इतिहास का क्षेत्र

इतिहास का क्षेत्र

इतिहास का क्षेत्र

आदिकाल से आधुनिककाल तक इतिहास क्षेत्र का स्वरूप निरन्तर परिवर्तनशील रहा है. उसके विकसित स्वरूप का एकमात्र आधार विभिन्न युगों के सामाजिक मूल्य तथा उनकी सामाजिक आवश्यकताएँ रही हैं. इतिहास के क्षेत्र के अन्तर्गत जब इतिहासकार किसी घटना का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करता है तो उसके समक्ष तीन प्रमुख प्रश्न होते हैं—घटना क्या है, वह कैसी घटी तथा क्यों घटी ? इतिहास के क्षेत्र के अन्तर्गत मनुष्य के एक साधारण कार्य से लेकर उसकी विविध उपलब्धियों का वर्णन होता है.
यद्यपि प्रकृति का अध्ययन इतिहास - क्षेत्र के बाहर है, फिर भी इतिहास में प्रकृति की पूर्ण उपेक्षा नहीं है, क्योंकि वाल्श के अनुसार मनुष्य के कार्यों तथा उपलब्धियों पर प्रकृति अथवा प्राकृतिक घटनाओं का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है. अतः प्रकृति तथा भौगोलिक परिस्थितियों के परिवेश में ही मानवीय कार्यों एवं उपलब्धियों का अध्ययन इतिहास क्षेत्र के अन्तर्गत होना चाहिए.
आज का इतिहासकार इतिहास के किसी विशिष्ट विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता है. वह अपने ज्ञान से सम्बन्धित सामाजिक-आर्थिक विषय का उत्तर देता है. इतिहास - क्षेत्र का यह वर्गीकरण वैज्ञानिक युग की ही देन है, परिणामस्वरूप इतिहास का विभाजन केवल प्राचीन मध्ययुगीन तथा आधुनिक काल में किया जाता है. इसके अन्तर्गत अनेक छोटी-से-छोटी शाखाओं पर शोध करके इतिहासकारों ने विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है. इस प्रकार इतिहास का क्षेत्र निरन्तर विकसित होता जा रहा है.
> राजनीतिक इतिहास
राजनीतिक संस्थाएँ समाज का रंगमंच हैं, जहाँ महापुरुष अपने कार्यों को प्रदर्शित करते हैं. अशोक, अकबर, महात्मा गांधी, नेहरू आदि के कार्यों एवं उपलब्धियों का प्रदर्शन राजनीतिक रंगमंच पर ही हुआ है. इसमें प्रायः युद्ध, सन्धियों तथा क्रान्ति के नेतृत्व का विवरण मिलता है. इनमें तत्कालीन मानवीय समाज की इच्छा निहित रहती हैं तथा मानवीय कार्यों पर इसका व्यापक प्रभाव देखा गया है. अतीत सम्बन्धी महापुरुषों के कार्यों, उपलब्धियों, सफलताओं तथा असफलताओं से युगपुरुष शिक्षा ग्रहण करते हैं. प्रारम्भिक इतिहासकारों ने भी राजनीतिक इतिहास को ही महत्वपूर्ण समझकर इतिहास लेखन किया है. यह इतिहास की एक महत्वपूर्ण शाखा है.
बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इतिहासकारों ने अनुभव किया कि महापुरुषों की जीवनी के साथ सर्वसाधारण मानव समाज के योगदान का अध्ययन भी आवश्यक है, क्योंकि उनके सहयोग से ही महान् विभूतियों ने सफलता प्राप्त की है. अतः राजनैतिक इतिहास में उनके कार्यों का अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है. आधुनिक इतिहास में इसको सूक्ष्म इतिहास (Micro History) की संज्ञा दी गयी है.
> संवैधानिक इतिहास
इतिहासकारों (हैलम, कार्निवाल, लेविस, अर्सकीन, मैटलैण्ड) ने संवैधानिक इतिहास लिखकर इतिहास - क्षेत्र को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इन विद्वानों ने इसके अध्ययन की आवश्यकता अनुभव की, क्योंकि इसने जनसामान्य को प्रभावित किया है. मनुस्मृति, हम्बुरावी कोड, ऑफ नेपोलियन, मैकाले आदि का इण्डियन पेनल कोड का प्रभाव जनसामान्य पर पड़ा है.
> आर्थिक इतिहास
इस इतिहास के क्षेत्र को महत्वपूर्ण बनाने में कोंदर से, कॉम्टे, बर्कले तथा कार्ल मार्क्स का सर्वाधिक योगदान रहा है. समाज के प्रारम्भ के साथ ही आर्थिक इतिहास का उदय होता है. समाज ने अपनी आजीविका के साधनों को किस प्रकार उत्पन्न किया, इसका ज्ञान आर्थिक इतिहास प्रदान करता है. इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति के बाद इसका महत्व अधिक बढ़ गया है. जी. एन. क्लार्क के अनुसार, “वर्तमान युग में आर्थिक इतिहास ने इतिहास के क्षेत्र के अन्तर्गत एक उच्च स्थान प्राप्त कर लिया है."
सर विलियम ऐश्ले के अनुसार, आर्थिक विचार स्वयंमेव ऐतिहासिक तथ्य होते हैं. आर्थिक इतिहास के क्षेत्र में मनुष्य के कार्यों को प्रभावित करने वाले विचार, समाज का उद्देश्य, विभिन्न सामाजिक वर्गों का पारस्परिक सम्बन्ध इतिहास का विषय होता है. इतिहासकारों का प्रयास यह देखना होता है कि आर्थिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप किस प्रकार सामाजिक सम्बन्धों तथा मानवीय व्यवहार में परिवर्तन होते रहे हैं. आजकल व्यावसायिक इतिहास का भी प्रचलन बढ़ता जा रहा है. पूँजीपतियों के विकास का भी इतिहास होता है. बैंकों का विकास भी इतिहास क्षेत्र के अन्तर्गत आता है.
इस प्रकार आर्थिक इतिहास के क्षेत्र के अन्तर्गत आजीविका के साधन, कृषि, यातायात के साधन, उद्योग, व्यापार, भू-राजस्व आदि विषयों का अध्ययन होता है.
इतिहास को अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि गणित तथा संख्यिकीय सिद्धान्तों का कम-से-कम प्रयोग किया जाये, वरना ये इतिहास को अरुचिकर बना देंगे.
> सामाजिक इतिहास
इतिहास का विकास व्यक्तियों तथा राष्ट्रों से नहीं, बल्कि विभिन्न युगीन समाजों से हुआ है. अतः इतिहास की आधारशिला समाज है. सामाजिक इतिहास को सर्वाधिक लोकप्रिय बनाने का श्रेय एकमात्र ट्रेवेलियन को है. उनका विचार इस सन्दर्भ में सर्वाधिक ग्राह्य है.
बीसवीं सदी के अधिकांश इतिहासकारों का ध्यान सामाजिक इतिहास ने आकृष्ट किया है. सामाजिक समस्याओं के प्रति चेतना ने इतिहास के क्षेत्र में क्रान्तिकारी रुचि पैदा कर दी है.
यद्यपि इसका अध्ययन रोचक है परन्तु इसकी निरन्तरता, मन्द गति तथा परिवर्तन का अध्ययन अत्यन्त ज़टिल है. भारतीय समाज का मूल स्वरूप आज भी वही है, जैसा कि गौतम बुद्ध तथा महावीर स्वामी के समय में था. समाज-सुधारकों ने इसके परिवर्तन (समाज-सुधार) के लिए अथक् प्रयास किये लेकिन फिर भी समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं आ पाया. अगर कुछ परिवर्तन आया भी है तो भूमिगत जलस्रोत की भाँति इसकी गति इतनी मन्द और अगोचर रही है कि इसका सूक्ष्म निरूपण कठिन प्रतीत होता है फिर भी इस इतिहास क्षेत्र के अन्तर्गत इसके निरूपण का प्रयास किया गया है.
> राजनयिक इतिहास
19वीं सदी के प्रारम्भ में इतिहासकारों ने इस क्षेत्र के अन्तर्गत इतिहास लेखन की आवश्यकता अनुभव की. इसमें राष्ट्रों के पारस्परिक सम्बन्धों का विवरण रहता है. इस क्षेत्र का अध्ययन आलोचनात्मक विधि से किया जाना चाहिए.
> सांस्कृतिक इतिहास
ये सामाजिक इतिहास का अभिन्न अंग है. इसके अन्त र्गत रीति-रिवाज, संस्कार, आमोद-प्रमोद, शिक्षण- साहित्य, वास्तुकला, चित्रकला, संगीत साधन आदि का विवरण रहता है. इसके अध्ययन को सरल बानने के लिए इतिहासकारों ने इसे प्राचीन, मध्ययुगीन तथा आधुनिक काल में विभक्त किया है.
> धार्मिक इतिहास
इतिहास का यह अत्यन्त रोचक विषय है जिसकी इतिहासकारों ने धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर अधिकाधिक चर्चा की है. ये इतिहास विभिन्न युगों में लिखा गया है.
> औपनिवेशिक इतिहास
औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् यूरोप के राष्ट्रों ने कच्चे माल की प्राप्ति के लिए एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी व उत्तरी अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये. इनमें प्रतिस्पर्धा भी हुई जिससे अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति तनावपूर्ण हो गई और कई बार युद्ध की स्थिति भी उत्पन्न हो गई. इन समस्याओं ने इतिहासकारों का ध्यान आकृष्ट किया और औपनिवेशिक इतिहास लेखन ने इतिहास - क्षेत्र के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया.
> संसदीय इतिहास
फासीवाद तथा साम्यवाद के प्रतिरोध में अनेक इतिहासकारों ने संसदीय व्यवस्था की उपादेयता को सिद्ध करने के लिए संसदीय इतिहास लिखना प्रारम्भ किया. इन्होंने विश्वव्यापी मानवीय समाज के कल्याण के लिए संसदीयव्यवस्था की उपादेयता को सिद्ध किया है.
> सैनिक इतिहास
अनेक राज्यों के उत्थान तथा पतन के पीछे सैनिक कारण निर्णायक रहे हैं. इसके अन्तर्गत वायुसेना, स्थलसेना व जलसेना के लिए अस्त्र-शस्त्र का निर्माण और उसके प्रयोग का अध्ययन किया जाता है.
> विचारों का इतिहास
डेवी व कालिंगवुड ने समस्त इतिहास को विचार का इतिहास स्वीकार किया है, क्योंकि मानवीय कार्यों का यह उद्गम स्थल है और मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित तथा बाध्य करता है, परिणामस्वरूप समस्त इतिहास विचार - प्रधान होता है.
> इतिहास - दर्शन
इतिहास-दर्शन के दो स्वरूप हैं— आलोचनात्मक इतिहास-दर्शन एवं चिन्तन-शक्ति इतिहास-दर्शन. आलोचनात्मक इतिहास-दर्शन विश्लेषणात्मक चिन्तन-शक्ति इतिहास दर्शन औपचारिक तथा अर्थवादी है. पहले का उद्देश्य इतिहास विज्ञान का विश्लेषण तथा तार्किक खोज है. दूसरे चिन्तन शक्ति इतिहास - दर्शन की दिशा इतिहास की घटनाओं में विशेष महत्त्वपूर्ण अर्थ का अन्वेषण होता है.
निष्कर्ष – इन विभाजनों का कोई अन्तिम स्वरूप नहीं है, इतिहास का कालिक विभाजन यद्यपि महत्वपूर्ण है, परन्तु इतिहासकारों को विशिष्ट दक्षता के परिवेश में अपने को बन्दी नहीं बनाना चाहिए. रेनियर ने स्पष्ट लिखा है कि "किसी क्षेत्र की ऐतिहासिक दक्षता इतिहास का शत्रु है."
इतिहास की विशिष्ट दक्षता के साथ-साथ सामान्य इतिहास का अध्ययन तथा लेखन करना चाहिए. वर्तमान समाज इतिहासकारों से यही अपेक्षा करता है.
> विषयवस्तु
प्रारम्भिक इतिहासकारों ने घटना मात्र को ही इतिहास की विषयवस्तु माना है. पुनर्जागरण आन्दोलन के पश्चात् इतिहास की विषयवस्तु का स्वरूप विस्तृत होता गया. निरन्तर परिवर्तित स्वरूप का एकमात्र कारण सामाजिक मान्यताओं तथा मूल्यों में परिवर्तन रहा है लेकिन जब इतिहासकारों ने घटना का सम्बन्ध मानवीय मस्तिष्क के साथ किया तो इतिहास दर्शन का गूढ़ विषय बन गया.
