अब्राहम लिंकन : डगलस को कड़ी चुनौती

अब्राहम लिंकन : डगलस को कड़ी चुनौती

अब्राहम लिंकन : डगलस को कड़ी चुनौती

डगलस को कड़ी चुनौती


I am glad, that I had a good chance to speak openly among mass on the terrible issue the slavery. I am sure it will tell for the cause of civil liberty long after I am gone.
-Abraham Lincoln
1850 आते-आते दक्षिण व उत्तर के बीच तनाव की स्थिति फिर उत्पन्न हो गई। इसी वर्ष भिग नेता हैनरी क्ले ने दूसरे मिसौरी समझौते की नींव रखी। इस समझौते के तहत केलीफोर्निया' एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया जाना था। कोलंबिया जिले में दास प्रथा समाप्त की जानी थी। मोरक्को से जीती गई जमीन पर पर दास प्रथा का विस्तार नहीं होने देना था। भगोड़े दासों को वापस बुलाने वाला कानून बनाया जाना था।
दास प्रथा को लेकर पूरा देश बंटने के कगार पर आ गया था। कुछ लोग चाहते थे कि दास प्रथा रहे, कुछ चाहते थे नहीं रहे। ऐसे में राजनीतिक नेताओं को बड़ी परेशानी हो रही थी।
उनका उद्देश्य न गुलामी को समाप्त करना था, न उसे बनाए रखना था, अपितु दोनों में से जो भी हो, उनकी सीट निकल आए और वे चुनकर राजनीति की मुख्य धारा में ऊंचा पद पा जाएं।
ऐसे ही एक सिद्धांतहीन नेता के रूप में डगलस उभकर आया। 5 फुट 2 इंच लम्बा डगलस डेमोक्रेटिक पार्टी का एक ऐसा नेता था जो हर हाल में चुनाव जीतने के उद्देश्य से मैदान में उतरा था, परंतु उसके विचारों से उसकी पार्टी के समर्थकों में ही संदेह और अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई। इतना ही नहीं डगलस के विचारों से ऐसा भ्रम फैला कि अमेरिकी संघ के टूटने का खतरा मंडराने लगा।
1852 में डगलस ने दक्षिण को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से तथा उत्तर वालों के बीच लोकप्रियता पाने के उद्देश्य से केनसास-नेबरास्का विधेयक तैयार किया। इस विधेयक का उद्देश्य आने वाले वर्षों में राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवारी सुनिश्चित करना तथा भारी बहुमत से चुनाव जीतना था।
दक्षिण में डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुत नुकसान हो रहा था। डगलस चाहता था कि पार्टी दक्षिण वालों का फिर से विश्वास जीत ले, कुछ इस तरह कि उत्तर वालों का विश्वास भी न टूटे। इस विधेयक में सबसे बड़ी कमी यह थी कि यह दास प्रथा के मामले में पूरे राष्ट्र को गुमराह कर रहा था। जो दास प्रथा चाहते हैं उनके राज्य में दास प्रथा रहे, फले-फूले और चाहे जितनी फैले डगलस को इस बात की परवाह नहीं थी और जो दास प्रथा नहीं चाहते उनके राज्य में दास प्रथा लागू न की जाए। भिग पार्टी की स्थिति भी दास प्रथा के मामले में स्पष्ट नहीं थी। वह पार्टी भी यही चाहती थी कि दास प्रथा के मामले में कोई ऐसा कदम न उठाया जाए जो दास प्रथा विरोधी अथवा समर्थक हो। ऐसे में दास प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अभियान चला रही ताकतों को किसी पार्टी का खुला समर्थन नहीं मिल पा रहा था। अमेरिका की राजनीति में यह बड़े भ्रम और असमंजस की स्थिति थी, कार्यकर्ता भी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे जनता के सामने कौन-सी नीति लेकर जाएं और किस नीति का विरोध करें। पार्टी के वरिष्ठ नेता भी असमंजस की स्थिति से उबर नहीं पा रहे थे। दास प्रथा पर स्पष्ट रणनीति की घोषणा करने की हिम्मत कोई राजनैतिक दल अथवा नेता नहीं जुटा पा रहा था।
