समास

एकपदीभाव: : समासः – दो या दो से अधिक पदों का एक पद हो जाना समास कहलाता है; जैसे— गङ्गाजलम् (गङ्गायाः जलम्)।

समास

समास

एकपदीभाव: : समासः – दो या दो से अधिक पदों का एक पद हो जाना समास कहलाता है; जैसे— गङ्गाजलम् (गङ्गायाः जलम्)।
जिस वाक्य से समस्त पद के अर्थ का बोध होता है, उसे विग्रह कहते हैं। यहाँ समस्त पद ‘गङ्गाजलम्' का विग्रह – ‘गङ्गायाः जलम् (गंगा का जल) हुआ। समास में पूर्वपद की विभक्ति का लोप हो जाता है, अतः गङ्गायाः में भी षष्ठी विभक्ति का लोप होकर ‘गङ्गाजलम्' सामासिक पद निष्पन्न हुआ।
समास के मुख्य छह भेद हैं— 1. अव्ययीभाव, 2. तत्पुरुष, 3. कर्मधारय, 4. द्विगु, 5. बहुव्रीहि और 6. द्वन्द्व । इन समासों के अतिरिक्त नञ्, अलुक्, मध्यमपदलोपी आदि कई गौण समास भी होते हैं।

1. अव्ययीभाव समास

पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः - जिसका पहला पद प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। इसमें अव्यय पदों का सुबन्त पदों के साथ समास होता है। जैसे – उपनगरम् (नगरस्य समीपम् – नगर के समीप ) । यहाँ 'उप' अव्यय पद का 'नगर' सुबन्त पद के साथ समास हुआ है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।
प्रतिदिनम् (दिनं दिनं प्रति — प्रत्येक दिन) 
यथाशक्ति (शक्तिमनतिक्रम्य – शक्ति के अनुसार) 
उपकृष्णम् (कृष्णस्य समीपम् – कृष्ण के समीप) 
अनुरूपम् (रूपस्य योग्यम् — रूप में अनुकूल) 
अध्यात्मम् (आत्मनि अधि- आत्मा में) 
सचक्रम् (चक्रेण युगपत् — चक्र के साथ) 
निर्विघ्नम् (विघ्नानाम् अभावः – विघ्नों का अभाव) 
आजीवनम् (आजीवनात् – जीवनपर्यन्त)

2. तत्पुरुष समास

उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः - तत्पुरुष - - जिसमें उत्तरपद (पर) का अर्थ प्रधान हो, उसे समास कहते हैं। जैसे – राजपुत्रः (राज्ञः पुत्रः- - राजा का पुत्र ) । इस पद में पूर्वपद ‘राजा' प्रधान न होकर उत्तर (बादवाला) पद 'पुत्र' प्रधान है, इसलिए यह तत्पुरुष समास हुआ।
तत्पुरुष समास के छह भेद हैं- - द्वितीया तत्पुरुष, तृतीया तत्पुरुष, चतुर्थी तत्पुरुष, पञ्चमी तत्पुरुष, षष्ठी तत्पुरुष और सप्तमी तत्पुरुष । 
द्वितीया तत्पुरुष – जिसका पूर्वपद द्वितीयान्त हो, उसे द्वितीया तत्पुरुष कहते हैं। जैसे - 
शरणप्राप्तः (शरणम् प्राप्तः - शरण को प्राप्त करनेवाला) 
वेदविद्वान् (वेदम् विद्वान् – वेद को जाननेवाला) 
गृहगतः (गृहम् गतः - घर को गया हुआ) 
कल्पनातीतः (कल्पनाम् अतीतः - कल्पना को पार कर गया)
तृतीया तत्पुरुष – जिसका पूर्वपद तृतीयान्त हो, उसे तृतीया तत्पुरुष कहते हैं। जैसे - 
ज्ञानहीनः (ज्ञानेन हीनः - ज्ञान से हीन) 
पितृसमः (पित्रा समः – पिता के समान) 
सुखयुक्तः (सुखेन युक्तः – सुख से युक्त) 
अग्निदग्धः (अग्निना -आग से जला हुआ)
दग्धः चतुर्थी तत्पुरुष – जिसके पूर्वपद में चतुर्थी विभक्ति हो, उसे चतुर्थी तत्पुरुष कहते हैं। जैसे—
देशहितम् (देशाय हितम् – देश के लिए भलाई) 
कुण्डलहिरण्यम् (कुण्डलाय हिरण्यम् – कुण्डल के लिए सोना) 
पितृसुखम् (पित्रा सुखम् - पिता के लिए सुख) 
भूतबलिः [भूताय बलिः - भूत (जीव) के लिए बलि] 
पञ्चमी तत्पुरुष – पूर्वपद में यदि पञ्चमी विभक्ति हो, तो उसे पञ्चमी तत्पुरुष कहते हैं। जैसे—
सर्पभीतः (सर्पात् भीतः – साँप से डरा हुआ) 
चौरभयम् (चौरात् भयम् – चोर से भय ) 
गृहनिर्गतः (गृहात् निर्गतः - घर से निकला हुआ) 
स्वर्गपतितः (स्वर्गात् पतितः – स्वर्ग से गिरा हुआ) 
षष्ठी तत्पुरुष – जिसके पूर्वपद में षष्ठी विभक्ति हो, उसे षष्ठी तत्पुरुष कहते हैं।
अशोकवृक्षः (अशोकस्य वृक्षः – अशोक का वृक्ष) 
मूषिकराजः (मूषिकानाम् राजा – चूहों का राजा) 
सुखभोगः (सुखस्य भोगः – सुख का भोग) 
सूर्योदयः (सूर्यस्य उदयः – सूर्य का उदय) 
देवार्चनम् (देवानाम् अर्चनम् – देवताओं की पूजा) 
गङ्गाजलम् (गङ्गायाः जलम् – गंगा का जल)
सप्तमी तत्पुरुष– पूर्वपद में यदि सप्तमी विभक्ति हो, तो सप्तमी तत्पुरुष कहते हैं। जैसे–
रणवीरः रः (रणे वीरः - रण में वीर)
शोकमग्नः (शोके मग्नः - शोक में मग्न) 
 धर्मनिपुणः – (धर्म में निपुण) 
व्यवहारकुशलः (व्यवहारे कुशलः - -व्यवहार में कुशल)