प्रमुख रूप से इतिहास विषयवस्तु के सम्बन्ध में दार्शनिक तथा व्यावसायिक अवधारणाएँ हैं.
> इतिहास विषयवस्तु की दार्शनिक अवधारणा
कालिगवुड ने इतिहस की विषयवस्तु उसे (विचार प्रक्रिया) माना है. जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के मस्तिष्क में हो सके. इनका मानना है कि ऐतिहासिक चिन्तन अनुभव तथा चेतना नहीं, बल्कि प्रतिबिम्बित विचार होता है. इस प्रकार प्रतिबिम्बित विचार ही इतिहस का विषयवस्तु होता है. इसके अलावा प्रत्येक परावर्तित क्रिया उद्देश्यपूर्ण होती है. इसी को इतिहास का विषयवस्तु कह सकते हैं..
हीगल के अनुसार इतिहास का विषयवस्तु समाज तथा राज्य है.
इस प्रकार इतिहासकार विषयवस्तु की गवेषणा में प्रत्येक घटना के बाह्य तथा आन्तरिक स्वरूप की विवेचना करता है. बाह्य स्वरूप के अन्तर्गत शारीरिक गतिविधियों का व आन्तरिक स्वरूप में विचार का अध्ययन होता है. इतिहासकार कार्यों के परिवेश में विचार को समझता है, क्योंकि सभी इतिहास विचारों का इतिहास होते हैं.
> इतिहास विषयवस्तु सम्बन्धी इतिहासकारों का दृष्टिकोण
इनसे भिन्न इतिहासकार प्रत्येक युग की सामाजिक आवश्यकतानुसार विषयवस्तु का निश्चय करता है. रेनियर ने इसकी विषयवस्तु को अतीत सम्बन्धी कहानी का प्रस्तुतीकरण माना है तो पिरेन ने इसे समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों व उपलब्धियों की कहानी, रोड्स ने इसे समाज के सभी पक्षों का वर्णन माना है.
उन्नीसवीं सदी के इतिहासकारों ने इसे मनोविनोद का साधन माना तो बीसवीं सदी के इतिहासकारों ने इसके आलोचनात्मक व वैज्ञानिक विधाओं के अनुसार प्रस्तुतीकरण पर जोर दिया.
यही कारण है कि इतिहास की विषयवस्तु के स्वरूप में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है. इसका स्वरूप सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है.
अन्त में हम कह सकते हैं कि इतिहास की विषयवस्तु युग तथा सामाजिक आवश्यकताओं की देन होती है. इसका स्वरूप युग रुचि तथा समसामयिक सामाजिक आवश्यकता के. अनुसार परिवर्तित होता रहेगा.
> इतिहास का उपयोग व अनुप्रयोग
किसी भी विषय का उपयोग तथा दुरुपयोग उसके कार्यान्वयन पर निर्भर करता है. इतिहास मानव समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है मगर जब महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों ने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए इसका दुरुपयोग किया तो यह अनुपयोगी सिद्ध हुआ.
> उपयोग
प्रो. शेक अली ने कहा है – इतिहास की उपेक्षा करने वाले राष्ट्र का कोई भविष्य नहीं होता. अतः एक राष्ट्र के उत्थान व विकास के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक है.
(1) शिक्षाप्रद – सामान्यीकरण के आधार पर इतिहास शिक्षाप्रद होता है. यही कारण है, इतिहास में अशोक, अकबर, गांधी तथा नेहरू का अध्ययन किया जाता है. इसीलिए बेकन ने कहा है कि इतिहास मनुष्य को विवेकपूर्ण बनाता है. इस प्रकार इतिहास इस दृष्टि से हमारे लिए शिक्षाप्रद है कि हम अतीत के उदाहरणों द्वारा विवेक प्राप्त कर वर्तमान में हमारी इच्छाओं व कार्यों का मार्गदर्शन कर सकें.
(2) मानवीय समाज में उपयोगिता – इतिहास हमें मानवीय क्रमिक समाज का ज्ञान प्रदान करता है. समाज के स्वरूप, विकास, विचारधाराओं का पारस्परिक संघर्ष, मानवीय स्वभाव तथा मानव प्रगति का विवरण इतिहास में मिलता है.
(3) व्यावसायिक उपयोगिता – इस दृष्टिकोण से भी इतिहास की अपनी उपादेयता है क्योंकि इसके माध्यम ही प्रशासक व अन्य सामाजिक तथा मानवीय समस्याओं को समझने में सहायता मिलती है.
(4) परराष्ट्रीय सेवायें – परराष्ट्र (विदेश) मन्त्रालय के सचिवों, उच्चाधिकारियों एवं परराष्ट्र मन्त्री के लिए इतिहास का ज्ञान आवश्यक है. अनेक ऐसे मन्त्रियों या राजदूतों का नाम गिनाया जा सकता है जिनको ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव के कारण कूटनीतिक विफलता का सामना करना पड़ा.
(5) मनोरंजन की उपयोगिता — डेविड ह्यूम के अनुसार यह उपन्यास से भी अधिक रोचक है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के पूर्व इतिहास साहित्य की शाखा रहा है. पाठक इसके द्वारा आनन्द प्राप्त करता है. अतः
(6) शैक्षणिक उपयोगिता - इतिहास सभी विषयों में एकता स्थापित करने का एक सारांशयुक्त विषय है, यह मनुष्य को बुद्धिमान, परिपक्व तथा अनुभवी बनाने वाला अत्यन्त उपयोगी विषय है.
> इतिहास का दुरुपयोग ( अनुपयोग )
कोई वस्तु स्वयंमेव अनुपयोगी नहीं होती. सब कुछ मनुष्य के कार्यान्वयन पर निर्भर करता है. इतिहास की उपयोगिता सर्वमान्य है लेकिन जब महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों ने इसका अपने स्वार्थ के लिए दुरुपयोग किया यह अनुपयोगी हो गया. इतिहास की अनेक घटनाएँ इसको प्रमाणित भी करती हैं. उदाहरणार्थ – भारत व पाकिस्तान की शत्रुता को सदैव जीवित रखने का कारण इतिहास का दुरुपयोग ही रहा है.
हम कह सकते हैं कि इतिहास की उपयोगिता असंदिग्ध है, लेकिन महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों ने उसका दुरुपयोग कर इसे मानव समाज के लिए अनुपयोगी बना दिया है, परन्तु अपने इतिहास को भुलाने वाले राष्ट्र का कोई भविष्य नहीं होता.
इतिहास में वस्तुनिष्ठता (Objectivity in History)
विज्ञान ने मानव जाति के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में परिवर्तन कर शिक्षित समाज के धार्मिक एवं अन्तरिक्ष सम्बन्धी दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है. भौतिक विज्ञान की आश्चर्यजनक उपलब्धियों ने अर्द्ध-शताब्दी पूर्व अनेक इतिहासकारों को विचार-विमर्श के लिए बाध्य किया है. अन्य विधियों का परित्याग कर इतिहास को वैज्ञानिक उपादानों से बहिष्कृत किया जाये और उसके अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों तथा आदर्शों का प्रयोग किया जाय, जिससे निश्चय ही इतिहास की उपयोगिता एवं महत्त्व में वृद्धि होगी.
इस प्रकार आधुनिक विज्ञान की आश्चर्यजनक उपलब्धियों ने इतिहासकारों को विवश कर दिया कि वे इतिहास को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने के विषय में सोचें. बीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों के बीच इस गम्भीर समस्या पर तर्क-वितर्क प्रारम्भ हुआ. यूरोप के अधिकांश देशों विशेषकर जर्मनी के इतिहासकारों का ध्यान इस समस्या की ओर आकृष्ट हुआ. इंग्लैण्ड के सर्वप्रथम प्रोफेसर जे. वी. व्यूरी ने 1903 ई में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के सत्रारम्भ के अवसर पर अपने अभिभाषण में कहा था कि “इतिहास विज्ञान है न कम और न अधिक. इसका कारण बताते हुए उन्होंने पुनः कहा था कि “जब तक इतिहास को कला स्वीकार किया जायेगा तब तक इसमें यथार्थता तथा सूक्ष्मता का समावेश गम्भीरतापूर्वक नहीं हो सकेगा.” 
> वस्तुनिष्ठता का स्वरूप
वस्तुनिष्ठता किसी भी घटना - पूर्व इतिहास का वास्तविक एवं सत्य वर्णन है. इसका इतिहास की व्याख्या में प्रमुख स्थान माना जाता है क्योंकि वस्तुनिष्ठा के अभाव में कोई भी ऐतिहासिक घटना विश्वसनीय नहीं कही जा सकती है. घटना का वस्तुनिष्ठ वर्णन अनिवार्य है.
इतिहासकार प्रथम प्रकार के तथ्यों का आकलन करें, फिर स्वयं उसका शोध द्वारा वास्तविक अर्थ व स्वरूप ज्ञात करें तो वे अपने तथ्यों के ऐतिहासिक वर्णन में वस्तुनिष्ठता ला सकते हैं.
> ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता में बाधक तत्व
व्यक्तिगत ईर्ष्या, द्वेष वस्तुनिष्ठता का प्रथम बाधक तत्व होता है. अतीतकालीन घटनाओं का वर्णन एक इतिहासकार द्वेष, ईर्ष्या आदि दृष्टि विशेष से लिखता है. उसे सत्य मान लिया जाये तो उसका निष्कर्ष कदापि वस्तुनिष्ठता नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स, ए. जे. टॉयनबी व स्वेगलर आदि विद्वानों ने व्यक्तिगत दृष्टिकोण के आधार पर इतिहास की घटनाओं की व्याख्या की है.
आर्थिक विचारक कार्ल मार्क्स लिखते हैं कि “इतिहासकार एक सामाजिक प्राणी है, जिस पर धार्मिक वातावरण और समाज के संस्कार प्रभाव डालते हैं जिनसे वह पृथक् नहीं रह सकता है. इसलिए इतिहास को विज्ञान मानने वाले इतिहासकारों को समाज से बाहर रहकर ही ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता ढूँढ़नी चाहिए." मार्क्स के इस दृष्टिकोण से यह स्पष्ट होता है कि ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, पारसी, फ्रांसीसी तथा अमरीकन आदि इतिहासकार इसी कारण ऐतिहासिक घटनाओं पर परस्पर तीव्र मतभेद रखते हैं. ब्रिटिश इतिहासकार विश्व में आधुनिक युग का प्रारम्भ 1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति को मानते हैं, जो अमेरिकन स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद यानि कि 1784 ई. से प्रारम्भ होना मानते हैं. इसी प्रकार फ्रांसीसी इतिहासकार 1789 ई. की फ्रांसीसी राजक्रान्ति से मानते हैं.
इसी प्रकार इन इतिहासकारों के अलग-अलग विचार होने के कारण ही इतिहास में ऐतिहासिक एकनिष्ठा तथा वस्तुनिष्ठता में बाधा उत्पन्न होती है, जबकि इतिहासकारों का तथ्यात्मक साम्यहीन ऐतिहासिक विवरण वास्तविक और तथ्यों के आधार पर समान वर्णन नहीं कहा जा सकता.
इस दृष्टि से ऐतिहासिक व्याख्या में वस्तुनिष्ठता का सामान्यतः अभाव रहता है, क्योंकि जो भी इतिहास लिखा गया है अथवा लिखा जाता है, उसमें केवल तथ्यों के आधार पर ही व्याख्या नहीं होती, बल्कि इतिहासकार की व्यक्तिगत धारणा उसको शोधपूर्ण विचार और ज्ञान के आधार पर भी वर्णन तथ्यों के अलावा लिखा जाता है. इतिहास में इस प्रकार का ऐतिहासिक वर्णन एवं ऐतिहासिक व्याख्या वस्तुपूरक नहीं मानी जाती.
वस्तुनिष्ठता किसी भी ज्ञान का वह स्वरूप है जो केवल तथ्यों में दी गई जानकारी और विषय सामग्री के आधार पर इतिहासकार के द्वारा उस सम्बन्धित घटना का वर्णन किया जाये जिसमें कि इतिहासकारों की व्यक्तिगत विचारधारा का अभाव हो, ऐसी विचारधारा ही वस्तुनिष्ठ विचारधारा मानी जाती है.