जनता के सामने भी भ्रम की स्थिति थी। अमेरिका के 87% गोरे लोग जिनमें से अधिकतर दास प्रथा के समर्थक थे। डेमोक्रेटिक तथा मिग दोनों पार्टियों की नीतियों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। उन्हें लगता था मानो ये दोनों राजनीतिक दल केवल राजनैतिक लाभ के लिए काम कर रहे हैं, जनता अथवा देश के सामने जो समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, उन्हें हाथ लगाते इन्हें डर लगता है।
11% नीग्रो जाति के काले लोग स्वतंत्र देश के नागरिक होने के बावजूद यह नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें गुलाम ही बने रहना है या फिर गुलामी से मुक्ति पाकर आम अमेरिकन की तरह अपने अधिकारों का उपयोग करना है। राजनीतिज्ञों से उन्हें कोई उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही थी, परंतु उनकी अपनी भूमिका राजनीति में प्राय: नगण्य थी। वे सभी राजनैतिक दलों और उनके नेताओं की ओर इस आशा से ताकते रहते थे कि कब वे उनके उद्धार के लिए प्रयास करेंगे और दास प्रथा का कलंक अमेरिका की धरती से मिट जाएगा। वे जानते थे कि गोरे उनका उद्धार नहीं चाहते। उनकी मेहनत की वजह से अमेरिका की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढी अपना पसीना बहाकर खेती को सींचा है और दुनिया में सबसे ऊंचे दर की पैदावार लेने वाले राष्ट्र के रूप में अमेरिका को खड़ा किया है। उद्योग धंधों में भी उनकी अहम भूमिका है। जहां-जहां कठोर परिश्रम की बात आती है, उन्हें भिड़ा दिया जाता है और उनकी भावनाओं का तनिक भी ख्याल नहीं रखा जाता। वे भाग न जाएं इसलिए उन्हें बांधकर रखा जाता है। उनकी उत्पादन क्षमता का लाभ उठाने के लिए मालिक उन्हें ऊंचे दामों पर भी खरीद लेते हैं। एक बार कोई नीग्रो किसी गोरे अमेरिकन को हाथ लग जाए तो वह उसे कभी नहीं छोड़ता। उसे शादी भी नहीं करने देता, उसे उसके परिवार वालों तथा रिश्तेदारों से भी बहुत कम मिलने दिया जाता है। हर शाम गोरों को यही चिंता सताती रहती है कि काले अपने आपको मनुष्य न समझने लग जाएं, यदि ऐसा हुआ तो वे अपनी इच्छाएं और भावनाएं पूरी करने लगेंगे। तब उन्हें गुलाम बनाकर रखना कठिन हो जाएगा। मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाकर रखने की सोच अब्राहम लिंकन को कभी पसंद नहीं आई थी, परंतु अमेरिका की परिस्थितियां ही ऐसी थीं कि राजनैतिक मंच से दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा करना अपनी राजनैतिक मौत आमंत्रित करना था। अतः वे फूंक-फूंककर कदम रख रहे थे। जब उन्होंने यह देखा कि डेमोक्रेटिक पार्टी डगलस के तथाकथित विधेयक के कारण अनिश्चय की स्थिति में आ गई है और यह विधेयक संघीय एकता के लिए भी एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है, तब उन्होंने डगलस की नीतियों का विरोध करने का फैसला कर लिया। अभी भी एक बहुत बड़ी परेशानी यह थी कि उनकी अपनी पार्टी (भिग पार्टी) भी नीतियों के मामले में स्पष्ट नहीं थी। दास प्रथा का क्या हो, इस बात का जबाब भिग पार्टी के पास भी नहीं था। सच्चाई यह थी कि दास प्रथा का अभिशाप एक यक्ष प्रश्न बनकर पूरे देश के सामने खड़ा था और उसका हल निकालने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा था। 