General Competition | History | (आधुनिक भारत का इतिहास) | राष्ट्रवाद का उदय और काँग्रेस का गठन

भारत में राष्ट्रवाद का उद्भव क्रमबद्ध और लंबे अंतराल का परिणाम था। इसके पीछे 1857 से पूर्व की परिस्थितियाँ तथा औपनिवेशिक व्यवस्था से उपजी परिस्थितियाँ भी शामिल थी।

General Competition | History | (आधुनिक भारत का इतिहास) | राष्ट्रवाद का उदय और काँग्रेस का गठन

General Competition | History | (आधुनिक भारत का इतिहास) | राष्ट्रवाद का उदय और काँग्रेस का गठन

भारत में राष्ट्रवाद का उद्भव क्रमबद्ध और लंबे अंतराल का परिणाम था। इसके पीछे 1857 से पूर्व की परिस्थितियाँ तथा औपनिवेशिक व्यवस्था से उपजी परिस्थितियाँ भी शामिल थी। भारतीय राष्ट्रवाद के प्रेरक तत्वों ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्षों के प्रेरणा को प्रबल किया। इसी क्रम में भारतीय बुद्धजीवियों ने भारत में नवीन वैचारिक, राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता तथा अधिकारों के उद्देश्य से कुछ संगठनों की गठन किया। इन संगठनों का सबसे प्रबल पक्ष था भारत की जनमानस को एक सूत्र में बाँध कर भारत को राष्ट्र के रूप में प्रदर्शित करना तथा औपनिवेशिक व्यवस्था से आजाद करना । काँग्रेस का गठन भी कुछ हद तक इससे ही प्रेरित है। डफरिन ने कांग्रेस गठन के लिए अपनी भारतीय जनता के प्रति उसका स्नेह और उनके दुदर्शा पर पीड़ा ही प्रदर्शित किया है। किंतु कुछ स्वतंत्रता सेनानी और इतिहासकार इसके पक्ष में नहीं है।

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

  • भारत में राष्ट्रवाद का उदय का लंबा कालखण्ड था। इस क्रम में सामाजिक टकराव, तथा औपनिवेशिक नीतियों की अहम भूमिका थी भारतीय जनमानस के स्तर पर दो वर्गों का राष्ट्रवाद के उद्भव में प्रमुख योगदान था ।
  • भारतीय किसान तथा पारम्परिक हस्तशिल्प एवं अन्य ग्रामीण उद्योगों के श्रमिक, हालांकि ये प्रारंभिक मात्र थे इस क्रम में समाज सुधारक शिक्षाविद् तथा भारतीय क्रांतिकारियों ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद को प्रेरित किया था।

किसानों का शोषण

  • नवीन भूमि बंदोबस्ती व्यवस्था (स्थायी रैयतवाड़ी, महालवाड़ी) ने कुछ नई व्यवस्थाओं ( बाजार व्यवस्था) को जन्म दिया जो नवीन व शोषणकारी थी।
  • इसी क्रम पुरानी परम्परागत व्यवस्थाओं जैसे सामुदायिक अधिकार तथा चारागाह नीति को भी नष्ट कर दिया गया था।
  • भूराजस्व के नवीन नीतियों ने महाजनी ( सूद पर कर्ज लेने की व्यवस्था) व्यवस्था को जन्म दिया। जो कालांतर में अत्यंत घनघोर शोषक साबित हुआ।
  • इसी क्रम में बदले हुए सामाजिक व्यवस्था/परिवेश के महाजनों (सूद वसूलने वालों) व्यवस्था को बढ़ावा दिया।
  • इसी क्रम में बदले हुए सामाजिक व्यवस्था परिवेश में महाजनी ( सूद वसूलने वाले) के हाथों में भारत की संवृद्ध और गौरवशाली समाज और अर्थव्यवस्था पूर्णतः फंस गई थी।
  • आदिवासी क्षेत्रों में औपनिवेशिक व्यवस्था ने मूल निवासियों को उनके कार्यों और परम्परागत व्यवसाय से दूर किया था।