> वस्तुनिष्ठता का अर्थ
वस्तुनिष्ठता का साधारण शब्दों में यह अर्थ माना जाता है कि किसी भी घटना और विषय का उससे सम्बन्धित तथ्यों का जिससे इतिहास सम्बन्धी जानकारी प्रदान की गई है और उसका इतिहासकार के द्वारा यथास्थिति और यथार्थपूर्ण वर्णन किया जाता है, वस्तुनिष्ठता कहलाता है. इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं.
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के बारे में प्रो. गैरो ने लिखा है कि "वस्तुनिष्ठता का अर्थ बिना व्यक्तिगत पक्षपातपूर्ण पूर्वाग्रह के ऐतिहासिक तथ्यों का प्रयोग करना है." अर्थात् इतिहासकार का मानना है कि जिस घटना का वर्णन तथ्यों के आधार पर किया जाय वह वर्णन इतिहासकार के व्यक्तिगत विचार और अनुमान रहित होना चाहिए.
इतिहास का स्वरूप प्रत्येक युग में बदलता रहता है और वह परिवर्तन ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता में बाधक हो जाता है. अतीत की घटनाओं पर प्रत्येक इतिहासकार समान रूप से समान मत प्रकट नहीं कर पाते हैं.
इतिहासकार अपने युग की आवश्यकतानुसार सोचता है व लिखता है; जैसे— दास प्रथा और साम्राज्यवाद इसका प्राचीन और मध्यकाल में समय की आवश्यकता माना जाता था, किन्तु वर्तमान काल के बदलते परिवेश में इसे समाज का अभिशाप माना जाता है. इस सामाजिक वातावरण में आई जागृति भी इतिहास-लेखन में ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए अवरोध बन गयी है. 
जनश्रुतियों अथवा किंवदन्तियों को भी प्राचीनकाल के समाज व इतिहास में एक ऐतिहासिक तथ्य स्वीकार किया गया था, किन्तु आज उन्हें अनैतिहासिक कहकर उपेक्षित किया जाता है. इसी प्रकार वर्तमान ऐतिहासिक तथ्य एवं प्रमाण भविष्य में अमान्य हो सकते हैं; जैसे–सिंहासन बत्तीसी, बेताल की कथाएँ आदि प्राचीन समय में ऐतिहासिक सत्य मानी जाती थीं, किन्तु धीरे-धीरे इनका महत्त्व घटने के कारण वर्तमान में इन्हें एक कपोल कल्पित शिक्षाप्रद कहानियाँ माना जाता है. ऐसी परिस्थितियों में इतिहास में वस्तुनिष्ठता लाना सम्भव नहीं हो पाता है.
मैडल धाम और कार्ल मार्क्स आदि इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान में सामाजिक आवश्यकता, व्यक्तिगत रुचि और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर ही इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों का चुनाव करते हैं, ऐसी परिस्थिति में उनसे वस्तुनिष्ठता की अपेक्षा नहीं की जा सकती. जैसे कि इतिहासकार फारुकी ने सम्राट् औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति की प्रशंसा की है तो सर जदुनाथ सरकार ने नहीं.
तथ्यों के चयन हेतु प्राप्त इस प्रकार का अधिकार भी वस्तुनिष्ठता में बाधक होता है और इतिहास में व्यक्तिगत भावनाओं को प्रधानता देने का तात्पर्य ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा करना है. इससे इतिहासकार अपनी भावनाओं के अनुकूल इतिहास को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का प्रयास करता है.
जैसा कि इतिहास पुनर्रचना प्रत्येक युग की सामाजिक आवश्यकता होती है और इतिहास की निरन्तर पुनर्रचना इस आवश्यकता का परिणाम है. प्रो. पी. गार्डनर लिखते हैं कि सामाजिक आवश्यकता का कोई मापदण्ड नहीं होता है. इसलिए एक ही ऐतिहासिक तथ्य की उपयोगिता तथा अनुपयोगिता विभिन्न युगों में बदलती रहती है. मानव-जीवन की रुचियाँ तथा निहित स्वार्थ का स्वरूप भी प्रत्येक युग में बदलता रहता है. ऐसी स्थिति में उसमें समता तथा एकता की आशा करना एक महान् भूल है. इस प्रकार एक युग का इतिहास दूसरे युग से भिन्न होता है क्योंकि युग के समाज की आवश्यकताएँ इतिहासकार के लेखन पर प्रभाव डालती है, जिससे इतिहास में विभिन्नता होना अवश्यम्भावी है.
नेपोलियन बोनापार्ट की साम्राज्यवादी नीति का विरोध यूरोप के विकसित होते राष्ट्रवाद ने किया.
इटली और जर्मनी का एकीकरण राष्ट्रवाद का ही परिणाम है परन्तु 20वीं शताब्दी में उग्र राष्ट्रवाद प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना. अतः इटली के प्रमुख इतिहासकार क्रोचे और ब्रिटेन के प्रोफेसर ई. एच. कार ने भी इतिहास लेखन में समसामयिक समाज की आवश्यकताओं के प्रभाव को प्रमुख माना है, जो ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता को ही बाधा देती है.
प्रोफेसर सीलर 'Our human truth' में ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता को एक परिकल्पना और एक जटिल समस्या मानते हैं क्योंकि इतिहास लेखन एक अन्तर्चेतना का विषय है, जिस पर व्यक्तिगत भावनाओं का प्रभाव अवश्य पड़ता है.
इस प्रकार इतिहास के लेखन को समसामयिक समाज, संस्कृति और वातावरण प्रभावित करते हैं. उसकी रचना में युग की अभिव्यक्ति स्वतः ही हो जाती है, उस समाज की संस्कृति ही उसके दृष्टिकोण को निर्धारित कर उसके लेखन में उसकी सहायता करती है.
टेवलियन जैसे विद्वान् इतिहासकार प्रेम और सहानुभूति जैसी मानवीय प्रवृत्तियों को स्वाभाविक मानते हैं, क्योंकि वह अपनी तथा अपने समाज की रुचियों के सन्दर्भ में अतीत के कार्यों व उपलब्धियों का दर्शन करता है. इसलिए इसका प्रस्तुतीकरण विषयनिष्ठ होता है, वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता है.
इतिहास का स्वरूप रचनात्मक होता है, जो ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की समस्या है. एक इतिहासकार अतीत की सम्पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकता. वह अतीत के किसी एक पक्ष का चयन कर उसकी व्याख्या करता है. चयन का यह अधिकार ही उसे पूर्वाग्रही बना देता है. इसी कारण से इतिहासकार एक ही घटना का अलग-अलग ढंग से वर्णन करते हैं.
पूर्वाग्रह के कारण ही इतिहासकार अपने मत को पुष्ट करने के लिए अधिक-से-अधिक तथ्यों को जुटाते हैं, जो ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए बाधा है.
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता में धर्म और जाति जैसे तत्व भी कठिनाई उत्पन्न करते हैं. इतिहासकार धार्मिक तथा जातीय आग्रहों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता तथा वह तथ्यों को तोड़-मरोड़ देता है. यह मतभेद हमें प्रोटेस्टेंट व कैथोलिक, अरब तथा यहूदी इतिहासकारों में स्पष्ट दिखाई देता है.
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता में विभिन्न राजनैतिक दलों के सिद्धान्त भी अड़चन उत्पन्न करते हैं. इतिहासकार मार्क्सवाद, उदारवाद, पूँजीवाद, प्रजाजन्त्रवाद, राजतन्त्रवाद आदि सिद्धान्तों से प्रभावित होता है.
> ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता में सहायक तत्व
यद्यपि, वस्तुनिष्ठता इतिहास में एक जटिल प्रश्न है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इतिहास का स्वरूप वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं सकता. इतिहास सम्बन्धी आचार और अनुशासन आदि इतिहास में वस्तुनिष्ठता को सम्भव बना सकते हैं.
प्रो. बटर फिल्ड का कहना है कि इतिहास में वस्तुनिष्ठता के समावेश के लिए पहले सामान्य इतिहास आदि शोधपूर्ण इतिहास के अन्तर को समझना चाहिए, सामान्य इतिहास साश्रित होता है, जिसे वह पक्षपातपूर्ण भावना से नहीं लिखता. अतः सामान्य इतिहास वस्तुनिष्ठ हो सकता है.
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए यह आवश्यक है कि उन इतिहासकारों की निन्दा की जाये, जो तथ्यों को तोड़मरोड़कर इतिहास को अपने विचारों का प्रचार-प्रसार बनाना चाहते हैं.
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए यह आवश्यक है कि इतिहासकार धार्मिक प्रभावों से दूर रहें क्योंकि वह समाज का प्रतिनिधि होता है. इसलिए उसे किसी समुदाय अथवा धर्म से प्रभावित समाज के छोटे वर्ग की संकीर्णताओं में नहीं पड़ना चाहिए.
> इतिहास में पक्षपात
1941 ई. में Historical Association के समक्ष भाषण देते हुए डॉ. क्रिटसन क्लार्क ने कहा था कि वे सदैव पक्षपात तथा निष्पक्षता के बीच मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हैं. उनका प्रयास विवादग्रस्त विषयों से अपने को दूर रखना है.
वर्तमान इतिहास लेखन में पक्षपात सर्वव्यापी है. बटरफील्ड के अनुसार सत्य है कि इतिहास में निष्पक्षता असम्भव है और इसकी प्राप्ति का दावा करना एक महानतम् भ्रान्ति है. किसी भी इतिहासकार द्वारा निष्पक्षता का दावा करना भूल है. इतिहास लेखन का प्रथम चरण विषय का चयन होता है. इतिहासकार का पक्षपात तो उसी समय स्पष्ट हो जाता है, जब वह अपनी रुचि तथा दृष्टिकोण के अनुसार विषय का चयन करता है. विषय के चयन के पश्चात् वह अपनी रुचि के अनुसार तथ्यों का चयन प्रारम्भ करता है. इस परिस्थिति में इतिहासकार से निष्पक्षता की आशा करना व्यर्थ है.
तथ्यों के चयन के सम्बन्ध में ई. एच. कार ने स्पष्ट लिखा है कि “ऐतिहासिक तथ्य मछली वाले की शिलापट्टी पर विभिन्न मछलियों की तरह होते हैं. इतिहासकार मछली रूपी ऐतिहासिक तथ्य अपनी रुचि के अनुसार खरीदता है. उसे घर लाकर अपनी इच्छा के अनुसार व्याख्या के मसाले में पकाकर उसका रसास्वादन करता है."
इस प्रकार व्यक्तिगत रुचि को इतिहास लेखन में प्रधानता देने का अभिप्राय पक्षपात का प्रतिरोपण करना है. ब्रिटिश तथा अमरीकन इतिहासकारों में समानता होते हुए भी अमेरिका के स्वतन्त्रता संग्राम सम्बन्धी तथ्यों के संकलन में दोनों देशों के इतिहासकारों ने अपने-अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण तथा व्यक्तिगत रुचि को प्रधानता दी है.
> इतिहास में पक्षपात के प्रमुख कारण
1. प्रत्येक इतिहासकार अपने समाज की उपज होता है. सामाजिक वातावरण का प्रभाव उसके मस्तिष्क पर जाता है. उसी के अनुरूप वह सोचता है तथा कार्य करता है. रेनियर का अभिमत है कि इतिहासकार अपने युग के व्यक्तियों को सम्बोधित करता है, जिसका वह स्वयं सदस्य होता है. यही नहीं उसकी कृतियों में समय तथा समाज की अभिव्यक्ति स्वयं होती है.
2. धर्म इतिहासकार की निष्पक्षता में बाधक होता है. हिन्दूमुस्लिम इतिहासकार, अरब-यहूदी इतिहासकार के लिए मतैक्य होना कठिन है क्योंकि धार्मिक दृष्टिकोण से वे एक-दूसरे को अपना शत्रु मानते हैं. अरब तथा यहूदी इतिहासकार किसी भी अप्रिय घटना के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं. इसका प्रमुख कारण उनमें द्वेषभाव है.
3. प्रो. ओकशाट के अनुसार, इतिहास लेखन इतिहासकार के पूर्वाग्रही विचारों का परिणाम होता है. प्रो. वाल्स ने भी स्पष्ट कहा है कि ऐतिहासिक तथ्यों का स्वरूप चयनात्मक होता है. इस प्रकार के चयन में इतिहासकार की व्यक्तिगत अभिरुचि निर्णायक होती है.