3. कर्मधारय समास

विशेषणं विशेष्येण कर्मधारयः – -विशेषण और विशेष्य (जिसकी विशेषता बताई जाए) का तथा उपमान (जिससे उपमा दी जाती है) और उपमेय (जिसकी उपमा दी जाती है) का जो समास होता है, उसे कर्मधारय समास कहते हैं। जैसे—मधुरवचनम् (मधुरं वचनम्— मधुर वाणी) । यहाँ 'मधुरम्' विशेषण है तथा 'वचनम्’ विशेष्य।
इसके कुछ अन्य उदाहरण हैं— नीलोत्पलम् (नीलं उत्पलम्— नीला कमल), चपलबालकः (चपलः बालकः - चंचल बालक)। कृष्णसर्पः (कृष्णः सर्पः सर्प), महादेवः (महान् देवः - महा देव), सुंदरपुरुषः (सुंदरः पुरुषः - सुंदर पुरुष), महानदी (महती नदी – बड़ी नदी) ।
उपमान और उपमेय के कुछ उदाहरण – चन्द्रमुखम् (चन्द्र इव मुखम्– चन्द्र के समान मुख)। यहाँ 'चन्द्र' उपमान है तथा ‘मुखम्’ उपमेय। कुछ अन्य उदाहरण हैं—घनश्यामः [घन इव श्यामः -घन (मेघ) की तरह श्याम], नवनीतकोमलम् [नवनीतम् इव कोमलम् – नवनीत (मक्खन) की तरह कोमल], मुनिशार्दूलः (शार्दूलः इव मुनिः - शार्दूल के समान मुनि)।

4. द्विगु समास

संख्यापूर्वो द्विगुः – जिस समास में पूर्वपद संख्यावाचक हो, उसे द्विगु समास कहते हैं। जैसे—
त्रिफला (त्रयाणाम् फलानाम् समाहारः – तीन फलों का समूह ) 
पञ्चपात्रम् (पञ्चानाम् पात्राणाम् समाहारः - पाँच पात्रों का समूह) 
त्रिभुवनम् (त्रयाणाम् भुवनानाम् समाहारः - -तीन भुवनों का समूह ) 
दशाननः [दशानां आननानाम् समाहारः - दस आननों (मुखों) का समूह]
सप्तशती (शप्तानाम् शतानाम् समाहारः - सात सौ का समूह)

5. बहुव्रीहि समास

अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः - जिस समास में किसी पद (पूर्व या पर) का अर्थ प्रधान न होकर किसी अन्य पद का अर्थ प्रतीत हो, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसेलम्बोदरः (लम्बम् उदरं यस्य असौ – लम्बा है उदर जिसका, वह), अर्थात् गणेश। यहाँ न तो ‘लम्बम्’ का अर्थ प्रधान है और न ही 'उदरम्' का। इन दोनों से भिन्न इसका 'गणेश' अर्थ हो गया।
इसी प्रकार कुछ और उदाहरण हैं— पीतांबर: [ पीतम् अम्बरं यस्य असौ – पीत है अम्बर (वस्त्र) जिसका वह], अर्थात् विष्णु, चक्रपाणिः (चक्रं पाणौ यस्य सः -चक्र है हाथ में जिसके, वह), महात्मा ( महान् आत्मा यस्य सः - जिसकी आत्मा महान् हो, वह), जितेन्द्रियः (जितानि इन्द्रियाणि येन सः - जिसने इन्द्रियाँ जीत ली हैं, वह ), निर्भयः (निर्गतं भयं मात् सः - जिससे भय निकल गया हो, वह), महाशयः -  (महान् आशयो यस्य सः –  जिसका विचार महान् हो वह ) । 