1852 से 1854 के बीच अमेरिका की राजनीति की स्थिति असमंजस और ऊहापोह से भरी रही। इसी अवधि में (1852) डगलस के प्रस्ताव की चर्चा गर्म होते ही लिंकन ने वकालत करते-करते अचानक यह फैसला लिया कि वे डगलस जैसे समझौतावादी और सत्ता के भूखे व्यक्ति के हाथों दासों का तथा राष्ट्र का अहित नहीं होने देंगे। वे राजनीति में फिर से सक्रिय हो गए। डगलस की नीतियों को चुनौती देते हुए हुए वे भिग पार्टी के मंच से आलोचना करने लगे, लेकिन दास प्रथा को लेकर खुला बयान देने से बचते रहे। वे अलग-अलग तरह से सुझाव सुझाते रहे और यह जानने का प्रयत्न करते रहे कि उनके सुझावों का अमेरिका की जनता पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसी बीच भिग पार्टी के दो महत्त्वपूर्ण नेता हैनरी क्ले और वेबस्टर की मृत्यु हो गई और भिग पार्टी का नेतृत्व काफी हद तक लिंकन के ऊपर आ गया। यह वह समय था जब डगलस अमेरिका की शीर्ष राजनीति में पांव जमाकर ऊंची उछाल मारने का स्वप्न देख रहा था और लिंकन उसका विरोध करने का निश्चय कर अपनी दास प्रथा सम्बंधी नीतियों की प्रतिक्रिया को समझने का प्रयास कर रहे थे।
डगलस और लिंकन एक-दूसरे के समकालीन थे और समानान्तर राजनीति में और वकालत में आगे बढ़ते हुए 1854 तक आते-आते एक-दूसरे के ठीक विरुद्ध उठकर खड़े हो गए थे।
1834 में लिंकन और डगलस दोनों इलीनॉइस राज्य विधान सभा के सदस्य चुने गए थे। 1838 में एक ही दिन दोनों को इलीनॉइस के सर्वोच्च न्यायालय में वकालत के लिए स्वीकृति मिली थी। 1842 में लिंकन ने मेरी टॉड के साथ विवाह किया। यह वही स्त्री थी जिससे पहले डगलस विवाह करना चाहता था। 1846 में डगलस चुनकर अमेरिका की सीनेट में पहुंचा तथा लिंकन प्रतिनिधि सभा में चुनकर पहुंचे। 1858 में डगलस के विरुद्ध सीनेट की सदस्यता के लिए लिंकन ने नामांकन भरा और चुनाव लड़ा, परंतु वे चुनाव हार गए और डगलस सीनेट का सदस्य बन गया।
1854 में जब डगलस और लिंकन का आमना-सामना हुआ तब लिंकन की राजनैतिक पृष्ठभूमि डगलस की तुलना में बहुत कमजोर थी, क्योंकि वह पिछले 8 वर्षों से लगातार सीनेट का सदस्य था जबकि लिंकन की हैसियत केवल एक वकील की थी जो राजनीति से एक बार बाहर हो चुका था और एक बार फिर अपना भाग्य आजमाने के लिए फिर से राजनीति में उतरा था। 
न्यू रिपब्लिकन पार्टी के नेता
दास प्रथा पर नीतियों में तालमेल न होने तथा कुछ अन्य कारणों से भिग पार्टी फरवरी 1854 में टूटकर बिखर गई। पार्टी के टूटते ही कुछ नेताओं ने इस बात पर विशेष रूप से जोर दिया कि दास प्रथा को और फैलने से रोकने तथा संघीय ढांचे को टूटने से बचाने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का कोई राष्ट्रीय विकल्प तैयार किया जाए।
न्यू रिपब्लिकन पार्टी के रूप में इन नेताओं ने नया विकल्प तैयार कर लिया। शीघ्र ही नई पार्टी का जन्म हो गया। जिन नेताओं ने मिलकर पार्टी की स्थापना की, उनमें अब्राहम लिंकन शामिल नहीं थे। वे उन दिनों अपना पूरा ध्यान डगलस के विधेयक की काट तैयार करने तथा अपने वकालत के काम को समेटने में लगे थे। डगलस के प्रस्ताव तथा भिग पार्टी के विखंडन ने उन्हें यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि राष्ट्रीय राजनीति में अब उनकी भूमिका की जरूरत है।
जिन नेताओं ने न्यू रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया था, उनके विचार लिंकन से अधिक भिन्न नहीं थे। पार्टी ने जिन दो बातों को आधारभूत नीतियों का आधार बनाया था वे ही लिंकन की राजनीति का आधार भी थीं। लिंकन को पार्टी में शामिल करने के लिए बुलावा आया तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। वे स्वयं भी नई पार्टी में शामिल होने का मन बना चुके थे। बुलावे पर पार्टी में गए तो उनके स्वाभिमान की भी तृप्ति हो गई।
1856 में पीट्सवर्ग में पार्टी का महासम्मेलन हुआ। इस अवसर पर अब्राहम लिंकन न्यू रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गए।
डगलस के विधेयक को चुनौती
न्यू रिपब्लिकन पार्टी में शामिल होने से पहले ही लिंकन ने डगलस को चुनौती देने की तैयारियां शुरू कर दी थीं।