4. हाल्फेन ने पक्षपात की उपादेयता को सिद्ध किया है. यह इतिहासकार की सीमाओं का ज्ञान प्रदान करता है. बदायूँनी द्वारा अकबर की आलोचना पक्षपातपूर्ण है. इस प्रकार विद्यार्थियों को अवगत कराने के लिए इतिहासकार के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से भी एक लाभ है. यह इतिहासकार की सीमाओं का ज्ञान प्रदान करता है.
5. मनुष्य सामाजिक प्राणी है इतिहासकार का सम्बन्ध विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से रहता है, जैसेमार्क्सवादी, लिबरल, कैथोलिक, प्रोटेस्टेण्ट, पूँजीवादी, साम्यवादी, प्रजातन्त्रवादी, राजतन्त्रवादी इत्यादि.
6. जी. आर. एल्टन के अनुसार इतिहास मात्र घटना नहीं है, अपितु इतिहासकार जिसे लिखता है, उसी को इतिहास कहते हैं. मात्र तथ्यों का संकलन इतिहास को विश्वकोष बना देगा, इसलिए सर सी. पी. स्कॉट ने कहा है कि इतिहास में तथ्य प्रधान नहीं होता, बल्कि व्याख्या प्रधान होती है.
7. कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ इतिहासकारों को पक्षपातपूर्ण ॐ दृष्टिकोण अपनाने के लिए विवश करती हैं. इनसे पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को प्रोत्साहन मिलता है.
8. अन्त में द्वेष तथा निष्पक्षता के विषय में कहा जा सकता है कि इतिहास लेखन में निष्पक्षता का प्रतिरोपण एक कठिन समस्या है. बटरफील्ड का कथन यथार्थ
प्रतीत होता है कि "यह सत्य है कि इतिहास में निष्पक्षता असम्भव है और इसकी प्राप्ति का दावा करना तो एक महानतम् भ्रान्ति है."
> इतिहास में निष्पक्षता की अपेक्षा
1. इतिहासकार अतीत की घटनाओं का निष्पक्ष निर्णय देने वाला व्यक्ति होता है. यदि उसका निर्णय पक्षपातपूर्ण अथवा द्वेषपूर्ण होता है, तो ऐसे इतिहासकारों की •सार्वभौमिक निन्दा होनी चाहिए. इतिहासकार में द्वेष तथा पक्षपात की भावना उस समय आती है, जब वह भ्रमवश अपने को न्यायाधीश समझ लेता है.
2. सर सी. पी. स्कॉट ने लिखा है कि इतिहास में तथ्य कुछ नहीं होते, बल्कि व्याख्या ही सब कुछ होती है. इतिहास को व्याख्या प्रधान बनाने का अभिप्राय तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना है. तथ्यों को स्वयं बोलने का अवसर देना चाहिये. उसे व्याख्या में गलत बोलने के लिए विवश नहीं करना चाहिए.
3. जी. पी. गूच का कथन है कि इतिहास के मुद्रित पृष्ठों में इतिहासकारों के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है. इतिहास लेखन में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति उचित नहीं है, क्योंकि इतिहास काल्पनिक उपन्यास नहीं, अपितु तथ्य तथा साक्ष्यों पर आधारित रचना है.
4. इतिहास का अपना अनुशासन, नियम तथा सिद्धान्त होता है. इन नियमों, सिद्धान्तों तथा अनुशासन में आस्थागत इतिहासकार को ही इतिहास लेखन का चयन करना चाहिये. इतिहास लेखन की आचार संहिता इतिहास में निहित रहती है, इतिहासकार में नहीं.
5. दर्शन तथा आचारशास्त्र इतिहास लेखन का अंग नहीं है. प्रत्येक इतिहासकार स्वतन्त्र रूप से पैदा हुआ है. उसके माता-पिता एवं संस्कारों का प्रभाव उसके ऊपर पड़ता है. शिक्षा सम्बन्धी नियम उसे एक सीमा के अन्तर्गत कार्य करने के लिए विवश तथा बाध्य करते हैं.
6. आधुनिक इतिहास कोलम्बस रॉके ने भी इतिहास को व्यक्तिगत दृष्टिकोण से अलग रखने का प्रबल समर्थन किया है. इसीलिए उन्होंने अपनी कृतियों में कल्पना तथा अन्वेषण का परित्याग कर तथ्यों को अत्यधिक महत्व दिया.
7. द्वेष रहित तथा निष्पक्षता का सर्वोच्च आदर्श नेबूर ने प्रस्तुत किया है. गूच ने लिखा है कि उनकी आत्मा मधुमक्खी की भाँति है, क्योंकि उन्होंने हमारे समृद्धशाली युग के मधुत्व मात्र का ही संकलन किया है, विषत्व का कभी स्पर्श तक नहीं किया.
अन्य विषयों के साथ इतिहास का सम्बन्ध (Relation with other Subjects)
"History is the Central Social Science of which all others must feed. It is basic to the way that maths is basic to the natural sciences." – H. C. Darby
> भूगोल (Geography)
भूगोल ने हर देश के इतिहास को बनाया है.
किसी देश का लिखित इतिहास न होने पर उसके भूगोल से इतिहास का ज्ञान प्राप्त हो सकता है; जैसे— उत्तरी भारत में हिमालय पर्वतमाला होने के कारण सभी आक्रमण उत्तर-पश्चिम से हुए.
भारत के आन्तरिक भूगोल ने भी जनजीवन को प्रभावित किया.
बड़े-बड़े राजवंश भी गंगा-यमुना, दोआब, कृष्णा, गोदावरी का क्षेत्र सिन्ध के उपजाऊ क्षेत्रों में ही स्थापित हुए.
> अर्थशास्त्र (Economics)
मार्क्स व वेबर ने अर्थशास्त्र को प्रभावित किया. मार्क्स के अनुसार इतिहास का निर्माण पूँजीपति व श्रमिकों के संघर्ष के कारण होता है. रूसी क्रान्तियों से स्पष्ट हो गया कि अर्थशास्त्र, इतिहास को बनाने - बिगाड़ने में सहायक है.
यूरोपीय देशों ने अपने माल के विक्रय हेतु बाजार की खोज की, जिसके कारण एशिया व अफ्रीका के देश उनके उपनिवेश बन गये.
आधुनिक युग में भी सभी आन्दोलनों की जड़ अर्थशास्त्र है.
> समाजशास्त्र (Sociology)
मानव समाज का अध्ययन किये बिना इतिहास का अध्ययन अधूरा है.
आजकल समाजशास्त्र को Social Dynamic कहते हैं. जाति-प्रथा, विवाह, परम्पराएँ आदि की जानकारी Sociology से होती है.
इतिहास व समाजशास्त्र दोनों में मानव विकास का अध्ययन है.
अमीर खुसरो ने भी भारत के सामाजिक इतिहास की झलक प्रस्तुत की है.
अमीर खुसरो ने नूहे सिपेह में कश्मीर के बारे में लिखा है.
'तारीख-ए-फिरोजशाही में अफीफ कहता है कि जिस प्रकार खोटे सिक्के को कोई स्वीकार नहीं करता, वैसे ही नारी पर यदि कोई गलत लांछन भी लग जाए तो उसे कोई स्वीकार नहीं करता.
अबुल फजल ने 'आइने अकबरी' घर सामाजिक इतिहास लिखा है, इसके प्रथम अध्याय में रसोईघर के बारे में
> साहित्य (Literature)
जब इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों को संजोकर व्यक्त करता है, तो साहित्य की सहायता लेता है. इतिहास के तथ्यों को साहित्य द्वारा रोचक बनाया जा सकता है. अन्य ऐतिहासिक स्रोतों के अभाव में साहित्य ही इतिहास निर्माण में सहायता करता है. यदि इतिहास कला है, तो इसका साहित्य से गहरा सम्बन्ध है. उदाहरणार्थ- बरनी व्यंग्य में लिखता है कि, “अलाउद्दीन के समय तक एक ऊँट एक दाम में मिल जाता था, परन्तु समस्या यह थी कि दाम कहाँ से 
मिले. "
साहित्य का सर्वाधिक महत्व निम्नलिखित दो इतिहासकारों ने दिया है – 
1. Gibboon - "Decline & Fall of the Roman Empire".
2. Rnanke (German) का कहना था कि बिस्मार्क के दस्तावेजों पर विश्वास न करें, बल्कि इंग्लैण्ड के दूत ने जो दस्तावेज भेजे वे विश्वसनीय हैं. वह पहला व्यक्ति है जिसने पुरातत्व दस्तावेजों का महत्व बताया. थ्यूसिडाइडिस ने स्पार्टा एथेंस युद्ध की तिथि जानने हेतु दोनों पक्षों के सैनिकों से सम्पर्क किया.
> स्वतन्त्र विषय (Ordinary Subjects)
ऐसे विषय जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से निष्कर्ष निकाले और उन निष्कर्षों को इतिहास में काम में लिया जाता है.
Etigraphy — संस्कृत-फारसी.
1. Philosophy. 
2. Chronology.
3. Poleography ( पुराने लेखन का अध्ययन ).
4. Crrophalogy (मानव के हस्तलेखन के अध्ययन से चरित्र की जानकारी प्राप्त होती है).
5. Sigilography - चिह्न (देशभक्ति का प्रतीक). 
6. Diplomatic
7. Epigraphy (Inscription का अध्ययन ). 
8. Numismatics (सिक्कों का अध्ययन).
9. Archaeology.
> अपने विशेष अध्ययन में भारतीय इतिहास लेखन की आधुनिक धाराओं का परीक्षण कीजिए.
यह सत्य है कि समय के साथ-साथ इतिहास की रूपरेखा भी बदलती रहती है. यह परिवर्तनशीलता दोहरी है द्वारा एक ओर समय के साथ-साथ नई धाराएँ घटती हैं और वे इतिहास का हिस्सा बन जाती हैं तो दूसरी ओर पुरानी घटनाओं की भी नई-नई व्याख्याएँ, नए इतिहासकारों नए स्रोतों के आधार पर नई रुचियों एवं बदलते अनुभव के आधार पर की जा सकती है नित्य नए प्रयोग की बदलती सोच की वजह से इतिहास में अनेक आधुनिक धाराओं का समावेश हुआ, जो निम्नलिखित है—
(1) वर्तमान से जोड़ना—अब इतिहास लेखन करते समय अतीत का वर्णन वर्तमान समस्याओं एवं परिप्रेक्ष्य को आधार बनाकर किया जाता है, जबकि परम्परागत ऐतिहासिक लेखन में अतीत पर ही जोर दिया जाता था. इस प्रकार के अध्ययन से एक लाभ यह होता है कि हम इतिहास को अतीत, वर्तमान व भविष्य तीनों से जोड़कर किसी घटना का निष्कर्षात्मक व विश्लेषणात्मक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं.
(2) राजनीतिक इतिहास के स्थान पर सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक इतिहास लेखन पर जोर देना — इतिहास लेखन की आधुनिक धाराओं में यह प्रमुख है, क्योंकि परम्परागत इतिहास लेखन में रणनीति को इतना प्रमुख व महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है कि सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पक्ष बिलकुल अनछुए रह जाते हैं. फलतः हमारा अध्ययन सम्पूर्णतया नहीं ले पाता. अब राजनैतिक इतिहास के स्थान पर इतिहास के अन्य पक्षों पर भी जोर दिया जा रहा है. इतिहास के सभी पक्षों पर प्रकाश पड़ने से अब इसे ज्यादा रुचिकर बनाया जा सकता है.
(3) उपाश्रित इतिहास लेखन (सब-एल्टर्न थ्योरी) - परम्परागत इतिहास लेखन में सदैव उच्च वर्ग एवं इतिहास को ऊपर से ही देखने की कोशिश की गई हैं. उन्होंने शासक वर्ग, अमीर उलेमा वर्ग का या फिर राष्ट्रीय आन्दोलनों के महानायकों के जीवन व उनके ही कार्यों को ज्यादा प्रमुखता देते हुए उनके महत्व को रेखांकित किया है और सूक्ष्म अध्ययन से अपना मुँह मोड़ रखा है, किन्तु वर्तमान समय में प्रचलित उपाश्रित लेखन में इतिहास को नीचे से देखने पर जोर दिया जाता है.