शिल्पकारों का शोषण

  • नवीन औपनिवेशिक व्यवस्था ने भारत में परम्परागत शिल्पकारों, हस्तशिल्प उद्योगों को नष्ट कर दिया था।
  • भारतीय हस्तशिल्प ब्रिटिश व्यवस्था के आगमन से ही नष्ट होना प्रारंभ हो गई थी। क्योंकि भारतीय रजवाड़ों के नष्ट होने से इनका पतन प्रारंभ हो गया क्योंकि भारतीय रजवाड़े हस्तशिल्प उद्योग के विकास और वृद्धि के संपोषक थे।
  • औद्योगिक व्यवस्था ने भारत को ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का प्रमुख बाजार बना दिया। ये वस्तुएँ बड़ी-बड़ी मशीनों से निर्मित होती थी इसी कारण सस्ती एवं उत्कृष्ट भी होती थी। भारतीय हस्तशिल्प उद्योग इनका बाजार के दृष्टिकोण से सामना नहीं कर पाया।
  • आर्थिक और सामाजिक शोषण का संयुक्त परिणाम था समकालीन जमीनी स्तर के क्रांति । ये क्रांति ही भविष्य के राष्ट्रवाद का समायोजन थे। जी. क

देश में राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक एकीकरण

  • ध्यातव्य है कि ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार और राजनीतिक भूभाग बहुत बड़ा था। इनके राजनीतिक क्षेत्र विस्तार में उत्तर के हिमालय से दक्षिण के कन्याकुमारी तथा पूर्व में असम से पश्चिम में खैबर दर्रे तक था।
  • इसमें कुछ भारतीय रियासतें प्रत्यक्षत: ब्रिटिश शासन में अंतर्निहित थी तो कुछ अप्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन थी ।
  • ब्रिटिश सरकार ने एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून लगभग समस्त अपने विस्तृत भारतीय उपमहाद्वीप साम्राज्य को नियंत्रित करने के उद्देश्य बना डाला था।
  • इसी क्रम में आर्थिक शोषण को ध्यान में रख औपनिवेशिक व्यवस्था ने तीव्र एवं द्रुतगामी परिवहन व्यवस्था भी बना दिया।
  • 1850 के पश्चात रेल लाइन भी बिछाने का कार्य प्रारंभ किया गया। रेलवे के लाभ सिर्फ औपनिवेशिक शक्ति को ही नहीं हुआ। बल्कि इसका अप्रत्यक्ष लाभ भारत को एकीकृत होने का मौका भी मिला था।
  • 1850 के पश्चात आधुनिक डाक व्यवस्था ने तथा बिजली के तारों ने देश को एकीकृत किया जो सामुहिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने में सफल रहे थे।

पाश्चात्य शिक्षा तथा चिंतन से उपजा राष्ट्रवाद

  • भारतीय शिक्षा व्यवस्था पुरातन और परम्परावादी थी। इसकी अपनी विधा थी वैश्विक दृष्टिकोण से भारतीय शिक्षा भिन्न थी। किंतु जत्र भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली लागू हुई तो पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली जिससे भारत की राजनीतिक चिंतन को दिशा प्राप्त हुई I
  • ट्रैवेलियन, मैकाले तथा बेंटिक ने भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारंभ किया तो इसका असर भारत की जनता पर दिखना प्रारंभ हो गया।
  • हालांकि भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारंभ भारत में प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए किया गया था। किंतु भारत के लोगों को बेंथम, सीले, रूसो, स्पेंसर, वाल्टेयर जैसे विचारकों को पढ़ने का मौका मिला। 
  • इन विचारकों ने जनतंत्र, लोकतंत्र, मानव अधिकार, स्वतंत्रता, समानता जैसे विचारों को तर्कपूर्ण एवं प्रभावशाली विधि से रखा है। जो भारतीय जनमानस में राष्ट्रवादी भावनों को जगाने में सहयोगी साबित हुई थी ।
  • इसी क्रम में अंग्रेजी भने भारतीयों को भाषा के स्तर पर समतुल्य कर दिया जिसका प्रभाव था। भारतीयों ने अब अपने राजनीतिक व मानव अधिकार के साथ राष्ट्र और राष्ट्रवाद को तत्परता से विस्तारित किया।
  • अंग्रेजी माध्यम से नवशिक्षित मध्यमत्रर्ग ने (डॉक्टर, वकील, शिक्षक, पत्रकार) विदेश भ्रमण किया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को एक राष्ट्र के अनुसार प्रदर्शित किया और भारत में वापस आकर राष्ट्रवादी भावना को भी प्रेरित किया था।