3 अक्टूबर, 1854 को स्प्रिंगफील्ड में डगलस ने एक विशाल सभा को सम्बोधित किया। उस समय लिंकन सभा-स्थल के बाहर खड़े होकर डगलस के भाषण को सुन रहे थे। ज्योंही डगलस का भाषण समाप्त हुआ, लिंकन ने घोषणा की- “कल इसी स्थान पर ऐसी ही एक सभा में डगलस के इस तथाकथित विधेयक को चुनौती दूंगा। सबसे मेरा अनुरोध है कि वे मेरी बात सुनने के लिए इसी स्थान पर इसी समय अवश्य पहुंचें।"
अगले दिन फिर सभा स्थल खचाखच भरा था, पर आज सभा का वक्ता डगलस नहीं था। अब्राहम लिंकन डगलस के द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब दे रहे थे तथा अपने भाषण के दौरान उन्होंने डगलस के विधेयक को भ्रम फैलाने वाला तथा अमेरिकी संघ के ढांचे को कमजोर करने वाला बताया। श्रोताओं ने बड़े ध्यान से लिंकन का भाषण सुना। आरंभ में तो लिंकन अधिक नहीं जम पाए थे। उनकी आवाज लोगों को प्रभावित नहीं कर पा रही थी, परंतु कुछ मिनट के बाद उनके भाषण में परिपक्वता आ गई। उनका आत्मविश्वास बढ़ गया और उन्होंने इतना शानदार भाषण दिया कि लोगों ने लिंकन को एक अच्छे वक्ता के रूप में स्वीकार कर लिया।
अगले दिन जब समाचार-पत्र छपे तो यह देखकर हैरानी हुई कि एक दिन पुराने डगलस के भाषण को जितना स्थान दिया गया था, उतना स्थान आज लिंकन के भाषण को नहीं दिया गया था। इसी विषय पर बिल्कुल इसी तरह का भाषण लिंकन ने पियोरिया में दिया। इस भाषण ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पत्रकार भी बड़ी संख्या में इस भाषण के समय सभा-भवन में मौजूद थे। भाषण देते-देते लिंकन खासे उत्तेजित हो गए थे। वे पसीने से तर थे, उनके बाल छिटककर बिखर गए थे। भाषण में वे इतने तल्लीन हो गए थे कि उन्हें बाल संवारने की भी सुधि नहीं थी। अगले दिन सारे समाचार-पत्र लिंकन के भाषण से भरे थे। जन-जन की जुबान पर लिंकन की चर्चा थी। लिंकन ने डगलस के प्रभाव को धो दिया था और यह साबित कर दिया था कि डगलस के विचार एक जिम्मेदार तथा सुलझे हुए राजनीतिज्ञ के विचार नहीं हैं, उनमें राजनैतिक स्वार्थ की 'बू' अधिक आ रही है।
लिंकन दास प्रथा पर जमकर बोले थे। पहली बार अमेरिका के इतिहास में किसी नेता ने इस विषय पर खुलकर बोलने की हिम्मत जुटाई थी। अब तक जितने नेताओं ने दास प्रथा पर टिप्पणी की थी, वे सभी अपने विचारों और नीतियों के मामले में स्पष्ट नहीं थे। बड़े बचा-बचाकर वे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे कि कहीं जनता के बीच पकड़ न लिए जाएं।
अब्राहम लिंकन के व्यक्तित्व और विचारों में पूरी तरह पारदर्शिता थी। उन्होंने कुछ भी छिपाने का प्रयास नहीं किया, जो उन्हें ठीक लगता था, वही उन्होंने कहा। आरंभ में दास प्रथा के बारे में उनके विकल्प स्पष्ट नहीं थे। उन्होंने खुलकर जनता को बताया कि यह विषय ही ऐसा है कि इसका कोई स्पष्ट हल समझ में नहीं आ रहा, फिर हम कैसे कह सकते हैं कि इसका यह हल निकल आएगा। कुछ समाधान जो दिखाई पड़ रहे हैं, उन पर विचार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। दास प्रथा एक सामाजिक समस्या है अतः इसे सुलझाते समय जनता को साथ लेकर चलना चाहिए। जो विकल्प हमें ठीक लगते हैं उन्हें हम जनता के सामने रखें। जनता उन पर विचार करेगी और अपना मत प्रकट करेगी कि कौन-सा विकल्प अधिक कारगर साबित हो सकता है। उन्होंने कहा—“If all earthly powers were given to me, I would not know what to do as to the existing situation." (यदि मुझे दुनिया की सारी शक्तियां भी प्राप्त हो जाएं तब भी मैं यह साफ-साफ नहीं कह पाऊंगा कि इस समस्या का समाधान क्या हो?)