(4) नारीवादी इतिहास लेखन- परम्परागत इतिहास लेखन में पुरुष प्रधानता की वजह से महिलाओं की भूमिका को नजरअन्दाज किया जाता रहा है, किन्तु वर्तमान में नारीवादी आधुनिक धारा का प्रचलन होने से इतिहास के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों की भूमिका का विश्लेषण किया जाता है. अभी तक स्वतन्त्रता संग्राम में नारी भूमिका पर इतना ज्यादा जोर नहीं दिया गया था, परन्तु वर्तमान में हो रहे अधिकांश शोध कार्यों व इतिहास लेखन में इस बिन्दु पर जोर दिया जा रहा है.
(5) श्रमिक इतिहास लेखन- आधुनिक धाराओं में यह भी है कि, वर्तमान इतिहास लेखन में पूँजीपति व धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग को भी महत्ता प्रदान की है. अब रचे जाने वाले इतिहास में यह माना जाने लगा है कि अर्थव्यवस्था के सफल संचालन हेतु पूँजीपतियों के साथ-साथ श्रमिकों का भी इतना ही योगदान रहता है.
(6) साम्राज्यवादी या राष्ट्रवादी इतिहास की बजाय मार्क्सवादी इतिहास लेखन- आधुनिक धाराओं से पूर्व के लेखन में मार्क्सवादी अर्थात् व्यक्तिवादी धारणा को इतना महत्व न था, जितना कि अब के इतिहास लेखन में.
(7) कृषक इतिहास लेखन – भारतीय इतिहास लेखन की आधुनिक धाराओं में यह देखने को मिलता है कि अब कृषकों पर भी बराबर का इतिहास रचा जाता है. पहले कृषकों को एक निम्न या गौण तत्व मानते हुए उन्हें केवल गौण महत्त्व का व्यक्ति माना जाता था और उनके द्वारा किए गए विद्रोहों एवं आन्दोलनों को इतना महत्त्व नहीं दिया गया, किन्तु अब आधुनिक इतिहास लेखन में उनकी महत्ता को स्वीकार किया गया है.
(8) अन्तर्विषयक उपागम – पूर्व के इतिहास लेखन की रचना में केवल ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन किया जाता और इतिहास की रचना कर दी जाती, किन्तु अब एक नई धारा का जन्म हुआ है, वह है – विषयों के मध्य अन्तर्सम्बन्ध यानि अब इतिहास को विदित समय उसका अन्य विषयों से तादात्म्य स्थापित किया जाता है. यही कारण है कि अब इतिहास में न केवल राजनीतिक घटनाओं का अपितु आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक, भौगोलिक आदि प्रश्नों का भी अध्ययन किया जाता है.
(9) शहरी इतिहास – आधुनिक धारा के इस बिन्दु के तहत इतिहास लेखन करते समय सभ्यता के विकास, नगरीकरण, शहरी उद्योग-धन्धे एवं जनसाधारण पर उसके प्रभाव आदि का अध्ययन किया जाता है, जबकि पूर्व के ऐतिहासिक लेखनों में इनकी महत्ता न थी.
(10) मौखिक इतिहास - वर्तमान इतिहास लेखन में इस प्रवृत्ति का बोलबाला है कि इतिहास में मौखिक तथ्यों तथा दृष्टान्तों का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग हो. ऐसा करने से पूर्व वर्तमान में लिखित इतिहास पूर्व के ऐतिहासिक लेखन से कहीं ज्यादा सार्थक व रुचिकर है.
> क्षेत्रीय इतिहास की प्रासंगिकता व सार्थकता की समीक्षा कीजिए. 
क्षेत्रीय इतिहास को अभी तक परम्परागत इतिहास लेखन में महत्ता न दिए जाने से इसका विकास अवरुद्ध था किन्तु अब इतिहास की आधुनिक धाराओं में क्षेत्रीय इतिहास को प्रमुखता दिए जाने पर ऐसे ऐतिहासिक लेखन में धीरेधीरे अभिवृद्धि हो रही है, जो इतिहास के समझने में ही लाभप्रद है. परम्परागत दृष्टिकोण में इतिहास लेखन राष्ट्रवादी स्वरूप में किया जाता था, जबकि अब क्षेत्रीयता का भी यानि विभिन्न क्षेत्रों का; जैसे— राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि का अलग-अलग वर्णन करने के - बाद सम्पूर्ण राष्ट्र का लेखन किया जाता है, जो निश्चित ही पूर्व की राष्ट्रवादी लेखन की अपेक्षाकृत कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है. परम्परावादियों के राष्ट्रीय इतिहास में क्षेत्रीय इतिहासों की अवहेलना कर देने से उनका महत्व गौण रूप से ही रह गया है और उनसे सम्बन्धित हमारा ज्ञान काफी सीमित रह गया है.
किन्तु जैसे-जैसे इतिहास लेखन को भी अवधान दिया गया और अब इतिहास को निम्न से उच्च स्तर की ओर लिखे जाने की शुरूआत की गई; जैसे— स्थानीय इतिहास, प्रान्तीय इतिहास, राष्ट्रीय इतिहास एवं विश्व इतिहास . इस प्रकार के इतिहास का क्रमिक इतिहासों के लेखन से उस राष्ट्रीय आधार मजबूत एवं सुदृढ़ होता है. इतिहास लेखन में क्षेत्रीय इतिहास लेखन की महत्ता को एक उदाहरण से अच्छी तरह स्पष्ट किया जा सकता है, जैसे- – उत्तर-पश्चिम सीमा नीति, जब हम भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित इस सीमा के क्षेत्रीय स्वरूप का विस्तृत अध्ययन नहीं कर लेंगे तब तक हम दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों व मुगल सम्राटों द्वारा उत्तर पश्चिम सीमा के प्रति अपनाई गई नीति को सही ढंग से समझ पाने में असमर्थ रहेंगे.
इसी प्रकार क्षेत्रीय इतिहास लेखन कितना महत्त्वपूर्ण होता है, इस बात को अकबर की नीतियों से समझा जा सकता है. अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति व धार्मिक नीति को तब तक हम भली-भाँति नहीं समझ सकते, जब तक कि हम राजस्थान के राजपूतों का इतिहास नहीं पढ़ लेते.
क्षेत्रीय इतिहास के अध्ययन के बाद ही हम यह जान सकते हैं कि अकबर द्वारा राजपूत नीति के अवलम्बन के अलावा क्या कारण था कि राजपूतों ने उसकी अधीनता स्वीकार की.
किन्तु क्षेत्रीय इतिहास लेखन करते समय सतर्कता बरतना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि ऐसा करते समय कई बार चूक व संकीर्णता के भाव उभर सकते हैं. चूँकि यदि क्षेत्रीय इतिहास की ज्यादा अभिवृद्धि होगी तो धीरे-धीरे संकीर्णता व क्षेत्रवाद का विकास होगा जो राष्ट्रवादी हितों के खिलाफ है.
प्रत्येक इतिहासकार अपने क्षेत्र के इतिहास को अन्य की बजाय महत्ता देते हुए उसे अन्य क्षेत्रों की अपेक्षाकृत विशिष्ट मानेगी, जिससे संकीर्णता के भावों का उदय होगा, जो राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के लिए उचित नहीं है.
> सभी इतिहास समकालीन इतिहास है
वस्तुतः इतिहास में दो विचारधाराएँ हैं— एक वस्तुवादी और दूसरा आदर्शवादी वस्तुवादी विचारधारा में तथ्यों को प्रधानता दी जाती है, जबकि दूसरी विचारधारा में तथ्यों की अपेक्षा इतिहासकार को महत्ता दी जाती है. उनका मानना है कि इतिहासकार ही अपनी बुद्धि-कौशल से इतिहास का निर्माण करता है. ऐतिहासिक तथ्य वे तथ्य होते हैं जिनको इतिहास चुनता है या जिनका ऐतिहासिक महत्त्व होता है. कुछ तथ्य तो सभी इतिहासकारों के लिए समान होते हैं. बाकी तथ्यों को ऐतिहासिक होना या न होना इतिहासकार के दृष्टिकोण व प्रभाव के आधार पर होता है. 19वीं सदी तक 'तथ्य सम्प्रदाय' की महत्ता थी और उस पर हमला बोलने वालों पर ध्यान नहीं दिया जाता था, किन्तु 20वीं सदी में इसमें परिवर्तन आया. इस समय क्रोसे ने घोषणा की कि इतिहास समकालीन इतिहास होते हैं. इसका अर्थ यह है कि इतिहास लेखन आवश्यक रूप से वर्तमान की आँखों से और वर्तमान समस्याओं के प्रकाश में अतीत को देखना है और इतिहासकार का मुख्य कार्य विवरण देना नहीं, अपितु मूल्यांकन करना है क्योंकि वह मूल्यांकन नहीं करेगा तो उसे कैसे पता चलेगा कि क्या लिखना है.
यह निर्विवाद सत्य है कि इतिहासकार वर्तमान की समस्याओं को ध्यातव्य रखते हुए ही अतीत में घटित घटनाओं का वर्णन करता है. वर्तमान में जिन समस्याओं का बोलबाला होता है, वही उस इतिहासकार की दृष्टि में प्रमुखता लेता है और वही उसी चीज को ध्यान में रखते हुए अपनी कृति का निर्माण करता है या इसे यूँ कहें कि इतिहासकार वर्तमान की समस्याओं का चश्मा पहनकर अतीत को पीछे मुड़कर देखता है. चूँकि इसमें वर्तमान को ज्यादा सार्थक बनाया जाता है. अतः क्रोसे का यह मत है कि सभी इतिहास समकालीन इतिहास होते हैं, काफी हद तक यह सत्य प्रतीत होता है. उदाहरण के तौर पर यदि कोई इतिहासकार अकबर की धार्मिक नीति पर लेखन कार्य कर रहा है तो निश्चय ही वर्तमान में घटित धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरता एवं मजहबी समस्याओं पर अपना विशेष ध्यान केन्द्रित करते हुए अकबर की धार्मिक सहिष्णुता के लिए उठाए गए कदमों, जैसे- सुलह-ए-कुल नीति, दीन-ए-इलाही नीति, धार्मिक सहिष्णुता आदि का अवलोकन करेगा.
वास्तव में यह बात सत्य है कि इतिहासकार द्वारा लिखे जाने वाले लेखन में उसके आसपास व उसके समय की समस्याओं का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है. इतिहासकार का दृष्टिकोण उसी के अनुरूप ढल जाता है, जिस प्रकार की समस्याओं से वह ग्रसित होता है.
उपर्युक्त मत के विश्लेषण करने पर निष्कर्षात्मक रूप से कहा जा सकता है कि इतिहास समकालीन इतिहास है. अर्थात् वर्तमान को ध्यान में रखते हुए अतीत का अध्ययन किया जाता है. इस प्रकार इतिहास लेखन से निम्नलिखित लाभ हैं
1. वर्तमान की समस्याओं से हम अच्छी तरह से निपट सकते हैं क्योंकि अतीत में घटित घटनाएँ वर्तमान की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए पढ़ी व लिखी जाएँगी. अतः हम उन समस्याओं को ज्यादा अच्छे ढंग से हल कर सकते हैं.
2. हम अतीत की घटनाओं का वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन कर सकते हैं.
3. इस प्रकार के इतिहास लेखन करने में हम जब अतीत की घटनाओं का वर्तमान से सम्बन्ध व तादात्म्य स्थापित करते हैं तो हम अतीत की उन बातों को सीख लेते हैं व सबक लेते हैं जिनसे कि वर्तमान समस्याओं का निराकरण सम्भव है.
किन्तु समकालीन इतिहास के लाभ के साथ-साथ कुछ हानियाँ भी हैं; जैसे—
1. समकालीन इतिहास केवल मात्र एक उपदेशात्मक/ निर्देशात्मक बनकर रह जाता है अर्थात् इतिहास में इन बातों की ही प्रमुखता रह जाती है कि अतीत की घटनाओं से कैसे वर्तमान की समस्याएँ हल की जाती हैं.
2. क्षुद्र स्वार्थों की वजह से इतिहास की दिशा को मोड़ा जा सकता है व उसके तथ्यों को अपने अनुसार, तोड़मोड़ कर पेश किया जा सकता है.
3. समकालीन इतिहास का जो भाग वर्तमान समस्याओं से सम्बन्धित नहीं होता है वह दबकर रह जाता है क्योंकि इतिहासकार उस पर अपनी दृष्टि नहीं डाल पाता.