प्रेस और समाचार-पत्रों ने राष्ट्रवाद में वृद्धि किया

  • ज्ञातव्य है 1877 में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी किंतु धीरे-धीरे इसकी संख्या 1 लाख तक पहुँच गई थी।
  • भारतीय प्रेस जहाँ उपनिवेशी शासन की आलोचना करता था नहीं भारतीय क्रांति एवं देशवासियों को आपसी एकता के लिए प्रेरित भी करता था ।
  • राष्ट्रवादी समाचार-पत्रों, जर्नल्स, पैम्पलेट तथा अन्य साहित्यों ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को निरंतर प्रेरित और प्रसारित किया था।
  • 1857 की विद्रोह कुचलने के पश्चात् भी भारत के अनेक भौगोलिक क्षेत्रों में अंग्रेजों के प्रशासनिक और राजनीतिक नीतियों का विद्रोह जारी रहा था।
  • ज्ञातव्य है कि अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक नियंत्रण के दम पर आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारत पर शासन किया था।
  • इसी क्रम में भारतीय जनता के हितों और अंग्रेजों के हितों के मध्य कोई भी साम्य नहीं था । यह भी कारण रहा निरंतर टकराव था ।
  • कुछ सुविधा संपन्न वर्ग को छोड़कर भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हमेशा भारतीय जनता को खड़ा किया था।
  • ब्रिटिश शासन ने अपने साम्राज्यवादी एवं शोषणकारी नीतियों से स्वयं अपने विनाश के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न किया था।
  • ब्रिटिश शासन के अंतर्गत लगभग समूचे श का एक राजनीतिक इकाई के रूप में एकीकरण हुआ था।
  • ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के क्षेत्र ऐसे थे जहाँ भारतीय शासन ते थे, किंतु वे पूर्णत: ब्रिटिश कृपा पर आश्रित थे। उनमें से कुछ के शासकों ने समय के साथ ब्रिटिश सत्ता का विरोध भी किया।

आर्थिक परिवर्तनों से उपजा राष्ट्रवाद

  • रेलवे के विकास ने भारत के सभी क्षेत्रों को जोड़ा एवं इसके निर्माण ने जनता का आर्थिक एवं सामाजिक शोषण किया।
  • रेलवे ने क्षेत्रीय संपर्क को बढ़ाया। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा लोगों में एकजुटता की भावना में वृद्धि हुई।
  • भारत ब्रिटिश उत्पादकों के लिए बाजार तथा ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत बन गया था ।
  • उद्योगों में काम करने वाले कामगारों के बीच जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक भावनाओं का लोप हुआ एवं एकता में वृद्धि हुई ।
  • कामगारों के बीच परस्पर संपर्क में वृद्धि हुई। इस एकजुटता ने ब्रिटिश शोषण के खिलाफ क्रांति के लिए प्रेरित किया।
  • 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में प्रारंभ हुए आधुनिक उद्योगों के विकास ने राष्ट्रीय चेतना के विकास में महती भूमिका निभाई।
  • उद्योगों के विकास होने से समाज में दो महत्वपूर्ण वर्ग पूँजीपति वर्ग एवं औद्योगिक मजदूर वर्ग का उदय हुआ ।
  • पूँजीपति एवं औद्योगिक मजदूर शासन भारत में औद्योगिक व वर्ग इन दोनों के विकास के लिए देश में बाधक था यह भी कारण था। विकास की आवश्यकता थी। किंतु ब्रिटिश वह इन दोनों का विरोधी था ।

काँग्रेस का गठन

  • 19वीं शताब्दी में राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्पोषक प्रारंभ से ही एक राष्ट्रीय स्तर की संख्या के निर्माण को प्रयासरत थे I
  • इस क्रम में राष्ट्रीय संगठन के निर्माण का श्रेय अंग्रेज सेवानिवृत्त अधिकारी ए. ओ. ह्यूम को प्राप्त हुआ।
  • ए. ओ. ह्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से संपर्क स्थापित किया । तथा इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेस का आयोजन किया गया।
  • 1884 में ए. ओ. ह्यूम के प्रयत्नों से ही एक संस्था 'इंडियन नेशनल यूनियन' की स्थापना किया गया।
  • इसी यूनियन ने 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन पूना में आयोजित करने का निर्णय लिया।
  • इस सम्मेलन के आयोजन की जिम्मेदारी भी ए. ओ. ह्यूम को दिया गया। लेकिन पूना में हैजा फैलने के कारण उसी वर्ष 1885 में यह आयोजन बंबई में किया गया।
  • इस सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया । इसी सम्मेलन में अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना किया गया।
  • इसी क्रम में ए. ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख निर्माता माने जाते हैं।
  • ज्ञातव्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने किया था। इस अधिवेशन में कुल 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था ।