फिर भी उन्होंने एक बात तो साफ कर दी कि वे गुलामी को बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। गुलामी के विस्तार के तो वे सख्त विरोधी हैं ही, वे यह भी नहीं चाहते कि गुलामी एक दिन भी ठहरे, परंतु वे कोई ऐसा हल निकालना चाहते हैं, जिससे राष्ट्रीय संघ मजबूत होकर निकले और अमेरिकी समाज जिन्हें आज गुलाम बनाकर रखे हुए हैं उन्हें अपनी ही तरह मनुष्य मानने में गर्व का अनुभव करे। उन्होंने कहा-"I think I would not hold one to slavery at any rate, get the point is not clear to me to be declared openly.
एक विकल्प उन्होंने यह भी दिया था कि सभी दासों को मुक्त कर दिया जाए और उन्हें लाइबेरिया भेज दिया जाए, जहां अमेरिकन कोलोनाइजेंशन सोसाइटी ने नीग्रो गणतंत्र की स्थापना की है।
अपने विचारों को जनता के सामने रखने में लिंकन बहुत ईमानदार थे। वे अमेरिकी जनता पर कुछ भी थोपना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि अमेरिका की जनता स्वयं इस सत्य को समझे कि आदमी का आदमी द्वारा गुलाम बनाया जाना कितना अमानवीय और गलत है। अतः समाज उसके संभव विकल्प तलाशे। यह तो साफ है कि मानव द्वारा मानव की दासता सदा रहने वाली नहीं। यह क्योंकि गलत है, अतः इसे एक दिन जाना ही होगा। ऐसी कोई भी प्रथा जो दूसरों पर पशुओं जैसे अत्याचारों की सिफारिश करती है, अधिक दिन तक नहीं टिक सकती। मानव सभ्यता विकसित होती रहती है और विकास के इस क्रम में गलत तथा अन्याय पर आधारित परम्पराएं एक दिन अवश्य समाप्त हो जाती हैं।
अपने इसी भाषण में उन्होंने कहा – “अब समय आ गया है कि हम इस बात पर विचार करें कि नीग्रो आदमी है या नहीं। यदि वह मनुष्य है तो वह अपने आप पर उसी तरह शासन क्यों नहीं कर सकता जिस तरह गोरी चमड़ी वाला मनुष्य करता है। उस पर शासन करने का अधिकार फिर गोरे अमेरिकावासी को क्यों है? यदि नीग्रो मनुष्य है तो जहां तक हम सबने पढ़ा और समझा है यह सिद्धांत उस पर भी लागू होना चाहिए कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। उसकी सृष्टि में रहते हुए हमें यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि हम दूसरों को अपना गुलाम बनाकर रखें और उनके साथ जानवरों जैसा सलूक करें?"