> इतिहास लेखन के स्रोत के रूप में साहित्य की प्रासंगिकता व प्रमाणिकता
इतिहास लेखन के स्रोत के रूप में दो चीजें महत्त्वपूर्ण हैं—प्रथम तो अभिलेखन व दूसरे साहित्यिक स्रोत. अभिलेखीय स्रोतों में जहाँ स्मारक, स्तम्भ, स्तूप, सिक्के व मुद्राएँ आदि वास्तविक उत्खनित व पुरातात्विक पुरासाक्ष्यों को शामिल किया जाता है. वहीं साहित्यिक स्रोतों में विद्वानों द्वारा रचित लेखन सामग्री चाहे वह धार्मिक हो या धर्मेत्तर विदेशियों के विवरण शामिल किए जाते हैं.
इतिहास लेखन करते समय हमें प्रामाणिक जानकारी की आवश्यकता होती है. जिसके लिए हमें प्रमाणों की आवश्यकता होती है. इस प्रकार प्रमाणों को हम समकालीन साहित्य में पाते हैं और उन साहित्यिक रचनाओं के आधार पर इतिहास लेखन किया जाता है. इतिहास लेखन करते समय साहित्य को प्रमाणों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है. साहित्यिक साक्ष्यों से हम अभिलेखीय स्रोतों से प्राप्त सामग्री को जाँच सकते हैं तथा उन्हें और भी ज्यादा प्रामाणिक व सत्य किया जा सकता है.
साहित्य की इतिहास लेखन में प्रासंगिकता को हड़प्पा सभ्यता के सन्दर्भ में बहुत अच्छे ढंग से समझा जा सकता है.
हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से हमें बड़ी तादाद में पुरातात्विक साक्ष्य मिले हैं और उनसे अनेक निष्कर्ष भी निकाले जाते हैं, किन्तु वे इतने स्पष्ट नहीं हैं जितने कि वैदिककालीन. इन सभी के पीछे मूल कारण है हड़प्पा सभ्यता की अपठित लिपि के अभाव में उसकी साहित्यिक सामग्री का उपयोग न हो पाना.
अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साहित्यिक साक्ष्य अभिलेखी साक्ष्य को कहाँ तक प्रामाणिक व सत्य ठहराते हैं व उसका इतिहास लेखन में क्या योगदान है. साहित्यिक सामग्री के अभाव में ही हम हड़प्पा सभ्यता की धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि परम्पराओं व व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते.
अतएव साहित्यिक स्रोतों से इतिहास लेखन में निश्चितता की स्थिति को बल मिलता है. साहित्यिक स्रोतों की तुलना में अभिलेखीय स्रोतों को ज्यादा अच्छे ढंग से पेश किया जा सकता है और उसके सन्दर्भ में ज्यादा जानकारी रखी जा सकती है, किन्तु इतिहास लेखन में साहित्यिक स्रोतों के प्रयोग से कई हानियाँ भी हैं; जैसे—
1. आसानी से मनोनुकूल परिवर्तन — ऋग्वेद के 2 से 7वें मण्डल को परिवार मण्डल तथा शेष को क्षेपक या परिशिष्ट मण्डल माना जाता है. अब इतिहासकार इतिहास रचते समय हो सकता है केवल परिवार मण्डल का ही प्रयोग करे या फिर दूसरा इतिहासकार क्षेपक मण्डली के आधार पर ऋग्वेद का वर्णन करे. ऐसा करने से ऋग्वेद की मूल थीम (Theme) में परिवर्तन सम्भव है और हमारे निष्कर्षों में भिन्नता आना स्वाभाविक है.
2. अभिलेखीय सामग्री को हम परिवर्तित नहीं कर सकते. वह जैसी पहले थी आज भी उसी अवस्था में मिलेगी, किन्तु साहित्यिक सामग्री में तीव्र गति से परिवर्तन सम्भव हैं, क्योंकि प्रत्येक इतिहासकार का दृष्टिकोण भिन्न होता है. अतः वह साहित्यिक स्रोतों को बदलता रहता है, जिससे इसकी महत्ता कम हो जाती है.
3. साहित्यिक स्रोत की एक सीमा यह भी है कि साहित्यिक सामग्री में निष्पक्षता का अभाव होता है; जैसेबाबरनामा, अकबरनामा, आलमगीरनामा व खजाइ-नुलफतुह आदि. इन सभी में अपने शासकों का प्रशंसात्मक वर्णन किया गया है और उनकी किसी भी बुराई की ओर इंगित नहीं किया है, उनकी सभी कमियों को दबा दिया गया है.
4. विदेशियों के वृतान्तों में प्रमाणिकता की कमी – चूँकि विदेशी यात्री एक भिन्न राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व रीति-रिवाजों वाले क्षेत्रों से आए. फलतः उनकी सोच यहाँ की सोच से भिन्न थी. उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन अपने ढंग से किया जिनमें अनेक खामियाँ रह गईं. उदाहरणस्वरूप – हम मैगस्थनीज की इण्डिका जिसमें उसने भारतीय समाजव्यवस्था को पूरी तरह समझे बगैर अनेक गलत तथ्य प्रस्तुत कर दिए हैं, जैसे- भारत में जनजातियाँ निवास करती हैं आदि.
अत्तः कुछ कमियों के बावजूद भी साहित्य की प्रामाणिकता को कम नहीं आँका जा सकता.
> अपने शोध विषय के चयन को प्रमाणित करते हुए शोध रीति का अनुसरण
> शोध विषय
मुस्लिम समाज में सुधार सर सैयद अहमद खाँ के योगदान का मूल्यांकन : वर्तमान समय में जब पूरे विश्व में मुस्लिम समुदाय हिंसा के दावानल में जल रहा है. धार्मिक कट्टरता, अशिक्षा, उलेमाओं का अतार्किक दृष्टिकोण आदि ने एक काले परदे के रूप में आधुनिकता व उदारवाद के प्रकाश को उनके मस्तिष्क के भीतर जाने से रोक रखा है. कोसोवो संकट, इराक बनाम अमरीका संघर्ष, सोमालिया, अफगानिस्तान, फिलीस्तीन आदि. इस समस्या से भारत भी अछूता नहीं है.
उपर्युक्त परिस्थितियों में हम सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका का अध्ययन व उससे प्रेरणा प्राप्त करना उपयुक्त मानते हैं. 19वीं सदी में 1857 ई. के विद्रोह की असफलता के बाद भारतीयों की समस्त आशाओं पर पानी फिर गया. पराजय, दमन, निराशा आदि ने उनको चारों ओर से घेर लिया, किन्तु सभी सम्प्रदायों में सर्वाधिक दुर्दशा मुसलमानों की हुई. उनकी आर्थिक स्थिति तेजी से गिर रही थी. बेरोजगारी का मुख्य कारण पश्चिमी शिक्षा का अभाव था. अँग्रेजों ने उनकी राजनीतिक सत्ता पहले ही छीन ली थी. 1857 ई. विद्रोह का उत्तरदायित्व भी उन पर डाला गया.
मुसलमानों की इस दशा को सुधारने के लिए सर सैयद अहमद खाँ आगे आए. उन्होंने अथक प्रयासों से मुस्लिम समाज में सुधार के प्रयास किए.
यद्यपि उनके प्रयासों में मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक् रहने की सलाह भी दी गई और अँग्रेजों पर अतिविश्वास रखा, जिससे मुसलमान राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से दूर चले गए.
मैंने इसे अपने शोध का विषय इसलिए चुना है, क्योंकि मेरे विचार में इस विषय पर अनुसन्धान कार्य कम हुआ है. इसको चुनने का एक अन्य कारण सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका के लिए उस पक्ष को उजागर करने का प्रयास है, जो पक्ष कट्टरपन्थी मुसलमानों व हिन्दुओं की नजरों से दूर रहा.
> साहित्य व पुस्तकों का अध्ययन
(1) मौलाना अल्ताफ हुसैन अली द्वारा रचित – 'हयाते जावेद' यह पुस्तक प्रस्तावित शोध के लिए काफी उपयोगी है. यह सर सैयद की जीवन-चरित है, जिसके एक भाग में उनके जीवन व व्यक्तित्व से सम्बन्धित समस्त बातें हैं और दूसरे भाग में सर सैयद की सामाजिक, शैक्षणिक एवं साहित्यिक सेवाओं का सविस्तार उल्लेख किया गया है.
(2) शान मोहम्मद द्वारा रचित – “सर सैयद अहमद खाँ – एक राजनीतिक जीवन ".
इस पुस्तक में 1857 ई. से पहले मुसलमानों की दशा और फिर उसमें सर सैयद द्वारा किए गए सुधारों का उल्लेख है.
(3) प्रो. असग़र अब्बास द्वारा रचित – 'सर सैयद की शहादत' इसमें उन्होंने विज्ञान की उन्नति व उसका मुसलमानों में प्रचार करने के लिए किए गए प्रयासों का वर्णन है. इसमें 'अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट' और 'तहजीव-उल-अखलाक' के प्रभावों का वर्णन है.
(4) इफ्तिखार आलम द्वारा रचित – 'तारीख मदर-सलुलउलूम अलीगढ़' इस पुस्तक में अलीगढ़ कॉलेज की बुनियाद व उसका इतिहास बताया गया है.
> शोध उद्देश्य
उपलब्ध साहित्य के अध्ययन के बाद मेरे मस्तिष्क में कुछ नवीन विचारों ने जन्म लिया और प्रस्तावित शोध में उनको दृष्टिगत रखते हुए निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति का. प्रयास किया जाए.
1. 19वीं सदी में वास्तविक मुस्लिम ढाँचा कैसा था ?
2. इस दशा को सुधारने में सर सैयद के विचारों व प्रयासों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना.
3. इन सुधारों का राष्ट्रीय आन्दोलन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
4. क्या ये प्रयास भारत विभाजन के कारण बने ? 
> शोध प्रविधि
प्रस्तावित शोध में स्थापित शोध प्रविधि को ध्यान में रखते हुए पहले प्राथमिक स्रोतों का अध्ययन किया जाएगा; यथा— सर सैयद अहमद द्वारा रचित पुस्तकें एवं आलेखों का अध्ययन किया जाएगा, तत्पश्चात् उनके बारे में अन्य लेखकों द्वारा रचित पुस्तकों व आलेखों का अध्ययन किया जाएगा. इसके अतिरिक्त अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जाकर मौलिक साहित्य व विद्वानों के साक्षात्कार लिए जायेंगे.
> अध्याय विभाजन 
प्रथम अध्याय — भूमिका.
द्वितीय अध्याय – 19वीं सदी का मुस्लिम समाज
I. मुस्लिम समाज का शैक्षणिक स्तर.
II. मुसलमानों की राजनैतिक व आर्थिक स्थिति.
III. मुस्लिम समाज में व्याप्त निराशा व उसके कारण. 
तृतीय अध्याय—मुस्लिम व सर सैयद
I. मुस्लिम समाज के प्रति उनका दृष्टिकोण
II. उनके सुधारों की प्रेरणा व सुधार. 
III. सुधारों का मूल्यांकन.
चतुर्थ अध्याय – सर सैयद व राष्ट्रीय आन्दोलन
I. अँग्रेजी सरकार के प्रति दृष्टिकोण.
II. कांग्रेस के प्रति दृष्टिकोण.
III. सर सैयद को राष्ट्रवाद बनाम स्वधर्म कल्याण की आकांक्षा.
पंचम अध्याय – सर सैयद व सामाजिक समाज
I. वर्तमान सामाजिक स्थिति.
II. सर सैयद का वैज्ञानिक दृष्टिकोण.
III. सर सैयद का प्रेरणा स्रोत.
षष्ठम अध्याय – निष्कर्ष.
> सब - अल्टर्न ( Sub-Altern) इतिहास
> सब - अल्टर्न अध्ययन
अधीनस्थ अध्ययन के विषय में छात्रों के जानने योग्य एक आरम्भिक बात यह है कि इस विचारधारा के सभी इतिहासकारों में पूर्ण मतैक्य नहीं है, परन्तु परम्परागत इतिहास लेखन से इन सभी का असन्तोष काफी स्पष्ट है. यहाँ बहुत संक्षेप में हम पहले से इस नजरिए मूल अवधारणाओं को प्रस्तुत करेंगे और फिर इनके विरोध में सामूहिक रूप से उठाए गए कुछ तर्कों की समीक्षा करेंगे.
