेवा के लिए आनुवंशिक भू-अनुदान. राजाराम ने मराठों के पक्षधर व्यक्तियों को प्रसन्न करने के लिए सर अंजाम प्रणाली अपनाई थी. सरंजाम, मूल रूप से सिविल अथवा सैनिक सेवा के लिए भूमि अनुदान का ही नाम था. पेशवाओं के शासन काल में सरअंजाम प्रणाली ने आनुवंशिक रूप ले लिया. मराठा सरदार सरंजाम को पैतृक सम्पत्ति अथवा जागीर जैसी समझते थे जैसे कि वंशानुगत रूप से प्राप्त किया जाए और यहाँ तक कि उसका विभाजन भी हो सके.
> हुजूर दफ्तर
पूना में पेशवा का सचिवालय जो कि अनेक विभागों में विभाजित था, जिसके मुखिया होते थे-चलते दफ्तर (फड़नीश की देख-रेख में जो कि बजट अनुमान तैयार करता था तथा सभी लेखे जाँचता था) व एक वेरिज दफ्तर (जोकि सभी विभागों का वर्गीकृत लेखा रखता था) पेशवा बाजीराव द्वितीय के प्रशासन में हुजूर दफ्तर प्रभावहीन हो गया क्योंकि पेशवा ने सभी राज्यों के भूराजस्व निश्चित कर दिए थे.
● खिलजीवंशीय आर्थिक नीति : (अलाउद्दीन खिलजी)
• इसने एक आदेश निकालकर उस सारी भूमि को छीन लिया जो उससे पहले मिल्क, इनाम तथा वक्फ व पेंशन के रूप में दी गई थी.
• उसने राजपूत, चौधरी, मुकद्दमों की लगान सम्बन्धी सुविधाओं को रद्द कर दिया.
• इसने पैदावार का 50% वसूल किया और लगान नकद न लेकर उपज के रूप में ही वसूल किया.
• उसने पहली बार भू-राजस्व के क्षेत्र में पैमाइश के आधार पर राजस्व निर्धारित करने की नीति लागू की.
• उसने बकाया राजस्व वसूल करने के लिए 'मुस्तखराज' नामक अधिकारी की नियुक्ति की.
• उसने राजस्व विभाग में घूस व बेईमानी रोकने के लिए निम्न स्तर के अधिकारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी की और कठोरतम दण्ड भी दिए.
• उसने पटवारियों के लेखों का निरीक्षण करना भी आरम्भ करवाया. 
• अलाउद्दीन ने आवास कर (घरई) व चराई कर (चरई) भी लागू किए.
● गयासुद्दीन तुगलक ( आर्थिक नीति)
• अलाउद्दीन ने जिन व्यक्तियों की जागीरें छीन ली थीं उन जागीरों को वापस लौटा दिया गया तथा उसने उदारता व कठोरता का समन्वय किया. 
• उसने अलाउद्दीन की 'पैमाइश' की पद्धति को त्याग दिया तथा 'बंटाई' के आधार पर ही लगान का निर्धारण किया.
• उसने खुशरव शाह द्वारा अनावश्यक रूप से वितरण किए गए दान को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया
• उसने अकाल के समय भूमि कर को माफ करने की भी व्यवस्था की. लगान अधिकारियों को कर मुक्त जागीरें दी गईं तथा हिन्दू लगान अधिकारियों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए गए.
• उसने अधिकारियों को आदेश दिए कि वे किसानों के साथ भलाई का व्यवहार करें.
• उसने सिंचाई कर के लिए नहरों का निर्माण करवाया. उसने लगान अधिकारियों की ईमानदारी पर बहुत बल दिया.
● मुहम्मद बिन तुगलक (आर्थिक नीति)
• इसने सर्वप्रथम सूबों की आय व्यय का एक रजिस्ट और सूबेदारों को नियमित रूप से अपने अधीन प्रदेश की आय व्यय का हिसाब भेजने का आदेश दिया.
• इसने 'आवास कर' व 'चरई कर' लागू किए जिसके लिए मकानों को रेखांकित किया गया तथा पशुओं को दागा गया.
• उसने दोआब में कर वृद्धि की तथा अकाल के समय किसानों को राजकोष से 'तकावी ऋण' दिए.
• उसने कृषि भूमि में वृद्धि करने के लिए 'दीवाने कोही' नामक विभाग की स्थापना की.
• उसने अलाउद्दीन की 'पैमाइश पद्धति' को ही अपनाया. 
● फिरोज तुगलक ( आर्थिक नीति)
• उसने जनसाधारण को दिए गए ऋण को माफ कर दिया जो लगभग दो करोड़ था.