लिंकन के उपर्युक्त विचारों को पढ़कर क्या कोई यह कह सकता है कि लिंकन के दासता सम्बंधी विचार स्पष्ट नहीं थे या लिंकन में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे दासता के बारे में अपने विचार खुलकर प्रकट कर सकें।
जिस दौर में लिंकन ने ये विचार प्रकट किए थे उस दौर में देश के सारे राजनीतिज्ञ दासता के नाम पर बगलें झांकते थे। किसी ने इतनी स्पष्टता से तथा इतने आगे बढ़कर दास प्रथा पर प्रहार नहीं किया। लिंकन की साफगोई और उनका अपनी बात रखने का ढंग श्रोताओं को सीधा प्रभावित करता था। जो उनके विचार सुनते थे उनके दिलों में दासों के प्रति एक सहानुभूति का भाव पैदा होने लगता था। वे बार-बार सोचने पर विवश हो जाते थे कि कहीं दास प्रथा वास्तव में गलत ही तो नहीं है?
लिंकन द्वारा छेड़े गए डगलस विरोधी अभियान ने दासों के प्रति लोगों के दिलों में सहानुभूति पैदा करनी शुरू कर दी और लिंकन के विचारों को सुनने के प्रति उनका रुझान और बढ़ता गया। लिंकन जब अपनी बात कहते थे तब ऐसा नहीं लगता था कि वे ऐसा कहकर वोट मांग रहे हैं या अपनी राजनैतिक पृष्ठभूमि मजबूत कर रहे हैं। सच्चाई यह थी कि लिंकन एक सहृदय मनुष्य की हैसियत से गोरे मनुष्यों द्वारा सताए जा रहे काले लोगों के अधिकारों की बात कह रहे थे। वे अमेरिका की जनता को यह बताना चाह रहे थे कि नीग्रो भी उन सबकी तरह ही मनुष्य हैं। मनुष्यों द्वारा चमड़ी के रंग के आधार पर दूसरे मनुष्यों के साथ दुर्व्यवहार किया जाना, शोषण और अपमान किया जाना कितना सही है, इस बात पर अमेरिकन समाज विचार करे।
वे दासों के प्रति सहानुभूति इसलिए प्रकट नहीं कर रहे थे कि उन्हें अपना राजनैतिक भविष्य संवारना था और सत्ता में पहुंचकर सत्ता का सुख लूटना था, बल्कि वे इसलिए प्रकट कर रहे थे कि अमेरिका के गोरे लोगों में कालों के साथ काम करने की भावना पैदा करना चाहते थे। चुनाव लड़ने और जीतकर सीनेट में पहुंचने के पीछे भी उनका उद्देश्य यही था कि इस बात को और अधिक ऊंचे मंच पर उठा सकें।
गुलामों को अमेरिकी संविधान ने कितने अधिकार दिए थे तथा उनकी स्वतंत्रता की हदें कितनी छोटी थीं, इस बात का खुलासा करता है 1857 में मुख्य न्यायाधीश टेनी द्वारा एक भगोड़ा दास ड्रेस स्कॉट के बारे में दिया गया फैसला। जज ने फैसला दिया—“गुलामों को अमेरिका में उस तरह के अधिकार प्राप्त नहीं हैं जैसे कि अमेरिका के गोरे नागरिकों को हैं। जो दास भगोड़ा घोषित कर दिया जा चुका है वह तो अमेरिका का नागरिक भी नहीं रहा। अतः उसे अमेरिका के किसी न्यायालय में न्याय मांगने का हक अमेरिकी संविधान नहीं देता। इस मामले में मिसौरी समझौता निरर्थक है। गुलाम तो सम्पत्ति मात्र हैं। कांग्रेस को कोई हक नहीं है कि वह उन्हें मुक्त कर सके।"
जज के इस फैसले पर गौर करें तो पता लगता है कि यह पूरी तरह लिंकन के विचारों के विपरीत खड़ा है। इस फैसले से दो वर्ष पहले लिंकन यह विचार प्रकट कर चुके थे कि दास एक व्यक्ति है, वस्तु नहीं और वह सब अमेरिकावासियों से वैसी ही सहानुभूति का हकदार है जैसी कि मनुष्य मनुष्य के साथ करता है।
विचार जीते पर लिंकन हार गए