इस विषय में पहला तर्क यह है कि परम्परागत इतिहास लेखकों ने दलित जनता का वास्तविक इतिहास आज तक नहीं लिखा यहाँ तक कि बड़े विद्रोहों और क्रान्तिकारी परिवर्तनों की चर्चा इतिहासकारों ने जब कभी ही की है, तो इन घटनाओं के वास्तविक 'कर्त्ता' अर्थात् आम आदमी का सच्चा इतिहास उसी के नजरिए से लिखने की कोशिश शायद ही हुई हो. इस बात को तो कोई नकार नहीं सकता कि, इतिहास के सभी बड़े परिवर्तनों में जनसाधारण ने सक्रिय भूमिका निभाई है, परन्तु परम्परागत इतिहास लेखन में आम जनता को या तो उच्चवर्गीय संगठनों और नेताओं के इशारे पर चलने वाली कठपुतली मान लिया गया है, या फिर बड़ी आर्थिक सामाजिक विपत्तियों के कारण कभी-कभार यान्त्रिक रूप से विद्रोह करने वाले ढोर - ढंगर के रूप में देखा गया है. जिनका अपना कोई विवेक नहीं होता. अतः इतिहास में इनकी चेतना, इनकी समझ को अलग से अध्ययन करने की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं. जन-विद्रोहों की चर्चा जब भी इतिहास में उठी है, तो कुलीन इतिहासकारों ने अपनेअपने राजनीतिक रुझानों के अनुसार इन्हें कभी समाजवादी, कभी आजादी के संघर्ष का मोहरा मानकर ही अधिकतर इतिहास लिखा है. सब- अल्टर्न व्याख्याकारों ने इस तरह के इतिहास की शिखर दृष्टि को न केवल अधूरा माना है, बल्कि ऐतिहासिक विश्लेषण के नजरिए से काफी हद तक भ्रामक भी पाया है.
इतिहास लेखन की स्थापित परम्पराओं की कमियों से बचने के लिए सब- अल्टर्न अध्ययन के प्रतिपादक रणजीत गुहा ने मुख्यतः दो प्रकार के नए प्रयोगों पर जोर दिया है. एक तो यह है कि भारतीय समाज को एक समरूप समाज या प्रतियोगी संगठनों के जनमत या बने बनाए सामाजिक वर्गों एवं उत्पादन सम्बन्धों के माध्यम से देखने के बजाय कुलीनों एवं दलितों के विभाजन पर आधारित समाज के रूप में देखने का सुझाव दिया है. इसका कारण यह दर्शाया गया है कि पूँजीवादी परिणति से पहले तथा परिपक्व वर्ग चेतना के उद्भव से पूर्व किसानों, मजदूरों तथा कबीलों इत्यादि को बिल्कुल अलग-अलग एवं अनन्य वगों के रूप में देखने के स्थान पर घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्धों, स्थानीय परस्परता एवं मिली-जुली लोक चेतना तथा एक जैसे शोषण अनुभव के आधार पर गहराई से जुड़े हुए दलित समुदायों के रूप में देखना कहीं अधिक उपयोगी है. वास्तव में इसी नजरिए के कारण इस तरह इतिहास लेखन को सामूहिक रूप से सबअल्टर्न या अधीनस्थों या दलितों के अध्ययन का नाम भी मिला है. यद्यपि इस नाम विशेष से इस परम्परा के सभी इतिहासकार स्वयं पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हैं. यह सच है कि आधुनिक भारत के इतिहास में दलितों के अध्ययन को यूरोप के तरह आम आदमी का इतिहास या निम्न-वर्ग के इतिहास भी कहा जा सकता था, परन्तु मोटे तौर पर ये सभी इतिहासकार मानते हैं कि ऐतिहासिक विश्लेषण में शोषण एवं प्रभुत्व में यह कार्य जनता को कृत्रिम रूप से अलग-थलग वर्गों में विभाजित करके देखने की बजाय दलित समाज के समुचित अध्ययन के माध्यम से अधिक सार्थकता से किया जा सकता है.
दलित-समाज के विशिष्ट ऐतिहासिक अध्ययन की आवश्यकता के अलावा सब- अल्टर्न इतिहास के प्रतिपादकों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि दलितों को 'पेट से सोचने वाले' निर्विवेक जाहिल लोगों के रूप में देखने के बजाय उनकी चेतना एवं मानसिकता को समझने पर इतिहासकारों के द्वारा विशेष ध्यान दिया जाए. वह चाहे इनके अपने विद्रोहों का इतिहास हो या कुलीनों द्वारा नियन्त्रित आन्दोलनों में इनकी भागीदारी एवं बलिदानों की दास्तान अथवा रोजमर्रा के जीवन में दलितों पर निरन्तर घटित होने वाले शोषण के अनुभव. ये सभी गहराई से तभी समझे जा सकते हैं जब आम आदमी के नजरिए, उसकी सोच और उसकी आहों की गूँज इतिहास समझ सकें. प्राथमिक स्रोतों के रचनात्मक अध्ययन द्वारा इतिहास के पृष्ठों में उसे उतार सकें. सबअल्टर्न इतिहासकारों के अनुसार, बड़े-बड़े विद्रोहों में भाग लेने वाले लोगों की सोच हमेशा उनके तथाकथित कुलीन और पढ़े-लिखे नेताओं से पूरी तरह मेल नहीं खाती, बल्कि उनके अपने अनुभवों और जरूरतों पर आधारित होती है तथा उनकी अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़ी होती है. उनका अपना एक अस्तित्व और अपनी सापेक्ष स्वायत्तता है, जिसका विशिष्ट अध्ययन आवश्यक है. लेकिन दलित समाज की चेतना अथवा मानसिकता का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उसकी बुनियादी समानताएँ तथा समय एवं स्थान के अनुरूप आने वाली विविधताएँ क्या हैं? इन प्रश्नों का सब- अल्टर्न अध्ययन में मतैक्य नहीं है, परन्तु इस बात पर काफी सहमति है कि दलित चेतना में शोषण के प्रति विरोध तथा कुलीनों के प्रभुत्व का आम हालातों में विषय मिश्रण उपस्थित रहता है. यह चेतना-व्यवस्था अथवा सत्ता के टूटने या चरमराने पर स्वतः प्रवर्तित विद्रोहों को अक्सर जन्म दे सकती है. राजनीतिक संगठन के अभाव में भी अफवाहों इत्यादि के माध्यम से ही व्यापक आन्दोलनों के रूप में परिवर्तित कर सकती है, परन्तु विद्रोह की दिशा क्या होगी, बाहरी नेतृत्व से दलित वर्गों का क्या सम्बन्ध बनेगा. रणजीत गुहा के शब्दों में 'प्रतिवाद' तथा 'क्षेत्रीयता' जैसी असमान प्रवृत्तियाँ किस स्थिति में क्या रूप लेंगी यह अत्यन्त विवादास्पद विषय है. 
एक अन्य समस्या दलितों के चेतना के अध्ययन की विधि या शोध-पद्धति की है, स्पष्ट है कि दलित समुदाय की चेतना के अध्ययन को व्यावहारिक रूप देने के लिए इतिहास के प्राथमिक स्रोतों नए नजरिए से देखना अत्यन्त आवश्यक है, फिर अतीत के समाजों की मानसिकता की कल्पना करना और वह भी उन शोषित अनपढ़ लोगों की मानसिकता की जो खुद कुछ लिखकर न छोड़ सके और जिसके बारे में अक्सर सहानुभूति कुलीनों द्वारा रचे गए स्रोतों से ही हमें यदा-कदा जानकारी मिलती है— ऐसे वर्गों की सोच आज भी कल्पना कर पाना तो शायद और भी दुर्लभ होगा, परन्तु सब- अल्टर्न इतिहासकारों ने इस चुनौती को अपने शोध का केन्द्र बिन्दु बनाया है, लेकिन इस महान् उद्देश्य के लिए इन इतिहासकारों द्वारा अपनाई गई शोध-पद्धति एवं शैली विवादास्पद रही है, जो इतिहास शोषण और दमन अनुभूति को अपना केन्द्र बिन्दु' बनाना चाहता है, तो उसके पन्नों में शायद शब्दाडम्बर, अतिशयोक्ति और क्लिष्टता की नहीं, बल्कि इन्सानों के पसीने, उसकी मिट्टी की गन्ध एवं सीधी और सच्ची छवि झलकना ही अधिक स्वाभाविक होगा, परन्तु भारतीय इतिहास लेखन के तथाकथित 'कुलीन' दृष्टिकोणों का परिहास करने वाले सब- अल्टर्न इतिहासकारों ने शायद इस सरल से सत्य को आत्मसात् नहीं किया है. यही कारण है कि सहायक स्रोतों के आधार पर विदेशों से ही भारतीय दलितों को समझने का उनका अपना दावा कुछ कम 'कुलीन' प्रतीत नहीं होता.
परन्तु शोध-पद्धति तथा शैली के अलावा सब-अल्टर्न अध्ययन की अन्य मूल अवधारणाओं की भी कई इतिहासकारों ने जोरदार आलोचना की है. इस सिलसिले में एक रोचक बात यह है कि, 'सब-अल्टर्न अध्ययन से जुड़े हुए ज्यादातर इतिहासकार मार्क्सवादी विचारधाराओं से ही निकल कर आए हैं. स्वभावतः इनकी आलोचना में भी मार्क्सवादी इतिहासकारों का स्वर ही सबसे अधिक मुखरित रहा है. इस आलोचना के मुख्य आयामों का संक्षिप्त उल्लेख यहाँ आवश्यक होगा. यह आलोचना वास्तव में चार अलगअलग मुद्दों पर केन्द्रित रही है. यह मुद्दे हैं— दलित, चेतना, स्वायत्तता तथा संगठन.
> अतीत के पुनर्निर्माण में अभिलेखिक साक्ष्यों की उपयोगिता का उल्लेख कीजिए
इस साक्ष्य के अन्तर्गत वह सामग्री आती है, जो हमें साहित्यिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में लिखी हुई प्राप्त होती है. इस साक्ष्य के मोटे तौर पर ये उपभेद किए जा सकते हैं – (1) गुहालेख (2) शिलालेख (3) स्तम्भलेख, ( 4 ) ताम्रपत्रों पर अंकित लेख.
इन लेखों में कुछ राज-शासन अथवा राजाज्ञाएँ हैं, कुछ दान लेख हैं तथा कुछ प्रशस्तियाँ हैं. इस प्रकार के लेखों के विषय में बड़ी विविधता मिलती है. इतिहास के साक्ष्य के रूप में इनका महत्त्व इसलिए और अधिक है, क्योंकि यह समसामयिक साक्ष्य होते हैं, प्राचीन भारत के कई लेखों से न केवल विधि राजनीतिक महत्त्व की समस्याओं पर प्रकाश पड़ता है. अपितु तत्कालीन साहित्य, संस्कृति एवं जनजीवन के अन्य पक्षों पर भी इनसे महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं. इन लेखों में शासकों के नाम, शासन वंश, तिथि और समसामयिक घटनाओं का विवरण मिला है. कभी-कभी इन लेखों से साहित्यिक ग्रन्थों द्वारा पहले से प्रदान सूचनाओं का समर्थन होता है, जिससे इतिहासकार उस विषय पर और अधिक निश्चित मत बना सकता है. उदाहरण के लिए मौर्यकालीन प्रशासन अथवा जन-जीवन के विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मैगस्थनीज के इण्डिका से जो जानकारी मिलती है, अशोक के अभिलेखों में प्रायः उसका समर्थन मिलता है और इस प्रकार ऐतिहासिक सूचना और अधिक प्रामाणिक बन जाती है. हर्ष के विषय में बाणभट्ट के हर्षचरित से जो सूचनाएँ मिलती हैं, हर्ष के लेखों में उसका समर्थन मिलता है. इसी प्रकार हेलियोडोरस के बेसनगर अभिलेख से यह महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है कि इस लेख के समय तक भागवत् धर्म इतना लोकप्रिय हो चला था कि विदेशी लोग भी इसे स्वीकार करने लगे. अशोक के लेख संख्या में इतने अधिक हैं तथा उनसे मिलने वाली सूचना इतनी विशद् एवं महत्व की हैं कि उन्हें स्वयं में एक साहित्य का नाम दिया जा सकता है. भारतीय इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण शासक और मौर्य वंश के विषय में सामान्य रूप से जो सूचनाएँ इनके द्वारा मिलती हैं उनके बिना इस सम्बन्ध में हमारी जानकारी सर्वथा अधूरी है. इसी प्रकार समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के बिना हम उस महत्त्वपूर्ण शासक के विषय में कुछ भी नहीं जान पाते. यही बात हम कलिंग के शासक खारवेल के विषय में कह सकते हैं, जिसके बारे में सूचना का आधार हाथीगुम्फा अभिलेख है. कभी-कभी लेखों में लेख जारी करने वाले शासक के नाम के अतिरिक्त उसकी वंशावली भी दी गई रहती है. उदाहरण के लिए रुद्रदामन के लेख से यह ज्ञात होता है कि वह जयदामन का पुत्र एवं चष्टन का पौत्र था. वंशावली की यह परम्परा गुप्त लेखों में अपनी चरम पर दिखाई देती है. वंशावली की सहायता से इतिहासकारों को उत्तराधिकार क्रम समझने में बड़ी सहायता मिलती है कि वे प्रभुतासम्पन्न और स्वतन्त्र शासक थे अथवा अन्य किसी शक्तिशाली शासक के सामन्त अथवा अधीनस्थ के रूप में राज्य करते थे. इन लेखों में शासन व्यवस्था के ऊपर भी महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है. इनमें पदाधिकारियों के नाम और उनके कार्य-व्यापारों का विवरण भी प्राप्त होता है. साम्राज्य की विविध प्रशासनिक इकाइयों के सम्बन्ध में भी इनसे सूचना मिलती है. प्राचीन भारत के कुछ लेख साहित्यिक महत्व के भी मिलते हैं. रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख का उपयोग विद्वानों ने संस्कृत भाषा के विकास क्रम को समझने में किया है. धार तथा अजमेर के चट्टानों पर नाटक लिखे हुए मिले हैं. पदुकोट्टा के अन्तर्गत 'कुदुमियामलै' नामक स्थान से प्राप्त लेख में संगीत के नियम बताए गए हैं.
