परवर्ती उत्तर वैदिक काल के समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म तथा राजनैतिक व्यवस्था का मूल्यांकन कीजिए. उत्तर वैदिक काल किस प्रकार से प्रारम्भिक वैदिक काल से भिन्न था ?

परवर्ती उत्तर वैदिक काल के समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म तथा राजनैतिक व्यवस्था का मूल्यांकन कीजिए. उत्तर वैदिक काल किस प्रकार से प्रारम्भिक वैदिक काल से भिन्न था ?
प्रश्न - परवर्ती उत्तर वैदिक काल के समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म तथा राजनैतिक व्यवस्था का मूल्यांकन कीजिए. उत्तर वैदिक काल किस प्रकार से प्रारम्भिक वैदिक काल से भिन्न था ?
उत्तर - 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. के मध्य में वैदिक कबीले 'सप्त सैन्धव' क्षेत्र में गंगा की ऊपरी घाटी तथा उसके आसपास के क्षेत्र में फैल गए थे. क्षेत्रीय परिवर्तन के इस काल में आर्यों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक व्यवस्था में कई परिवर्तन आये.
समाज
समाज की रचना असमानता पर आधारित थी. हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चार वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति ब्रह्माण्ड के रचयिता प्रजापिता ब्रह्मा के शरीर से हुई.
इन स्रोतों में प्रतीकात्मक रूप से यह दिखाया गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समाज के अंग हैं. हालांकि यह अंग समान स्तर के नहीं हैं. ब्राह्मण की तुलना सिर या मुख से की गई है, जबकि शूद्र की तुलना पाँव से. ब्राह्मण सर्वोच्च समझे गये, क्योंकि ऐसा माना गया कि समाज देवताओं से सम्पर्क केवल उनके द्वारा ही स्थापित कर सकता था, जबकि शूद्र निम्न कार्य करता था और इस श्रेणी में वह दास भी रखे गये जो युद्ध में पकड़े जाते थे.
वर्ण की अवधारणा
वर्ण की अवधारणा की निम्नलिखित विशेषताएं हैं – 
(1) जन्म के आधार पर सामाजिक स्तर.
(2) वर्गों का श्रेणीबद्ध तरीके से गठन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) जिसमें ब्राह्मण समाज में सबसे उच्च और शूद्र सबसे निम्न स्थान पर थे.
(3) सगोत्र विवाह एवं अनुष्ठानों की पवित्रता के नियम.
वर्ण व्यवस्था को आगे धर्म से या सार्वभौमिक नियम की अवधारणा से प्रतिबद्ध किया गया है और वर्ण धर्म की स्थापना सामाजिक नियम रूप में इसलिए की गई, जिससे कि समाज को व्यवस्थित ढंग से चलाया जा सके, लेकिन उत्तर वैदिक समाज में वर्ण धर्म का पूर्णतः विकास नहीं हो पाया था.
वैदिक काल के बाद के काल में भी वर्ण धर्म प्रत्येक समूह के आनुष्ठानिक महत्व मात्र की ओर संकेत करता था. वर्ण व्यवस्था में गैर क्षत्रिय लोग भी क्षत्रिय हो सकते थे.
इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को व्यावहारिक स्तर पर वैदिक काल के बाद भी कठोरता के साथ कभी भी लागू नहीं किया जा सका.
ऐसा समझा जाता था कि उत्तर वैदिक काल में भौगोलिक केन्द्र परिवर्तन के साथ वैदिक लोगों का सामना बहुत से गैर वैदिक कबीलों के साथ हुआ. इनके साथ लम्बे आदान-प्रदान के बाद एक मिला-जुला समाज अस्तित्व में आया. कम-से-कम अथर्ववेद में कई गैर वैदिक धार्मिक परम्पराओं का चित्रण है, जिसे पुरोहितों द्वारा स्वीकार किया गया था. यहाँ पर विवाह के कठोर नियमों को लागू करने का उद्देश्य सगोत्र विवाह के द्वारा कबीले की पवित्रता को बनाये रखना था. क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों का महत्व समाज में बढ़ जाने के कारण उनके लिए यह अनिवार्य हो गया कि अन्य लोगों की तुलना में वे स्पष्टतः अपनी सर्वोच्चता कायम रखें. उत्तर वैदिक काल में फिर भी वर्णों की अवधारणा अपनी प्रकृति में बनावटी थी. उदाहरणतः अस्पृश्यता की अवधारणा अनुपस्थित थी.
गोत्र
इस समय में गोत्र संस्था का भी उदय हुआ. कबीलाई सगोत्र विवाह (कबीले के अन्दर विवाह) के विरुद्ध लोग असगोत्रीय विवाह (कबीले के बाहर विवाह) करते थे. गोत्र ने एक समान पूर्वज के वंशक्रम को महत्व दिया और इसी कारण एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों का आपस में विवाह नहीं होता था.