1858 तक आते-आते लिंकन ने डगलस के मुकाबले अपनी धाक जमा ली थी। लिंकन के विचारों को सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे होते थे। दासों के प्रति लिंकन की सहानुभूति तेजी से चर्चा में आ गई थी, इसलिए उनके पक्ष और विपक्ष में लोग खड़े होने लगे। जो पक्ष में खड़े थे, वे सहृदय और उदार थे। जो तनकर विरोध में खड़े हो गए थे। वे कट्टरपंथी थे।
गोरी चमड़ी वालों के विशेषाधिकार के प्रति उनका रुख इतना सख्त था कि वे काले लोगों को अपनी ही तरह भावनाओं और विचारों वाले मनुष्य मानने को तैयार नहीं थे।
सीनेट की सदस्यता के लिए डगलस ने डेमोक्रेटिक पार्टी के टिकट पर बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी। रिपब्लिकन पार्टी ने बहुत सोच-समझकर अब्राहम लिंकन को अपना प्रत्याशी बनाया।
लिंकन को प्रत्याशी बनाए जाने पर खुशी व्यक्त करते हुए डगलस ने कहा – “मेरी जीत सुनिश्चित है। यह ठीक है कि लिंकन अपनी पार्टी में अब चोटी का नेता है, उसके अंदर अच्छी प्रतिभा भी है, उसे तथ्यों की बहुत जानकारी है और आज की तारीख में वह पश्चिमी अमेरिका का सबसे अच्छा वक्ता बनकर उभरा है, परंतु फिर भी वह मुझे नहीं हरा पाएगा।"
डगलस और लिंकन के बीच सात बार धमाकेदार भाषणबाजी हुई। ओटावा में दोनों को सुनने के लिए 10 हजार श्रोता एकत्रित हुए, फ्रीफोर्ट में 15 हजार, चार्ल्स ट्रॉन में 12 हजार। लिंकन के आगे बैंड-बाजे वाले चलते थे। आतिशबाजी के दिलकश नजारे होते थे। छ: घोड़ों की बग्घी पर बैठकर लिंकन ने समर्थकों के जुलूस का नेतृत्व किया। लिंकन के भाषणों को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे। भाषण के बाद उनके विचारों पर ढाबों में, जलपान ग्रहों तथा अन्य जन-स्थलों पर चर्चाएं हुआ करती थीं। अखबार उनके विचारों से भरे रहते थे।
पूरे चुनाव अभियान के दौरान लिंकन ने डगलस को बुरी तरह पछाड़ दिया था। लोग यह मानने लगे थे कि डगलस चुनाव हार जाएगा। लिंकन को कोई नहीं हरा सकता।
परंतु फिर भी इस चुनाव में लिंकन हार गए और डगलस को 8 वर्ष बाद फिर से सीनेट का सदस्य चुन लिया गया।
अपनी हार की समीक्षा करते हुए लिंकन ने कहा था– "यह ठीक है कि मैं सीनेट का चुनाव हार गया हूं। परंतु मुझे बड़ी खुशी है कि चुनाव प्रचार के बहाने मुझे दास प्रथा पर खुलकर बोलने का अवसर मिला। यदि मैं यह चुनाव न लड़ा होता तो शायद दासों के हित में बोलने का इतना अच्छा अवसर मुझे कभी नहीं मिल पाता।
यह हार अंत नहीं है, यह तो एक छोटी-सी शुरुआत है। अपने चुनाव अभियान के दौरान मैंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात समझ ली है। लोगों को, देश को अब मेरी तरह साफ ढंग से बात कहने वालों की जरूरत है। अतः मैंने यह फैसला ले लिया है कि अब मैं वकालत के व्यवसाय को तुरंत समेट दूंगा और पूरी तरह खुलकर राजनीति में सक्रिय हो जाऊंगा।
मैंने जो बातें कही हैं, लोगों को वे बहुत पसंद आई हैं। लोग इतने कठोर हृदय हैं नहीं जितना स्वार्थ की राजनीति करने वालों ने उन्हें बना दिया है। मैंने स्वार्थ से ऊपर उठकर राजनीति में उतरने का संकल्प लिया है। गरीबों, शोषितों और दासता का त्रास झेलते इन असंख्य लोगों की बात को ऊपर तक पहुंचाने के लिए मैं अब पूरे मन से राजनीति करूंगा।"
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