साक्ष्यों के बिना अतीत का पुनर्निर्माण पूर्णतया शुद्ध रूप से इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अभिलेखीय करना अत्यन्त कठिन है.
> "इतिहास महान् पुरुषों के आत्मचरित्र के अलावा कुछ भी नहीं है." टिप्पणी कीजिए. 
इतिहास एक दृष्टि से व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के कार्यों का मूल्यांकन है. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इतिहास में महापुरुषों के कार्यों का ही प्रमुखतः अध्ययन किया जाता है, सभी मनुष्यों का अध्ययन गौण रूप से ही किया जाता है.
व्यक्ति होता है, जो इस युग की आकांक्षाओं को शब्द दे हीगल के शब्दों में, "किसी युग का महापुरुष वह सके, युग को बता सके कि उसकी आकांक्षा क्या है? उसे क्रियान्वित कर सके. वह जो करता है वह उसके युग का दृश्य सारतत्त्व होता है, वह अपने युग को रूप देता है. "
इतिहास अपने स्वरूप में गतिशीलता धारण किए हुए है. इतिहास की इस प्रक्रिया में वृद्धि हेतु महापुरुषों ने विशिष्ट व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसके कारण इतिहास में महापुरुष सिद्धान्त का उद्भव हुआ. 20वीं सदी के आरम्भ में इतिहास लेखन का अभिप्राय महापुरुषों की जीवन-कथाओं पर प्रकाश डालना था. इससे पहले व्यक्ति स्वयं को समाज का अभिन्न अंग मानता था, किन्तु पुनर्जागरण काल में व्यक्तिवाद के उदय से उसने स्वयं को आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में पहचाना. औद्योगिक क्रान्ति ने भी व्यक्तिवादी सिद्धान्त की पुष्टि की, क्योंकि व्यक्तिवादी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर ही पूँजीवाद का विकास हुआ. इस युग में ग्रोत द्वारा लिखित 'हिस्ट्री ऑफ ग्रीक' तथा मानसेन द्वारा रचित 'हिस्ट्री ऑफ रोम' भी व्यक्तिवाद के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं. इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इतिहास की गतिशीलता में महापुरुषों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. कार्ल मार्क्स के शब्दों में, “इतिहास कुछ नहीं करता, उसके पास कारू का खजाना नहीं होता, यह कोई युद्ध नहीं करता, दरअसल वास्तविक मनुष्य और जीवित मनुष्य ही कुछ करता है.”
गिबन – "महान् व्यक्तियों की जीवनियाँ ही इतिहास है." इसलिए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि महापुरुष अनुकूल परिस्थितियों का इन्तजार करता है तथा उपर्युक्त समय पर राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुकूल परिस्थितियों एवं मानवीय शक्तियों को नवीन दिशा प्रदान करता है. परिणामतः मानवीय शक्ति का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति महापुरुष एवं युग-पुरुष बन जाता है, जैसे— नेपोलियन, बिस्मार्क, लेनिन आदि.
इतिहास में महापुरुषों की भूमिका के बारे में दो परस्पर विरोधी अवधारणाएँ हैं
1. एक वर्ग उसकी भूमिका को मानते हैं.
2. दूसरा वर्ग इसे स्वीकार नहीं करता.
प्रथम वर्ग का मानना है कि महापुरुषों की भूमिका इतिहास में निर्णायक होती है अर्थात् उन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके द्वारा उन्होंने वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देकर इतिहास की गति को मोड़ दिया अर्थात् व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किए.
मैकाले – युगपुरुष मनुष्य शिखर पर आसीन वह व्यक्ति होता है, जो जनसामान्य से पहले सूर्य के प्रकाश का पूर्वाभ्यास पाता है और उनके द्वारा समाज की भावी घटनाओं को प्रतिबिम्बित किया जाता है. यूरोपीय पुनर्जागरण में मार्टिन लूथर तथा साम्यवादी आन्दोलन कार्ल मार्क्स के नेतृत्व में उभरा व पल्लवित हुआ. आध्यात्मिक आन्दोलन का नेतृत्व ईसा मसीह, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, पैगम्बर मोहम्मद आदि ने किया. स्पष्ट है कि इतिहास प्रवाह में महापुरुषों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.
प्लेन वानोव ने महापुरुष की भूमिका का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा कि “यदि महापुरुष जनमानस को प्रभावित कर सकता है तो इसका तात्पर्य है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं को प्रभावित करने में सक्षम होता है. इस प्रकार वह इतिहास का निर्माता होता है."
> मोनेड़
ऐतिहासिक घटना तथा महापुरुष एक-दूसरे के पूरक होते हैं तथा उन दोनों का घनिष्ठ अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है. महापुरुषों के अभाव में ऐतिहासिक घटना का कोई महत्त्व नहीं होता. ऐतिहासिक घटना के बिना महापुरुष व्यर्थ एवं अस्तित्वहीन होता है.
जबकि दूसरे वर्ग के समर्थक विद्वानों का मानना है कि ऐतिहासिक परिस्थितियाँ शक्तिशाली व सत्ता- सम्पन्न महापुरुष की अपेक्षा शक्तिशाली होती हैं. स्वयं बिस्मार्क ने माना है कि हम लोग महान् ऐतिहासिक घटना को निर्मित नहीं कर सकते. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि इतिहास की गति पूर्व नियोजित एवं पूर्वोक्ति है तथा मनुष्य इतिहास की गति को विपरीत दिशा या प्रवाह नहीं दे सकता, बल्कि इतिहास के प्रवाह में मनुष्य उसी लक्ष्य को प्राप्त करता है जो उसे ऐतिहासिक घटनाएँ प्रदान करती हैं. इस प्रकार व्यक्ति इतिहास में कभी शक्तिशाली न होकर ऐतिहासिक घटना के सामने सदैव नतमस्तक हुआ है. 
निष्कर्षतः इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि महापुरुषों ने इतिहास प्रवाह को महत्त्वपूर्ण मोड़ दिए हैं पर साथ ही हमें यह भी मानना चाहिए कि घटनाओं व महापुरुषों में से किसी एक को अपेक्षाकृत अधिक महत्ता नहीं दी जा सकती. इसलिए हमें दोनों विचारों के बीच सन्तुलित विचार को अपनाना चाहिए जो उचित हो और सहज भी.
> ऐतिहासिक लेखन के स्वरूप में पूर्वाग्रह अन्तर्निहित में है. चर्चा कीजिए.
प्रस्तुत प्रश्न में इस बात हेतु कि क्या इतिहास रचते समय लेखक पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है या नहीं. इस सम्बन्ध में इसके विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला जा सकता है. पूर्वाग्रह से तात्पर्य है पहले से ही किसी विचारधारा को मान लेना और उसी स्वीकारोक्ति के आधार पर अनुसन्धान करना अर्थात् कहने का तात्पर्य यह है कि किसी विषय विशेष पर इतिहासकार ने अपनी जिस धारणा का निर्माण पूर्व में कर रखा है. वह उसी के अनुरूप लेखन कार्य करता है और उसी मत को प्रबल करता है. इसके अतिरिक्त अपने मत के पक्ष में तर्कों का अपने तरीके से प्रयोग करता है.
इतिहासकार परिस्थितियों की उपज होता है और उस पर राष्ट्रीयता, धर्म, संस्कार, रीति-रिवाज, भाषा एवं अन्योन्य बातों का प्रभाव पड़ता है या फिर दूसरे शब्दों में हम इस तरह कह सकते हैं कि इतिहासकार उपर्युक्त चीजों का चश्मा पहनकर ही अपनी अध्ययन सामग्री को देखता है. उसे फिर वे चीजें ही दिखाई देती हैं जिनमें इतिहासकार स्वयं प्रभावित होता है. इस बात को हम एक उदाहरण से अच्छी तरह से समझ सकते हैं— 1857 ई. की क्रान्ति एक महान् घटना थी और एक सर्वमान्य तथ्य था कि यह घटना काफी प्रभावशाली ढंग से घटी, किन्तु इस क्रान्ति के बारे में लेखन कार्य करने वाले इतिहासकारों की धारणाएँ एवं मनोवृत्तियाँ भिन्न होने के कारण उन्होंने इसका अलग-अलग वर्णन किया. घटना एक थी, किन्तु उसका वर्णन अनेक प्रकार से किया गया. इसका मूल कारण है प्रत्येक इतिहासकार की पूर्व निर्मित विचारधारा जैसे इस घटना को अंग्रेजी, भारतीय, मार्क्सवादी, समाजवादी, साम्प्रदायिक विचार वाले लोगों ने अपने-अपने ढंग से विवेचित सम्बन्धित होती है, वहीं साम्प्रदायिक लोगों की धर्म से. यही किया है. जहाँ कम्युनिस्टों की विचारधारा आर्थिक तत्व से कारण है कि 1857 ई. की क्रान्ति में कम्युनिस्टों ने आर्थिक तत्व को अधिक महत्त्व दिया.
इसी तरह अंग्रेजों की विचारधारा सदैव से ही भारतीयों के प्रति हीनता की रही है. अतः उन्होंने 1857 ई. की क्रान्ति के कारणों व स्वरूपों को अपने ढंग से विवेचित किया है और इसे सैन्य - विद्रोह, मुस्लिम - षड्यन्त्र, गोरे-काले का विद्रोह आदि बताया है, वहीं भारतीयों की अंग्रेजों के प्रति एक अलग भावना रही है. अतः उन्होंने इस क्रान्ति के कारणों के पीछे अंग्रेजों की कुटिलता एवं उनकी अनीतियों को जिम्मेदार ठहराया है.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक लेख करते समय इतिहासकार की पूर्व निर्धारित धारणाओं का अत्यधिक योगदान रहता है. प्रत्येक इतिहासकार अपनी रचना का निर्माण उन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए करता है, जो इस तथ्य को भली-भाँति समझने में सहायक है कि पूर्वाग्रह ऐतिहासिक लेखन को प्रभावित करते हैं.
'औरंगजेब की धार्मिक नीति' इस विषय पर जिस किसी भी इतिहासकार ने लेखन कार्य किया है, उसने उसकी धार्मिक कट्टरता को ही उभारा है. यही कारण है कि लेखक के मस्तिष्क में औरंगजेब की छवि पूर्व में ही एक कट्टर एवं धर्मान्ध शासक की रही है. यही कारण है कि आज तक औरंगजेब के दूसरे पहलू को अध्ययन में शामिल ही नहीं किया गया है. इस प्रकार इतिहास में हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं, जो कि यह स्पष्ट करने में सहायक हैं कि अमुक ऐतिहासिक लेखन में इतिहासकार की पूर्वाग्रह की धारणा प्रबल है. इस प्रकार इतिहास लेखन में पूर्वाग्रह की धारणा को स्वीकार नहीं करना चाहिए.
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