• उसने समस्त भेंटों को फिर से वसूल करने की अस्वीकृति दे दी.
• उसने अधिकारी वर्ग का वेतन बढ़ा दिया तथा उनको दी जाने वाली यातनाओं को समाप्त कर दिया. उनकी जानकारी रखने वाले गुप्तचरों को भी हटा दिया.
• उसने उलेमा वर्ग को पुनः अनुदान दिए.
• उसने आय का निर्धारण करने के लिए 'हिसामुद्दीन जुनैद' को नियुक्त किया, जिसने राजस्व 6 करोड़ 75 लाख टका निर्धारित किया, उसने जमा निर्धारित करने में पैमाइश के स्थान पर अनुमान कर आधार बनाया.
• उसने सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण करवाया व सिंचाई कर (हाब-ए-शर्ब) लगाया.
• उसने भूमि को ठेके पर देने की प्रथा को विकसित किया तथा दिल्ली के आसपास 1200 फलों के बाग लगाए, जिससे राज्य को कर मिलता था.
● सल्तनतकाल का आर्थिक जीवन
सल्तनत काल में शहरों की संख्या और आकार में वृद्धि हुई. उद्योग उत्पादन में बढ़ोत्तरी और व्यापार का विकास हुआ. रहट का प्रयोग पानी सींचने के लिए किया जाता था तथा वस्त्र उद्योग में चरखे का प्रयोग होने लग गया था. रेशम के कीड़े पालने की प्रथा उस समय प्रचलित थी. बंगाल, बिहार, दोआब, मालवा, पंजाब तथा गुजरात में शहरों का विकास हुआ. सैनिक सामान, हथियार, वस्त्र आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर होने लगा. इस समय में मुल्तान, लाहौर, देवल, समाना, थट्टा, दिपालपुर आदि व्यापारिक नगर थे. देवल सल्तनत काल का अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह था. अहमदाबाद में रेशमी कपड़ा बनाया जाता था, जिसे हालैण्ड भेजा जाता था. अहमदाबाद का 'पटोला' नामक कपड़ा फिलीपींस, बोर्नियो, जावा, सुमात्रा आदि देशों को भेजा जाता था. देवगिरि के व्यापारी रत्नों का व्यापार करते थे. बनारस में सोने-चाँदी तथा जरी का काम होता था, जल मार्ग के लिए सिन्धु नदी का मुख्यतः उपयोग होता था.
> आयात वस्तुएँ
घोड़े, अस्त्र-शस्त्र, दास, मेवे, फल, सोना, ऊँट, गुलाब जल, खजूर, सीसा आदि.
> निर्यात वस्तुएँ
लोहा व हथियार, सूती वस्त्र, अनाज, नील, जड़ी बूटियॉ व मसाले, फल, मोटी केसर, अफीम आदि.
विदेशी व्यापार ईरान, अरब, यूरोप, अफ्रीका, चीन, मलाया, अफगानिस्तान से होता था. चोल, गोआ, कालीकट, कोचीन उस समय के प्रसिद्ध बन्दरगाह थे. बारबोसा ने लिखा है कि उस समय बहमनी राज्य में कृषि, पशुपालन और फलों के बाग बहुत अच्छी स्थिति में थे. उस समय कृषि की अच्छी स्थिति थी. 
> आजीवक सम्प्रदाय
6 शताब्दी ई. पू. में आविर्भूत चिन्तन परम्परा थी जिसके संस्थापक मक्खलि गोशाल थे. इनकी शिक्षा का मूलाधार नियतिवाद है. मक्खलि गोशाल के अनुसार समस्त प्राणी नियति एवं भाग्य के अधीन है और उसी के अनुरूप सुख-दुःख भोगते हैं. न उनमें बल है और न ही पराक्रम तथा अपने प्रयासों से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं. मौर्य युग में इसके प्रचलन से स्पष्ट संकेत मिलते हैं. जहाँ अशोक ने आजीवन भिक्षुओं के लिए बराबर की पर्वत शृंखलाओं में गुहाओं का निर्माण करवाया. मौर्य शासक दशरथ स्वयं इसका अनुयायी था.
> मलिक अम्बर की भूमिका भू-राजस्व व्यवस्था
मुगलकाल में दक्षिण भारत और मुगलों में साम्राज्य विस्तार के लिए लम्बे समय तक संघर्ष चलता रहा. इस कारण दक्षिण के किसानों की दशा बहुत बिगड़ गई. उनकी दशा सुधारने का प्रथम उल्लेखनीय प्रयास अहमदनगर राज्य के सर्वेसर्वा तथा जहाँगीर के समकालीन मलिक अम्बर ने किया. उसे दक्षिण भारत का टोडरमल के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि जिस प्रकार उत्तर भारत में टोडरमल की व्यवस्था 'दहशाला' लोकप्रिय हुई. उसी भाँति दक्षिण में मलिक अम्बर की प्रणाली.
मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था के दो मूल आधार थे ‘तनखा’ और ‘रकबा’ उसने अपने राज्य की समस्त भूमि की पैमाइश करवाई. हालांकि भूमि की नाप के लिए सभी जगह एक ही मापदण्ड का प्रयोग नहीं किया गया. भूमि की नाप के बाद भूमि को उपज के आधार पर वर्गीकृत किया गया तथा प्रत्येक वर्ग की भूमि की उपज का एक मोटा अनुमान लगा लिया गया और इसी आधार पर राजस्व का निर्धारण किया गया. मलिक अम्बर ने किसानों को नकद लगान देने हेतु प्रोत्साहित किया, लेकिन इसके लिए उसने किसानों को बाध्य नहीं किया, उसने अपने लगान को 2/5 (उपज का भाग) निश्चित किया परन्तु यदि कोई व्यक्ति नकद लगाम का भुगतान करना चाहे, तो उसे 1/3 ही देना पड़ता थो नकद लगान को मलिक अम्बर ने स्थायी कर दिया और यही लगान खेत का राज्य की दृष्टि से मूल्य स्वीकार कर लिया गया. लगान स्थिर करते समय पिछले वर्षों की उपज एवं बाजार भाव को भी ध्यान में रखा गया. क्षेत्रफल को भूमिकर स्थिर करने का आधार बनाने के कारण इसे 'रकबा प्रथा' कहते थे तथा नकद लगान को स्थिर करने के कारण इसे 'तनखा प्रथा' कहते थे.
मलिक अम्बर ने किसानों को सन्तुष्ट करने के लिए उन्हें भूमि का स्वामी मान लिया तथा उन्हें अपनी सम्पत्ति को अधिकाधिक लाभकारी बनाने के लिए पूरी छूट दी. यदि किसान अपने खेत की उपज को बढ़ाता तो सरकार उससे अतिरिक्त लगान वसूल नहीं करती थी, परन्तु यदि उसकी उपज कम होती तो सरकार छूट देकर उसके संकट को कम करने में सहायता देती थी.
किसानों को स्थानीय कर्मचारियों द्वारा होने वाले उत्पीड़न से निजात दिलाने के लिए मलिक अम्बर ने प्रयास किये. उसने वंशानुगत अधिकार सम्पन्न देशमुखों, पटेलों आदि को हटा दिया और उनके स्थान पर प्रत्येक गाँव से कर वसूलने का अधिकार स्थानीय ब्राह्मणों में से किसी एक को दे दिया. वह समझता था कि श्रेष्ठ चरित्र और सामाजिक सम्मान के कारण वे स्थानीय जनता का सम्मान प्राप्त कर सकेंगे और साथ ही राज्य के धन को भी समय से देते रहेंगे. इन ब्राह्मणों के साथ एक सुविचारित आधार पर समझौता किया गया. उनको गाँव के किसानों के नाम, उनकी भूमि का क्षेत्रफल तथा उनके लगान का विवरण दिया गया तथा इनको यह वायदा करना पड़ा कि वे उसी 'तनखा' के हिसाब से कर वसूल कर राजकोष में जमा कराएंगे. सारी वसूली का भार इन्हीं पर छोड़ दिया गया और इन्होंने पूरे गाँव के प्रतिनिधि की तरह सम्पूर्ण लगान देने का वचन दिया. इसके बदले में उन्हें वंशानुगत अधिकार दे दिया गया और उनको गाँव की भूमि का कुछ भाग इस शर्त पर दे दिया गया कि वे उसे किसी किसान द्वारा बटाई प्रथा के आधार पर जुतवाएँ. गाँव की गोचर भूमि की रक्षा और व्यवस्था का भार भी इन्हीं मुखियों के ऊपर छोड़ दिया गया और उनको आदेश दिया गया कि वे उस भूमि का उपयोग सभी किसानों को समान रूप से करने दें. यह व्यवस्था बहुत सफल सिद्ध हुई और अहमदनगर राज्य की आय में काफी वृद्धि हुई .
इस प्रकार उपर्युक्त विवेधन से स्पष्ट है कि मलिक अम्बर ने दक्षिण भारत में सर्वप्रथम एक व्यवस्थित लगान व्यवस्था की शुरूआत की तथा इससे किसानों को अत्यधिक लाभ हुआ और उनकी स्थिति में सुधार हुआ.
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