परिवार
इस काल में पितृसत्तात्मक परिवार अच्छी प्रकार से स्थापित था और गृहपति को एक विशेष स्थान प्राप्त था. घरेलू अर्थव्यवस्था के विशिष्टता प्राप्त कर लेने से गृहपति की स्थिति महत्वपूर्ण हो गयी. भूमि पर स्वामित्व का अधिकार परम्परागत प्रयोग के आधार पर था तथा भूमि के सामुदायिक स्वामित्व को भी सुरक्षित रखा गया. गृहपंति धनी थे और अनुष्ठान में उनका मुख्य कार्य यजमान का था. उन्होंने धन उपहारों के द्वारा प्राप्त नहीं किया था, परन्तु इन्होंने इसको अपने विशेष प्रयासों से उत्पादित किया. यज्ञों का सम्पन्न कराना उनका कार्य था जिससे कि उनको विशेष दर्जा मिलता और उनके धन में से कुछ भाग ब्राह्मणों को भी जाता था. कुछ महिलाओं को दार्शनिक का दर्जा प्राप्त हुआ था तथा रानियाँ राजतिलक के अनुष्ठानों के अवसर पर पुरुषों के साथ उपस्थित रहती थीं फिर भी महिलाओं को पुरुषों का सहायक ही समझा जाता और नीति निर्धारण में उनका कोई योगदान नहीं होता था.
जीवन के तीन आधार
तीन आश्रम, अर्थात् जीवन को तीन भागों में विभाजित किया गया. यह निम्न प्रकार थे – 
ब्रह्मचर्य (विद्यार्थी जीवन), गृहस्थाश्रम ( घरेलू जीवन), वानप्रस्थाश्रम (घरेलू जीवन का परित्याग करके वन में निवास करना), संभवतः चतुर्थ, संन्यास आश्रम ( अनिवार्य रूप से सांसारिक जीवन को छोड़ देना) था, जिसके विषय में उपनिषदों के समय तक कोई जानकारी नहीं मिलती. उत्तर वैदिक काल में संन्यासी या तपस्वी व्यक्तिगत स्तर पर होते थे, परन्तु इन्होंने वैदिक काल के बाद की सामाजिक व्यवस्था का सक्रिय या निष्क्रिय तरीके से विरोध किया था.
अर्थव्यवस्था
गंगा, यमुना, दोआब एवं मध्य गंगा घाटी में उर्वरक भूमि के विशाल मैदानों की उपलब्धता से उत्तर वैदिक काल में कृषि का विकास सम्भव हुआ तथा इस क्षेत्र में प्रथम शताब्दी ई. में, धीरे-धीरे स्थायित्व कायम हो सका. उत्तरपू. वैदिक साहित्य में ऐसे संकेत मिलते हैं कि पशुपालन का महत्व बना रहा. इसी के साथ-साथ कृषि पर आधारित स्थायी जीवन प्रणाली का भी प्रारम्भ हो चुका था. दोनों तरह के साहित्यिक व पुरातात्विक स्रोत यह बताते हैं कि लोग खाने में चावल का प्रयोग करने लगे थे. चित्रित मृद्भाण्ड तथा बांस संस्कृति के खुदाई किये गये स्थलों से चावल के काले पड़े हुए दाने मिले हैं. वैदिक साहित्य में चावल के लिए ब्रीही, तन्दूल तथा सलि जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, यह लगता है कि इस समय फसल चक्र का प्रयोग होने लगा था तथा जौ व चावल की खेती की जाने लगी थी. इस काल में खेती की अच्छी पैदावार तथा आर्थिक सम्पन्नता के लिए राजसूय यज्ञ में दूध, घी व पशुओं के साथ-साथ अनाज भी चढ़ाया जाने लगा. अथर्ववेद में ऐसी 12 बलियों का वर्णन है, जिससे कि भौतिक लाभ की प्राप्ति होती थी तथा इसी के साथ ब्राह्मणों को गाय, बछड़े, साँड़, सोना, पके चावल, छप्पर वाले घर तथा अच्छी पैदावार देने वाले खेतों को उपहार के रूप में दिया जाने लगा था. उपहार में दी जाने वाली ये वस्तुएं इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि कृषि तथा कृषि पर आधारित स्थायी जीवन का महत्व बढ़ रहा था. उत्तर वैदिक काल के साहित्य में वर्णन है कि 8, 12 व 20 बैल तक हल को जोतते थे. यहाँ पर बैलों की संख्या का वर्णन प्रतीक के रूप में हुआ है, परन्तु इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट है कि खेती करने के लिए हल बैल का प्रयोग खूब होने लगा था.
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