कांग्रेस का उद्देश्य

  • लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी आंदोलन चलाना ।
  • भारतीय जनभावना में राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार-प्रसार तथा राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना ।
  • आंदोलन के लिए मुख्यालय की स्थापना ।
  • देश के विभिन्न भागों के राजनीतिक नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के मध्य सेतु का निर्माण करना ।
  • एक सामान्य आर्थिक तथा राजनीतिक कार्यक्रम हेतु देशवासियों को एकजुट करना
  • भारतीय सामाजिक जटिलता (जाति, धर्म, सम्प्रदाय) से ऊपर उठकर जनमानस में एकता एवं राष्ट्रवाद की भावना में वृद्धि करना
  • भारत एवं ब्रिटेन के मध्य संबंधों को मधुर बनाना
  • जनता की माँगों को सूत्रीकरण कर उसको सरकार के समकक्ष प्रस्तुत करना । 
    इसी क्रम में कांग्रेस ने अपने प्रथम अधिवेशन में नौ प्रस्तावों का अनुमोदन किया था।
    1. शाही कमीशन के द्वारा भारत को भी उचित रीति से प्रतिनिधित्व प्राप्त हो
    2. इंडियन कौंसिल को भंग किया जाए
    3. केन्द्रीय तथा प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों का विस्तार किया जाए तथा
    4. निर्वाचित सदस्यों को आर्थिक बजट पर विचार करने की अनुमति प्रदान किया जाए।
    5. सिविल सेवा की परीक्षा इंग्लैंड के साथ भारत में भी करायी जाए तथा इसमें प्रवेश करने वालों की अधिकतम आयु 19 से बढ़ाकर 23 वर्ष किया जाए।
    6. सेना पर खर्च घटाया जाए।
    7. चुंगी फिर से लगाया जाए तथा बढ़े हुए सेना व्यय को यथेष्ट बनाया जाए।
    8. बर्मा को जिस पर अधिकार कर लिया गया था उसको स्वतंत्र करने की बात की गई।
    9. अगले वर्ष कलकता में आयोजन किया जाए।
    10. सभी प्रस्तावों को सभी प्रांतों के राजनीतिक संस्थाओं को भेजा जाए।

कांग्रेस के गठन से संबंधित विवाद ।

  • इतिहासकारों के बीच हमेशा इस विषय पर विवाद बना रहा कि कांग्रेस की स्थापना के पीछे छिपा उद्देश्य हमेशा से भिन्न थी ।
  • कुछ इतिहासकारों ने इस विषय पर लिखा है कि अंग्रेज तात्कालिक परिवेश भारतीय जनभावना को नियंत्रित किया जा सकने वाले एक संगठन के रूप में कांग्रेस की स्थापना किए थे।
  • इनका मानना था कि लॉर्ड डफरिन के परामर्श पर ह्यूम ने कांग्रेसी की स्थापना किया था।
  • संफ्टी वाल्व सिद्धांत-इसके मतानुसार डफरिन के आदेश पर ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना किया था।