6. द्वन्द्व समास

चार्थे द्वन्द्वः -'च' (और) के अर्थ में सुबन्त पदों का जो समास होता है, उसे द्वन्द्व समास कहते हैं। द्वन्द्व समास के सभी पद प्रधान होते हैं। जैसे – रामकृष्णौ (रामश्च कृष्णश्च इति रामकृष्णौ — राम और कृष्ण) – यहाँ राम और कृष्ण दोनों पद प्रधान हैं। द्वन्द्व समास में समास होने पर 'च' का लोप हो जाता है। 
द्वन्द्व समास के तीन भेद हैं – (i) इतरेतर, (ii) समाहार एवं (iii) एकशेष।
(i) इतरेतर द्वन्द्व
इतरेतर द्वन्द्व में पदों के वचन के अनुसार ही वचन तथा अंतिम पद के लिंग के अनुसार ही समस्त पद का लिंग होता है। जैसे - 
रामः च लक्ष्मणः च- रामलक्ष्मणौ (राम और लक्ष्मण) 
दिनं च रजनी च – दिनरजन्यौ (दिन और रात ) 
हरिः च हरः च — हरिहरौ (हरि और हर) 
माता च पुत्रः च—मातापुत्रौ (माता और पुत्र) 
गुरुः च शिष्यः च— गुरुशिष्यौ (गुरु और शिष्य) 
सुखं च दुःखं च – सुखदुःखे (सुख :खे (सुख और दुःख) 
फलं च पुष्पं च पत्रं च – फलपुष्पपत्राणि (फल, फूल और पत्र)
(ii) समाहार द्वन्द्व
समाहार द्वन्द्व में दो या उससे अधिक पदों के समाहार (समूह, सम्मिलित रूप) का बोध होता है। प्राणी, बाघ और सेना के अंग-संबंधी शब्दों में समाहार द्वन्द्व होता है। समाहार द्वन्द्व एकवचनान्त और नपुंसकलिंग होता है। जैसे—
हस्तौ च पादौ च तेषाम् समाहारः  - हस्तपादम् (दोनों हाथ और दोनों पैर)
मृदंगः च पटहः च तयोः समाहारः  - मृदंगपटहम् (मृदंग और नगाड़ा) 
धनुः च शरः च अनयोः समाहारः - -धनुः शरम् (धनुष और तीर) 
गङ्गा च शोणः च तयोः समाहारः – गङ्गाशोणम् (गंगा और शोण)
काशी च प्रयागः च तयोः समाहारः – काशीप्रयागम् (काशी और प्रयाग)
(iii) एकशेष द्वन्द्व
जिस द्वन्द्व समास में दो या उससे अधिक पदों में एक शेष रह जाए तथा अन्य पदों का लोप हो जाए, उसे एकशेष द्वन्द्व कहते हैं। जैसे—
बालकः च बालकः च - बालकौ
लता च लता च – लते 
फलं च फलं च - फले 
देवः च देवः च देवः च – देवः
माता च पिता च–पितरौ - देवाः 

अलुक् समास

जिस समास के पूर्व पद में विभक्ति का लोप नहीं होता, उसे अलुक् समास कहते हैं। जैसे - 
आत्मनेपदम्, दूरादागतः (दूर से आया हुआ) 
देवानाम्प्रियः (मूर्ख), वनेचरः, युधिष्ठिरः
उपर्युक्त उदाहरणों में आत्मने, दूरात्, देवानाम्, वने तथा युधि में विभक्ति का लोप नहीं हुआ है।

मध्यमपदलोपी समास

जिस समास में मध्यम (बीच वाला) पद का लोप हो जाए, उसे मध्यमपदलोपी समास कहते हैं। जैसे— सिंहासनम् (सिंहचिह्नितं आसनम् – इसमें 'चिह्नितम्’ मध्यम पद का लोप हो गया है। इसी प्रकार - देवब्राह्मणः (देवपूजकः ब्राह्मणः – देवपूजक ब्राह्मण)। छायातरुः (छायाप्रधानः तरुः ) – छायाप्रधान पेड़। व्यर्थः (विगतः अर्थः यस्मात् सः) — अर्थहीन, बेकार । पर्णकुटी (पर्णैः निर्मिता कुटी) – झोपड़ी । विन्ध्यगिरिः (विन्ध्यनामा गिरिः) – विन्ध्याचल । 
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