गरम दल / नरम दल

  • कांग्रेस की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में नरल दल के राजनेताओं की विचारधार। प्रभावी रहा I
  • नरम दल के नेतृत्वकर्ता मुख्यतः राजवांमबध्य आंदोलन (constitutional agitation) अर्थात प्रशासन में रहकर भारतीयों की भागीदारी एवं राजनीतिक हित की बात करते थे ।
  • वही गरम दल के राजनेताओं ने अनुकूल प्रविघटन ( passive resitance) पद्धति पर कार्य किया था।
  • इसी क्रम में दोनों विचारधाराओं के बीच अपने-अपने विधाओं और वैचारिक श्रेष्ठता के लिए वर्चस्व की लड़ाई आंतरिक रूप से प्रारंभ हो गई।
  • गरम दल के नेताओं को अपनी उग्र अहिंसात्मक व ब्रिटिश शासन को अपने समक्ष उनके नीतियों पर झुकते हुए देखना पसंद था।
  • नरम दल के नेता प्रबुद्ध त शांत विचारधारा के ब्रिटिश सरकार को संवैधानिक व अहिंसा विधि से अपनी राजनीतिक हितों को मनवाना पसंद था।
  • उदारवादी विचारधारा के संपोषक राजनेता अत्यधिक शहरी क्षेत्रों से संबद्ध थे। इसमें मध्यमवर्गीय बुद्धजीवी जैसे डॉक्टर, वकील. इंजीनियर पत्रकार इत्यादि शामिल थे।
  • नरम दल के नेतृत्वकर्ताओं में दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनेश वाचा, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इत्यादि थे।
  • ये सभी लोग राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त थे एवं उपलब्धियों और उपाधियों से लैश व्यक्ति थे ।
  • ये सभी नरमपंथी राजनेताओं की एक समस्या भी थे शहरों से जुड़े सिर्फ छोटे से हिस्सों से जुड़े हुए राजनेता थे। इनलोगों का आम भारतीय (ग्रामीण) जनता से संपर्क न के बराबर था।
  • नरम दल और गरम दल का वैचारिक टकराव सूरत (1907) के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में हुआ । कांग्रेस में प्रभावशाली उदारवादियों ने गरम दल ( उग्रवादियों) को कांग्रेस से निष्कासित करा दिया था।
  • इसी क्रम में उग्रवादी विचारधारा के चार प्रमुख राजनेता बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिनचन्द्र पाल तथा अरविंद घोष थे।
  • ये सभी राजनेता राजनैतिक व वैचारिक दृष्टिकोण से उग्र स्वभाव के थे। इनको नरमदल की संविधान के दायरे में रहकर अपनी मांगों को मनवाने की विधा में विश्वास नहीं था ।
  • इसी क्रम में बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि "हमारा उद्देश्य आत्मनिर्भरता है भिक्षावृत्ति नहीं " ।
  • गरमपंथी विचारधारा के राजनेताओं को नरमपंथी के प्रार्थना एवं याचना की राजनीति से समस्या होती थी।
  • उग्रवादी दल सामूहिक आंदोलन के माध्यम से आत्म बलिदान और दृढ़निश्चय के दम से स्वराज की प्राप्ति चाहता था।
  • उग्रवादी दल के स्वराज का अर्थ या विदेशी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता जबकि उदारवादी दल स्वराज अंतर्गत साम्राज्य के अंदर औपनिवेशिक चाहता था ।

कांग्रेस से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य

  • कांग्रेस (लोगों का समूह ) शब्द की उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका के इतिहास से हुई है।
  • 'भारतीय राष्ट्रीय संघ' यह कांग्रेस की पूर्वगामी संस्था मानी जाती है। इस संस्था का निर्माण का श्रेय लॉर्ड डफरिन को जाता है।
  • भारतीय राष्ट्रीय संघ को संस्था का रूप एलन अक्टोवियन ह्यूम ने दिया था।
  • भारतीय राष्ट्रीय संघ का नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 'दादा भाई नौरोजी' के सुझाव पर किया गया था।
  • कांग्रेस के प्रथम मुस्लिम अध्यक्ष बदरूद्दीन तैयबजी थे।
  • कांग्रेस के प्रथम अंग्रेज अध्यक्ष जॉर्ज यूल थे।
  • कांग्रेस के 1911 के कलकत्ता म जन, गणन, मन का गायन किया गया था। 
  • 1 जनवरी, 1903 को दिल्ली दरबार में एडवर्ड सप्तम को भारत का सम्राट घोषित किया गया। 
  • कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्षा श्रीमती ऐनी बेसेंट (1917) थी।
  • कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष • सरोजनी नायडू (1925) थी।
  • निष्क्रिय विरोध का सिद्धांत का प्रतिपादन अरविंद घोष ने किया था।
  • ज्ञातव्य है कि कांग्रेस के इतिहासकार पट्टाभि सीतारमैया थे।
  • राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' की रचना बंकिमचन्द्र चटर्जी ने किया था।
  • कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने बोला था । 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा'।

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